खतरे में पड़ गया पारंपरिक ज्ञान का एक अनूठा स्रोत

कुछ आधुनिकता की हवा, कुछ कोताही और कुछ पारंपरिक तकनीकी ज्ञान के बारे में अल्प सूचना, अपने तरीके की विश्व की एकमात्र ऐसी जल-प्रणली को अब अपने अस्तित्व के लिए जूझना पड़ रहा है।

New Delhi, Mar 09 : सतपुड़ा की सघन जंगलों वाली पहाड़ियों के भूगर्भ में धीरे-धीरे पानी रिसता है, फिर यह पानी प्राकृतिक रूप से चूने से निर्मित नालियों के माध्यम से सुरंगनुमा नहरों से होते हुए आम उपयोग के लिए कुइयों में एकत्र हो जाता है। दो दशक पहले तक इस संरचना के माध्यम से लगभग चालीस हजार घरों तक बगैर किसी मोटर पंप के पाइप के जरिये पानी पहुंचता था। कुछ आधुनिकता की हवा, कुछ कोताही और कुछ पारंपरिक तकनीकी ज्ञान के बारे में अल्प सूचना, अपने तरीके की विश्व की एकमात्र ऐसी जल-प्रणली को अब अपने अस्तित्व के लिए जूझना पड़ रहा है। उस समाज से जूझना पड़ रहा है, जो खुद पानी की एक-एक बूंद के लिए प्रकृति से जूझ रहा है। मुगलकाल की बेहतरीन इंजीनिर्यंरग का यह नमूना मध्य प्रदेश में ताप्ती नदी के किनारे बसे बुरहानपुर शहर में है। पिछले साल इस संरचना का नाम विश्व विरासत के लिए भी यूनेस्को को भेजा गया था। ठीक इसी तरह की एक जल-प्रणाली कभी ईरान में हुआ करती थी, वहां भी यह प्रणाली लापरवाही के कारण बीते दिनों की बात हो गई है।

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बुरहानपुर उन दिनों मुगल सेना की एक बड़ी छावनी था। ताप्ती नदी के पानी पर पूरी तरह निर्भरता को तब के सूबेदार अब्दुल रहीम खान ने असुरक्षित माना और उनकी निगाह इस प्राकृतिक जल-स्रोत पर पड़ी। सन 1615 में फारसी भूतत्ववेत्ता तबकुतुल अर्ज ने ताप्ती के मैदानी इलाके, जो सतपुड़ा की पहाड़ियों के बीच स्थित है, के भूजल स्रोतों का अध्ययन किया और शहर में जलापूर्ति के लिए भूमिगत सुरंगें बिछाने का इंतजाम किया। कुल मिलाकर ऐसी आठ प्रणालियां बनाई गईं। आज इनमें से दो तो पूरी तरह समाप्त हो चुकी हैं। शेष रह गई प्रणालियों में से तीन से बुरहानपुर शहर और बाकी तीन का पानी पास के बहादुरपुर गांव और राव रतन महल को जाता है, जहां वह लोगों की प्यास बुझाने के अलावा उनके दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करता था।

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जल प्रवाह और वितरण का यह पूरा सिस्टम गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत पर आधारित है। भूमिगत नालिकाओं को भी हल्की ढलान दी गई है। सुख भंडारा जमीन से तीस मीटर नीचे है और वहां से पानी इस सुरंग में आता है। गरमियों में भी यहां डेढ़ मीटर पानी होता है। चट्टानों वाली इस व्यवस्था को पक्का करने के लिए करीब एक मीटर मोटी दीवार भी डाली गई है। भूजल का रिसाव इसके अंदर होता रहे, इसके लिए दीवार में जहां-तहां जगह छोड़ी गई है। मूल भंडारा तो शहर से 10 किमी दूर एक सोते के पास स्थित है। यह खुले हौज की तरह है और इसकी गहराई 15 मीटर है। इसकी दीवारें पत्थर से बनी हैं। इसके चारों तरफ 10 मीटर ऊंची दीवार भी बनाई गई है। चिंताहरण मूल भंडारा के पास ही एक सोते के किनारे है और इसकी गहराई 20 मीटर है। खूनी भंडारा शहर से पांच किमी दूर लाल बाग के पास है। इसकी गहराई करीब 10 मीटर है।

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अपने निर्माण के तीन सौ पचास वर्ष बाद भी यह व्यवस्था बिना किसी लागत या खर्च के काम दिए जा रही है। बीते कुछ सालों से इसमें पानी कुछ कम आ रहा है। सन 1985 में जहां यहां का भूजल स्तर 120 फुट था, वह 2010 में 360 और आज 470 फुट लगभग हो गया है। असल में, जिन सुरंगों के जरिए पानी आता है, उनमें कैल्शियम व अन्य खनिजों की परतें जमने के कारण उनकी मोटाई कम हो गई और उससे पानी कम आने लगा। इसके अलावा सतपुड़ा पर जंगलों की अंधाधुंध कटाई, बरसात के दिन कम होना और इन नालियों व सुरंगों में कूड़ा आने के चलते यह संकट बढ़ता जा रहा है। सन 1992 में भूवैज्ञानिक डॉ यूके नेगी के नेतृत्व में इसकी सफाई हुई थी, उसके बाद इनको साफ करने पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। हालांकि डॉ नेगी ने उसी समय कह दिया था कि इस संवेदनशील संरचना की सफाई हर दस साल में होनी चाहिए।
बुरहानपुर के जल-भंडार ऐतिहासिक ही नहीं, भूगर्भ और भौतिकी विज्ञान के हमारे पारंपरिक ज्ञान के अनूठे उदाहरण हैं। इनका संरक्षण महज जल प्रदाय व्यवस्था के लिए नहीं, बल्कि विश्व की अनूठी जल प्रणाली को सहेजने के लिए भी अनिवार्य है।

(वरिष्ठ पत्रकार पंकज चतुर्वेदी के फेसबुक वॉल से साभार, उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि इंडिया स्पीक्स ग्रुप उनके विचारों से सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. )