यूपी के दो संसदीय उपचुनाव क्यों खास हो गये हैं ?

कुछ दिनो पहले बसपा सुप्रीमो सुश्री मायावती ने ऐलान किया कि उनकी पार्टी उपचुनाव नहीं लड़ रही है पर वह दोनों सीटों पर सत्ताधारी भाजपा को हराने के लिए सबसे समर्थ विपक्षी उम्मीदवार का समर्थन करेगी।

New Delhi, Mar 10 : 11 मार्च को उत्तर प्रदेश के फूलपुर और गोरखपुर में संसदीय उपचुनाव हो रहे हैं। दोनों सीटों के लिए उपचुनाव काफी समय से लंबित थे। कई अन्य प्रदेशों में उप चुनाव संपन्न करा लिये गये पर निर्वाचन आयोग ने न जाने क्यों यूपी के दोनों लंबित उपचुनावों की तारीख की घोषणा में कुछ ज्यादा वक्त लिया। बहरहाल, अब दोनों सीटों-गोरखपुर और फूलपुर के लिए चुनावी-दंगल सज गया है। गोरखपुर संसदीय सीट मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के इस्तीफे के चलते खाली हुई, जबकि फूलपुर में चुनाव की नौबत उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के इस्तीफे के चलते पैदा हुई। दोनों सांसद थे लेेकिन विधानसभा में अभूतपूर्व बहुमत पाने के बाद भाजपा नेतृत्व ने इन दोनों सांसदों को प्रदेश की सत्ता-राजनीति का सिरमौर बनाने का फैसला किया। यही कारण है कि दोनों नेता उप चुनाव में पार्टी की जीत सुनिश्चित करने में लगातार जुटे हुए हैं। उत्तर प्रदेश की विपक्षी राजनीति की दृष्टि से लंबे समय बाद यहां एक नया प्रयोग हुआ है। सन् 1995 के बाद पहली बार बहुजन समाज पार्टी राज्य में अपनी चिर-विरोधी समाजवादी पार्टी के प्रत्याशियों का समर्थन कर रही है। दोनों पार्टियों के बीच किसी तरह के गठबंधन का ऐलान नहीं हुआ है लेकिन बसपा के समर्थक और पारंपरिक मतदाता सपा के साथ दिखाई दे रहे हैं। इससे उप चुनाव का माहौल रोचक हो गया है।

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बसपा आमतौर पर उपचुनाव नहीं लड़ती। कुछ दिनो पहले बसपा सुप्रीमो सुश्री मायावती ने ऐलान किया कि उनकी पार्टी उपचुनाव नहीं लड़ रही है पर वह दोनों सीटों पर सत्ताधारी भाजपा को हराने के लिए सबसे समर्थ विपक्षी उम्मीदवार का समर्थन करेगी। वह चाहेंगी कि उनके समर्थक और आम बहुजन मतदाता भाजपा को हराने के लिए मतदान करेंगे। दिलचस्प बात है कि कर्नाटक में मायावती ने ऐसा कोई ऐलान नहीं किया। वहां वह विधानसभा के भावी चुनावों के लिए पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा के जनता दल(एस) के साथ गठबंधन कर रही हैं। देवगौड़ा की पार्टी हर कीमत पर कर्नाटक के मौजूदा मुख्यमंत्री सिद्दारमैया की अगुवाई वाली कांग्रेस को हराने में जुटे हुए हैं, जिसका फायदा अंततः भाजपा को मिलेगा। गुजरात विधानसभा के चुनाव में भी मायावती ने अलग से उम्मीदवार खड़े किये थे। भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस से तालमेल करने के प्रस्ताव पर उन्होंने विचार नहीं किया। ऐसी स्थिति में मायावती की मौजूदा भूमिका और रणनीति दिलचस्प के साथ रहस्यमय भी है। क्या यूपी उपचुनाव के लिए उनका फैसला सिर्फ राज्यसभा की एक सीट के एवज में हुआ या इसके पीछे कोई वृहत्तर राजनीतिक सोच भी है? इस सवाल का जवाब अभी मिले न मिले, सन् 2019 के संसदीय चुनाव से पहले जरूर मिल जायेगा!

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उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच सन् 1992 के बाबरी मस्जिद ध्वंसकांड के कुछ समय बाद पहली बार राजनीतिक गठबंधन हुआ था लेकिन वह ज्यादा दिनों तक नहीं चला। सन् 1995 आते-आते रिश्ते दरकने लगे और माया-मुलायम एक-दूसरे के ‘सियासी-दुश्मन’ बन गये। इसमें लखनऊ के बहुचर्चित गेस्ट हाउस कांड की अहम् भूमिका माानी गई। सपा-समर्थकों की एक भीड़ ने गेस्ट हाउस जाकर सुश्री मायावती पर हमला करने की कोशिश की थी। उस घटना के बाद मायावती ने सपा के खिलाफ भाजपा से हाथ मिला लिया। लेकिन बसपा-भाजपा साथ भी ज्यादा दिनों तक नहीं चला। अतीत की तमाम कटुता को पीछे छोड़ते हुए बसपा-सपा फिर नजदीक आये हैं। कम से कम एक-दूसरे के समर्थन के स्तर पर। सपा राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव में इस बार बसपा के एक उम्मीदवार को समर्थन दे सकती है। उपचुनाव में बसपा खुलकर सपा उम्मीदवारों का समर्थन कर रही है। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच बात नहीं बनी, इसलिए दोनों सीटों पर कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार उतारे हैं। कांग्रेस के लिए फूलपुर का खास महत्व है। एक जमाने में यहां से देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू स्वयं चुनाव लड़ते थे। पर कांग्रेस बाद के दिनों में नेहरू के अपने क्षेत्र को बचा नहीं सकी और वह सपा-बसपा-भाजपा के खाते में जाता रहा। मौजूदा चुनाव में कांग्रेस दोनों स्थानों पर फिलहाल लड़ाई से बाहर नजर आ रही है।

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ऐसे में फूलपुर और गोरखपुर, दोनों सीटों पर लड़ाई आमने-सामने की है। पर प्रचार, कार्यकर्ता-नियोजन और खर्च आदि के हिसाब से देखें तो सत्ताधारी भाजपा की रणनीति विपक्ष पर भारी दिख रही है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष और अब इलाहाबाद हाईकोर्ट के जाने-माने अधिवक्ता कमल कृष्ण राय ने इन पंक्तियों के लेखक के पूछे जाने पर बताया, ‘ गोरखपुर और फूलपुर, दोनों ऐतिहासिक महत्व के संसदीय क्षेत्र हैं। इसलिये उपचुनाव को सभी पक्ष गंभीरतापूर्वक ले रहे हैं। मैं फूलपुर क्षेत्र से अभी लौटा हूं। वहां कांटे की टक्कर नजर आ रही है। विपक्षी गठबंधन का प्रत्याशी स्थानीय और बहुत सक्रिय सपा नेता हैं, जबकि भाजपा प्रत्याशी पूर्वांचल के ही दूसरे जिले से आते हैं। भाजपा ने इस चुनाव को यहां इतना खर्चीला कर दिया है कि विपक्ष के सामने साधन-संसाधन की चुनौती जरूर नजर आ रही है।’ भारतीय जनता पार्टी के समर्थक दोनों क्षेत्रों में अपनी जीत के प्रति आश्वस्त नजर आ रहे हैं। मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और पार्टी अध्यक्ष के निर्देश पर दोनों क्षेत्रों में कई-कई मंत्री-विधायक जमे हुए हैं। एक भाजपा विधायक ने नाम जाहिर न करने के अनुरोध के साथ कहा, ‘यूपी में अभी हमारा सिक्का जमा हुआ है, ऐसे में हम उप चुनाव क्यों नहीं जीतेंगे? सत्ताधारी पार्टी अगर चुनाव हारने लगे तो समझिये नेतृत्व निकम्मा है!’

फूलपुर बुनियादी तौर पर गैर-यादव पिछड़ी जातियों के वर्चस्व का इलाका माना जाता है। दोनों प्रमुख पार्टियों ने अपने उम्मीदवार पटेल कुर्मी समुदाय से दिये हैं। भाजपा के कौशलेंद्र सिंह के मुकाबले सपा ने नागेंद्र पटेल को उतारा है। गोरखपुर में भाजपा ने उपेंद्र शुक्ला को सपा ने प्रवीण निषाद को प्रत्याशी बनाया है। गोरखपुर में सवर्ण समुदाय की प्रभावशाली मौजूदगी मानी जाती है। बीते कुछ दशकों से विचारधारा के स्तर पर भी यह क्षेत्र दक्षिणपंथी गढ़ माना जाता रहा है। हालांकि इसका अतीत देखें तो गोरखपुर को प्रगतिशील आंदोलन और नये तरह के जनजागरण के लिए याद किया जाता है। योगी आदित्यनाथ जिस मठ के प्रमुख हैं, वह स्वयं ही कुछ शताब्दी पहले तक दलित-पिछड़ों और ब्राह्मणवाादी उत्पीड़न से आक्रांत नाथ-पंथियों का केंद्र बना रहा। लेकिन बाद के दिनों में मठ का वैचारिक रूझान बदल गया और उसके प्रमुुख हि्नदू महासभा, जनसंघ या भाजपा जैसे संगठनों की तरफ मुखातिब हुए। आठवें-नवें दशक मेें गोरखपुर की स्थानीय सियासत में दो ताकतवर गिरोहों के बीच अक्सर भिडंत होती रही। योगी आदित्यनाथ ने मठ की पुरानी छवि का उपयोग करते हुए इन गिरोहों से अलग तीसरा खेमा बनाया और ‘लोकप्रिय समर्थन’ के बल पर गोरखपुर की राजनीति में प्रभावी हो गये। शुरुआती दौर में आमलोगों के समर्थन से खड़ी उनकी राजनीति लगातार संकीर्ण धार्मिकता और सांप्रदायिकता की तरफ झुकती गई। वजह थी कि गोरखनाथ और अन्य नाथपंथी संतों की महान् विरासत से जुड़ने के बजाय वह बाद के पीठाधीशों-अवैद्यनाथ और दिग्विजय नाथ की सांप्रदायिक विरासत से जुड़े रहे। गोरखपुर की सबसे बड़ी सियासी विडम्बना यही है। इस चुनाव में तय होना है, गोरखपुर क्या अपने सियासी-समीकरण बदलेगा या वही पुराना ढर्रा बरकरार रहेगा!

(वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)