सुख भरे दिन बीते रे भैया , अब झटके आयो रे ..घरों में बैठे रह गए बीजेपी के वोटर ?

यूपी उपचुनाव के दोनों नतीजों ने बीजेपी के लिए आने वाले खतरे की घंटी बजा दी है, उपचुनाव के नतीजों के तुरंत बाद अखिलेश यादव और मायावती की मीटिंग भी हो चुकी है।

New Delhi, Mar 16 : योगी ने माना हम अति-आत्मविश्वास से हारे
यूपी के उपचुनावों में बीजेपी की करारी हार के बाद सूबे के डिप्टी सीएम और फूलपुर के पूर्व सांसद केशव प्रसाद मौर्या टीवी पर ये कहते नजर आए कि हमारे वोटर घर से नहीं निकले . उन्हें लगा कि बीजेपी जीत ही जाएगी . उन्होंने ये भी कहा कि हम सपा -बसपा के गठबंधन को समझ नहीं सके . कुछ ऐसी ही बात मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी कही . योगी ने कहा कि हम अति-आत्मविश्वास के शिकार हुए . जनता को समझ नहीं पाए . सपा -बसपा की सौदेबाजी वाले गठबंधन से होने वाले नुकसान को भांप नहीं पाए . इसी तरह की दलीलें कमोवेश बीजेपी के तमाम नेता टीवी चैनलों पर दे रहे हैं . सबसे पहले बात केशव मौर्या के उस दलील की , जिसके मुताबिक उनका वोटर घर में बैठा रह गया . अगर ये सही है तो सिर्फ इतना क्यों मानें कि बीजेपी के वोटर को लगा कि उनकी पार्टी तो जीत ही रही है इसलिए वो वोट देने नहीं निकले .

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बीजेपी के वोटर इतने उदासीन क्यों रहे ?
 ये क्यों नहीं हो सकता कि बीजेपी के वोटर ने बूथ पर नहीं जाकर अपनी नाराजगी का इजहार किया है . अब वो नाराजगी चाहे मोदी से हो , योगी से हो या फिर सरकार की नीतियों और विफलताओं से . आंकड़ों के हिसाब से देखें तो फूलपुर लोकसभा क्षेत्र के इस उपचुनाव में बीजेपी को 283183 वोट मिले , बीएसपी समर्थित सपा उम्मीदवार को 342796 वोट . जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो बीजेपी को कुल 503564 वोट मिले , जबकि उस चुनाव में अलग -अलग लड़ने वाली सपा -बसपा को मिले कुल मिलाकर 358966 वोट .

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इस लिहाज से देखें तो एसपी -बीएसपी के साथ होने से उनके वोट नहीं बढ़े लेकिन बीजेपी का वोट डेढ़ लाख से घट गया . यानि फूलपुर लोकसभा क्षेत्र में पिछले चुनाव की तुलना में करीब 13 फीसदी कम मतदान का सीधा नुकसान बीजेपी को हुआ . इसी आंकड़े का हवाला देकर बीजेपी नेता दलील दे रहे हैं कि उनके वोटर वोट देने नहीं आए . केशव मौर्या के मुताबिक उनके वोटर अपनी पार्टी की जीत को लेकर निश्चिंत थे , इसलिए नहीं आए . लेकिन ये दलील गम को गलत करने के बहाने जैसी है . अगर हम 2009 और 2014 के चुनावों की तुलना करें तो पाएंगे कि दोनों चुनावों के वोटर टर्न आउट में करीब 12 फीसदी का फर्क है . 2009 में जहां 38 फीसदी मतदान हुआ था , वहीं 2014 में 50 फीसदी मतदान हुआ .
ये भी मान सकते हैं कि 2014 में मोदी की लहर या मोदी के प्रति आकर्षण इलाके के मतदाताओं को ज्यादा से ज्यादा तादाद में खींचकर पोलिंग बूथ तक खींच ले आया . सपा – बसपा के अलग -अलग लड़ने से गैर भाजपा वोटों में बिखराव हुआ और हर बार से ज्यादा वोटिंग का सीधा फायदा बीजेपी को हुआ . केशव प्रसाद मौर्या को पांच लाख से ज्यादा वोट मिले . तो फिर इस बार वोटिंग इतनी कम क्यों हुई ?

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कम वोटिंग ने बीजेपी को हराया ?
ये मान भी लें कि सपा -बसपा के साथ आने से भी 2014 की तुलना में उनके वोटों में इजाफा नहीं हुआ तो भी खतरे की घंटी तो बीजेपी के लिए है ही . जो वोटर 2014 के चुनाव में एकजुट होकर वोट देने आए थे , वो वोटिग के दिन घरों में बैठे क्यों रह गए ? वो भी ऐसी लड़ाई में जब मोदी -योगी की पार्टी के खिलाफ सपा और बसपा जैसी दुश्मन पार्टियां एक हो गई थी . बीजेपी के प्रति मतदाताओं की उदासीनता पार्टी के रणनीतिकारों के लिए चिंता की वजह तो होगी लेकिन खुले तौर पर कोई इसे कबूल करने की बजाय अपनी हार की वजह सपा -बसपा का गठबंधन और सौदेबाजी को बता रहे हैं .

बीजेपी के वोटरों में नाराजगी क्यों ?
इसमें कोई शक नहीं कि सपा -बसपा के साथ आने से गैर बीजेपी वोटों का एक मजबूत ध्रुव बन गया लेकिन सपा के लिए जीत की धुरी वोटिंग कम होने से भी बनी . 2014 में मोदी को दिल्ली की गद्दी पर बैठाने के लिए फूलपुर के मतदाताओं ने जिस तरह से टूटकर कमल पर मुहर लगाया था , इस बार उनका मन इतना खट्टा क्यों था कि वो घरों में बैठे रह गए ? इस सवाल का जवाब बीजेपी को खोजना होगा . सपा -बसपा का साथ आना तो बड़ी चुनौती है ही , अपने उदासीन और नाराज मतदाताओं को जागृत करना उससे कम बड़ी चुनौती नहीं होगी . बीजेपी नेता मानें या न मानें लेकिन सच तो यही है कि फूलपुर की हार के लिए सिर्फ लोकल मुद्दे और लोकल लीडरशिप की आड़ लेना रेत में शुतुरमुर्ग की तरह सिर छिपाना होगा .

अगर गोरखपुर की बात करें तो जिस सीट पर योगी आदित्यनाथ लगातार पांच बार लाखों वोटों से जीतते रहे हों , जिस सीट पर उनके गुरु और गोरखनाथ पीठ के महंत अवैद्यनाथ तीन बार और उनके गुरु दिग्विजय नाथ दो बार जीत चुके हैं , जिस सीट को गोरखनाथ पीठ के महंत की अजेय सीट मानी जाती हो , उस सीट पर योगी का उम्मीदवार हार जाए , तो बीजेपी के लिए जितनी चिंता की बात है , उससे ज्यादा योगी आदित्यनाथ के लिए . योगी यूपी में बीजेपी के हिन्दूत्व से सबसे बड़े पोस्टर ब्वाई हैं . पीएम नरेन्द्र मोदी के बाद योगी के नाम के नारे ही यूपी की रैलियों में सबसे अधिक लगते हैं . उनके सीएम और मोदी के पीएम रहते गोरखपुर में बीजेपी के उम्मीदवार का हारना सिर्फ झटका नहीं , नींद हराम करने वाला सदमे की तरह है .

आंकड़ों के लिहाज से देखें तो गोरखपुर में एसपी के प्रवीण कुमार निषाद को करीब 49 फीसदी यानि 456437 वोट मिले , जबकि बीजेपी के उपेन्द्र शुक्ला को 434476 वोट . यहां भी 2014 की तुलना में इस बार करीब सात फीसदी मतदान कम हुआ था . इसका सीधा नुकसान बीजेपी को हुआ . बीजेपी को करीब एक लाख पांच हजार वोट कम मिले , जबकि बसपा समर्थित सपा उम्मीदवार को पिछली बार की तुलना में 53000 वोट ज्यादा मिले . फूलपुर और गोरखपुर में फर्क ये रहा कि गोरखपुर में सपा-बसपा गठबंधन को पिछली बार के साझा वोटों से ज्यादा वोट मिले . कांग्रेस का वोट भी पैंतालीस हजार के घटकर 18844 रह गया .

आंकड़े इस बात की तस्दीक करते हैं कि गैर भाजपा वोट तो एकजुट हुआ ही , भाजपा का वोट एक लाख कम हुआ . मतलब साफ है कि पिछली बार की तुलना में इस बार बीजेपी के बहुत से वोटर पोलिंग बूथ तक नहीं आए . कारण ? मोदी -योगी राज से उदासीनता ? या फिर उम्मीदवार के तौर योगी की गैरमौजूदगी और उपचुनाव को गंभीरता से नहीं लेना . अगर ये सही है तो फिर सपा और बसपा के वोटर का पूरी ताकत से बीजेपी को हराने के लिए पोलिंग बूथ तक पहुंचना मायने रखता है .

अगर सपा -बसपा साथ हुई यूपी खेल बिगाड़ेगा
यूपी उपचुनाव के दोनों नतीजों ने बीजेपी के लिए आने वाले खतरे की घंटी बजा दी है . उपचुनाव के नतीजों के तुरंत बाद अखिलेश यादव और मायावती की मीटिंग भी हो चुकी है . बीजेपी भले बुआ और बबुआ का मिलन कहकर दोनों का मजाक उड़ाए , दोनों की एकजुटता 2019 के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी . इस बार पुरानी दुश्मनी भुलाकर मायावती ने अखिलेश का का साथ दिया ही था , अब दोनों के दिल और दिमाग भी एक साथ आने का रास्ता खोजेंगे . अगर दोनों दलों के नेता पच्चीस साल पुरानी दुश्मनी भुलाकर अपने अस्तित्व की हिफाजत के लिए एक हो गए तो बीजेपी के लिए मुसीबतों का पहाड़ खड़ा होगा , जिसे लांघकर 2014 की कामयाबी दोहराना तो नामुमकिन होगा .

सपा को बसपा को वोट ट्रांसफर हो गए . मतलब साफ है
वैसे भी अगर 2014 में अलग -अलग लड़ने वाली सपा और बसपा को वोटों को जोड़कर चुनाव नतीजों का अनुमान लगाएं तो 80 सीटों वाले यूपी में बीजेपी के हिस्से करीब 37 और सपा-बसपा के हिस्से करीब 41 सीटें आती है . अगर कांग्रेस भी साथ हो जाए तो बीजेपी के हिस्से करीब 24 और गठबंधन के हिस्से करीब 56 सीटें आती हैं . ये उस आदर्श स्थिति का आंकलन है , जब गैर भाजपा वोटों का ट्रांसफर हो जाए . केशव मौर्या ने यही तो कहा है कि उन्हें अंदाजा नहीं था कि सपा को बसपा का वोट ट्रांसफर हो जाएगा . लेकिन नतीजे बताते हैं कि ऐसा हुआ है . लगभग पूरे के पूरे वोट ट्रांसफर हुए हैं . अगर पूरे वोट ट्रांसफर नहीं हुए तो बीजेपी के लिए और चिंता की बात होगी क्योंकि इसका मतलब ये होगा कि बीजेपी को वोट भी सपा उम्मीदवार के हिस्से गए

राजस्थान उपचुनाव में मिली हार को बीजेपी त्रिपुरा और पूर्वोत्तर की जीत के जश्न में भूल गई . पूर्वोत्तर के मतदाताओं ने रेड कारपेट बिछाकर गम गलत करने का बहाना दे दिया . बीजेपी नेताओं ने राजस्थान की हार की आंच दिल्ली से आने से ये कहकर रोक दिया कि राजस्थान के मुद्दों का असर चुनाव पर पड़ा . मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से नाराजगी की भी आड़ ली गई लेकिन यूपी का गम यूं भुलाए नहीं भूलेगा . छिपाए नहीं छिपेगा क्योंकि इसी सूबे से पीएम मोदी सांसद हैं . योगी जैसा प्रखर हिन्दुत्ववादी नेता सीएम है . फिर भी हार गए ? क्यों ? इन सवालों का जवाब खोजकर ही बीजेपी 2019 के लिए अपने अश्वमेध का घोड़ा छोड़ेगी .

मुख्यमंत्री योगी ने इतना तो मान ही लिया है कि हार की एक वजह अति- आत्मविश्वास भी है।  तो सवाल ये भी है कि बीजेपी के इस अति- आत्मविश्वास की वजह क्या है ?  सिर्फ ये कि हमारे पास मोदी हैं, नाम ही काफी है। यही न ? योगी -मोदी के रहते हैं तो कोई कैसे हरा देगा ? वो भी सपा -बसपा जैसी पार्टियां, जो विधानसभा में धूल धूसरित हो गई। तो इस अति -आत्मविश्वास को जनता ने शॉक ट्रीटमेंट दिया है।

(चर्चित वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)