स्व महेन्दर मिसिर : भोजपुरी गीतों की नाज़ुकमिजाज़ी के पर्याय !

भोजपुरी गीतों को महेन्दर मिसिर के अवदान पर कोई विवाद नहीं है। उनके बगैर भोजपुरी गीतों का इतिहास लिखा जाना संभव नहीं है।

New Delhi, Mar 19 : भोजपुरी साहित्य के हज़ार साल लम्बे इतिहास में भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले स्व. भिखारी ठाकुर के बाद अगर किसी दूसरे नाम का उल्लेख होगा तो वह नाम निश्चित तौर भोजपुरी गीतों की नाज़ुकमिजाज़ी के पर्याय और उसकी पूरबी गायन शैली के बेताज बादशाह कहे जाने वाले महेन्दर मिसिर का ही होगा। भिखारी ठाकुर जहां सामाजिक सरोकार के अपने नाटकों के लिए जाने जाते हैं, महेन्दर मिसिर को प्रेम की कोमलता और विरह की पीड़ा भरे उनके गीतों के लिए याद किया जाता है। बिहार के शहर छपरा के पास मिश्रवलिया गांव में 16 मार्च, 1886 को पैदा हुए महेन्दर मिसिर का मन-मिजाज़ बचपन से ही अपने हमउम्र साथियों से थोड़ा अलग था। पढ़ने-लिखने में उनका मन बिलकुल नहीं लगता था। बचपन के खेलों में भी उनकी कुछ ख़ास दिलचस्पी नहीं थी। कम उम्र से ही उनकी रूचि भोजपुरी लोक गीतों और नाच-नौटंकी में होने लगी थी। किशोरावस्था में वे छपरा के एक बड़े जमींदार और चर्चित संगीत प्रेमी हलवंत सहाय के संपर्क में आए जिनके यहां उनके पिता शिवशंकर मिश्र कामकाज के सिलसिले में आते-जाते रहते थे। पिता के साथ अक्सर महेन्दर मिसिर का भी उनके दरबार में आना-जाना होता था। हलवंत सहाय की पारखी नजरों ने किशोर महेन्दर मिसिर के भीतर के कलाकार को पहचाना और उन्हें अपने दरबार में आश्रय दिया। हलवंत सहाय का प्रोत्साहन और उनके दरबार में जुटने वाले गायकों का साथ पाकर महेन्दर मिसिर की गायकी परवान चढ़ी उनके गीतों के बोल जन-जन तक पहुंचने लगे।

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महेंदर मिसिर स्वयं एक बेहतरीन गायक और वादक तो थे ही, गीतों का उनका रचना संसार बहुत व्यापक था। उनकी रचनाओं में भाषा की लचक, प्रवाह और राग-रागिनी का अपूर्व संगम देखते ही बनता था। पूरबी के तो वे बेताज बादशाह कहलाये ही, पूरबी के अलावा उन्होंने असंख्य प्रेम और विरह गीत, भजन, निरगुन और बारहमासा लिखे और भोजपुरी गीतों की शक्ल में रामायण की रचना की। प्रेम गीतों में तो उनका कोई सानी ही नहीं था। उनके ज्यादातर गीतों में स्त्री के मन की पीड़ा शिद्दत से अभिव्यक्त हुई है। भोजपुरी के जिन पुरुष रचनाकारों में स्त्री के मन की रागात्मकता की थाह पाने की छटपटाहट दिखती है, महेंदर मिसिर उनमें सबसे ऊपर हैं। यह और बात है कि उनकी रचनाओं की स्त्री अपनी अस्मिता की खोज करती मेहनतकश और संघर्षशील स्त्री नहीं, प्रेम के अथाह अनुराग और वियोग में डूबी स्त्री है। उन्होंने अपने गीतों की दर्जन भर से ज्यादा पुस्तकें लिखीं, जिनमें उनके तीन नाटक भी शामिल हैं। उनकी पुस्तकों में महेन्दर मंजरी, महेन्दर विनोद, महेन्दर मयंक, भीष्म प्रतिज्ञा, कृष्ण गीतावली, महेन्दर प्रभाकर, महेन्दर रत्नावली, महेन्दर चंद्रिका, महेन्दर कवितावली और अपूर्व रामायण प्रसिद्ध है। यह और बात है कि महेन्दर मिसिर की ज्यादातर रचनाएं कही-कहीं दबी पड़ी हैं जिन्हें प्रकाश में लाने की कभी गंभीर कोशिश नहीं हुई। उनके कुछ चुने हुए गीतों का एक संकलन डॉ सुरेश कुमार मिश्र के संपादन में ‘गीत संसार’ शीर्षक से अखिल भारतीय भोजपुरी परिषद, लखनऊ ने 2002 में प्रकाशित किया था। यह काम बड़ा तो था, लेकिन आधा-अधूरा था। उनके असंख्य गीत आज भी यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं जिन्हें संकलित और प्रकाशित करने की आवश्यकता है। महेन्दर मिसिर के जीवन और उनके रचनाकर्म पर कुछ चर्चित पुस्तकें भी लिखी गईं। ऐसी पुस्तकों में पांडे कपिल का उपन्यास ‘फुलसूंघी’, रामानाथ पांडे की किताब ‘महेन्दर मिसिर’ और रविन्द्र भारती का नाटक ‘कंपनी उस्ताद उल्लेखनीय है।

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महेन्दर मिसिर के व्यापक रचना संसार में उनके दर्जनों गीत ऐसे हैं जिनकी भोजपुरी भाषा-भाषी क्षेत्र में अपार लोकप्रियता आज भी क़ायम है। लोकमानस से सीधा संवाद करने वाले उनके गीत आज भी लोकगायकों की पहली पसंद बने हुए हैं। उनके कुछ सर्वाधिक लोकप्रिय गीत हैं – अंगुरी में डंसले बिया निगनिया हे, आधी-आधी रतिया के कुंहके कोयलिया, पटना से बैदा बुलाई द नजरा गईली गुइयां, हमनी के रहब जानी दुनो परानी, पनिया के जहाज से पलटनिया बन के अईह पिया, सासु मोरा मारे रामा बांस के छिउकिया ए ननदिया मोरी हो, सुतल सेजरिया सखी देखली सपनवां निर्मोही कान्हा बंसिया बजावेला हो लाल, जियरा मोर डेरात बा ना, चलत-चलत मोर पईयां पिरईले, जहिया से पिया मोरा छुवले लिलारवा, सखी हो प्रेम नगरिया हमरो छुटल जात बा और कुछ दिन नईहर में खेलहूं ना पवनी। वैसे तो महेन्दर मिसिर के गीतों को कई समकालीन गायिकाओं और गायकों ने स्वर दिए हैं, लेकिन भोजपुरी की महानतम समकालीन गायिका शारदा सिन्हा और नई पीढ़ी की सबसे चमकदार आवाज़ चन्दन तिवारी को उनके गीतों को व्यापक जन समुदाय तक पहुंचाने का सबसे ज्यादा श्रेय जाता है। शारदा जी के गाये उनके ‘अंगुरी में डसले बिया नगिनिया’, पनिया के जहाज से’ और ‘हमनी के रहब जानी दुनो परानी’ जैसे गीतों ने लोकप्रियता का शिखर छुआ था। शारदा जी के बाद की पीढ़ी की लोकप्रिय गायिका चन्दन तिवारी ने महेन्दर मिसिर के कई गीतों को अपनी बुलंद और भावप्रवण आवाज़ बख्शी हैं। चन्दन तिवारी तो उनके पूरबी गीतों से इस क़दर प्रभावित हुईं कि उन्होंने पांच साल पहले उनकी जयंती पर ‘पुरबियातान’ नाम से एक अभियान की शुरुआत ही कर दी। इस देशव्यापी लोकप्रिय अभियान के तहत उन्होंने अबतक महेंदर मिसिर के पूरबी, प्रेम, बारहमासा और निरगुण गीतों के अलावा ‘अपूर्व रामायण’ के गीतों सहित सौ से ज्यादा गीतों की रिकॉर्डिंग की है। उनके निरगुन गीतों को जन-जन तक पहुंचाने का काम भोजपुरी के लोकप्रिय लोक नाट्यकर्मी और गायक उदय नारायण सिंह एक अरसे से कर रहे हैं।

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भोजपुरी गीतों को महेन्दर मिसिर के अवदान पर कोई विवाद नहीं है। उनके बगैर भोजपुरी गीतों का इतिहास लिखा जाना संभव नहीं है। उनके व्यक्तिगत जीवन पर बेशक विवाद उठते रहे हैं। उनपर सबसे बड़ा आरोप वेश्यागामिता का है। मुजफ्फरपुर, बनारस और कोलकाता की कई तवायफों से उनके निकट संबंधों की चर्चा आम है। यह सही भी है कि उनकी जवानी का ज्यादातर हिस्सा कोठों पर या कोठेवालियों के सानिध्य में ही बीता था। यह आरोप ज्यादातर उन नैतिकतावादी आलोचकों की तरफ से लगता रहा है जिन्हें उस दौर के संगीत और उसके विकास की परिस्थितियों का ज्ञान नहीं है। उन्नीसवी सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवी सदी के पूर्वार्द्ध एक ऐसा काल था जब भारतीय अर्द्ध्शास्त्रीय संगीत ही नहीं, पूरबी सहित लोक संगीत ने अपना स्वर्णकाल देखा था। ठुमरी, दादरा, तराना और ग़ज़ल गायिकी के अलावा कजरी, पूरवी, चैती गायिकी के विकास में उस दौर के तवायफ़ों के कोठों का सबसे बड़ा योगदान रहा था। यह वह समय था जब तवायफों के कोठे देह व्यापार के नहीं, संगीत और तहज़ीब के केंद्र हुआ करते थे। संगीत के शौकीनों के लिए तब ये कोठे ही संगीत के एकमात्र आयोजन-स्थल थे। उस दौर में कोठों की गायिकाओं को भाषा और संगीत तथा तहज़ीब के कड़े प्रशिक्षण से गुज़रना होता था। उस समय की कुछ बेहतरीन गायिकाओं में कलकत्ते की गौहर जान, इलाहाबाद की जानकी बाई छप्पनछुरी, बनारस की विद्याधरी बाई, बड़ी मोती बाई और हुस्ना बाई, लखनऊ की नन्हवा-बचुआ और हैदरजान, आगरे की जोहरा, लखनऊ की जोहरा, अंबाले की जोहरा, पटने की जोहरा और मुजफ्फरपुर की ढेला बाई सबसे ज्यादा चर्चित और लोकप्रिय नाम थे। वे ऐसी गायिकाएं थीं जिनके बगैर अर्द्धशास्त्रीय ही नहीं, लोक संगीत के वर्तमान स्वरुप की भी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इनमें से केसरबाई, विद्याधरीबाई, सोना बाई और ढेला बाई सहित कुछ तवायफें महेन्दर मिसिर की लिखी पूरबी की दीवानी थीं। महेन्दर मिसिर ख़ुद भी एक मंझे हुए गायक और वादक थे। कोठों पर सजने वाली संगीत की महफिलों में तवायफें उन्हें सम्मान से बुलाती थीं। कुछ तवायफों को उन्होंने संगीत और उसकी अदायगी की बारीकियां भी सिखाई थीं। इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं कि कई तवायफों के मन में अपने इस प्रिय गीतकार और गायक के लिए कोमल भावनाएं थीं। यह भी अस्वाभाविक नहीं कि महेन्दर मिसिर के मन में उनमें से कुछ के प्रति प्रबल आकर्षण और प्रेम था। महान बंगला कथाकार शरतचंद्र पर भी ऐसे इल्ज़ाम लगे थे। शरत बाबू के कुछ महान उपन्यासों का जन्म कोठे पर ही हुआ था। .

महेंद्र मिसिर पर उनके जीवन का सबसे विवादास्पद आरोप तब लगा जब पुलिस ने छपरा में उनके घर से बड़ी संख्या में जाली नोट और उसे छापने की मशीन बरामद की। कहा जाता है कि कोलकाता और बनारस प्रवास के दौरान वे कुछ क्रांतिकारियों के संपर्क में आए थे। क्रांतिकारियों ने उनके भीतर देशप्रेम और अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की आग भर दी। बनारस में एक क्रांतिकारी अभयानंद के सहयोग से उन्हें नोट छापने की एक मशीन मिली जिसे लेकर वे छपरा आ गए। यह उनके जीवन का ऐसा मोड़ था जिसने उनकी ज़िंदगी की दशा और दिशा ही बदल दी। वे योजनाबद्ध तरीके से नोट छापने और उसे बाजार में चलाने का काम करने लगे। कहा जाता है कि जाली नोट छापने का उद्धेश्य स्वतंत्रता सेनानियों और उनके परिवारों की मदद करने के अलावा अंग्रेजों की अर्थव्यवस्था को तबाह करना था। यह रहस्य है कि महेन्दर मिसिर का देश के स्वतंत्रता संग्राम में क्या योगदान था या उन्होंने कितने स्वतंत्रता सेनानियों और उनके परिवारों की मदद की मदद की, लेकिन इतना यह ज़रूर पता है कि इन नोटों से उन्होंने अपने लिए भी ढेर सारी सुख-सुविधायें जुटाईं और अपने संपर्क में रहने वाली तवायफों पर भी जमकर पैसे खर्च किए। धीरे-धीरे महेन्दर मिसिर की शाहखर्ची के किस्से फैलने लगे। सरकार को उनपर संदेह तब हुआ जब 1905 में सोनपुर के प्रसिद्द मेले में आने वाली ज्यादातर तवायफों के शानदार शिविर महेन्दर मिसिर ने खुद लगवाए थे। उन शिविरों की शान ऐसी थी कि इलाके के बड़े-बड़े जमींदारों को भी उनसे ईर्ष्या हुई। सी.आई.डी ने अपने एक इंस्पेक्टर सुरेंद्रनाथ घोष को महेन्दर मिसिर के नौकर गोपीचंद के तौर पर उनके घर में प्रवेश करा दिया। गोपीचंद के आगे जाली नोट छापने का राज खुलते ही उनके यहां पुलिस का छापा पड़ा। पुलिस ने महेन्दर मिसिर और उनके भाईयों को गिरफ्तार कर लिया। पटना उच्च न्यायालय में मामले की सुनवाई चली जिसमें उनके वकील थे क्रांतिकारी हेमचंद्र मिश्र औऱ स्वतंत्रता सेनानी चितरंजन दास। अंततः महेन्दर मिसिर को दस साल की सजा सुनाई गई। जनश्रुति है कि जब वे जेल में बंद थे तो बनारस और कोलकाता की ढेर सारी तवायफों ने वायसराय को ब्लैंक चेक के साथ एक पत्र भेजा था जिसमें गुजारिश की गई थी कि सरकार चेक पर कोई भी रकम लिखकर ले ले, लेकिन महेन्दर मिसिर को आजाद कर दे। बक्सर जेल में रहते हुए उन्होंने सात खंडों में अपूर्व रामायण की रचना की थी। जेल में अच्छे व्यवहार औऱ लोकप्रियता के चलते तीन साल में ही उनकी रिहाई हो गई। आजादी मिलने के एक साल पहले 26 अक्तूबर,1946 को वे दुनिया से विदा हो गये।

जाली नोट काण्ड महेन्दर मिसिर के जीवन का एक ऐसा पक्ष था जिसने उन्हें बेहद विवादास्पद व्यक्तित्व बना दिया। कुछ लोग उनके इस कार्य को उनके देशप्रेम और अंग्रेजों के खिलाफ बगावत से जोड़कर ज़रूर देखते हैं, लेकिन इस देशप्रेम की हल्की सी अनुगूंज भी उनकी रचनाओं में कहीं नहीं दिखती। क्या यह संभव है कि देश की आज़ादी के लिए इतना बड़ा खतरा मोल लेने वाले रचनाकार की विपुल काव्य-संपदा में देश की गुलामी और देशवासियों के भीतर उससे मुक्त होने की छटपटाहट का कहीं कोई ज़िक्र तक न हो ? अपनी मशीन से उन्होंने जितने नोट छापे, उनमें से कितने नोटों का इस्तेमाल उन्होंने देश के स्वतंत्रता सेनानियों और उनके परिवारों की मदद में की, इसका भी कोई प्रमाण नहीं है। यह ज़रूर साबित हुआ है कि उन्होंने अपनी और अपनी प्रिय तवायफों की सुख-सुविधा पर बेशुमार दौलत लुटाई। उनके व्यक्तित्व के इस विरोधाभास पर आज भी बहस ज़ारी है। यह बहस आगे भी चलेगी। बहरहाल इस प्रकरण को उनकी मानवीय कमजोरी मानकर भुला दिया जा सकता है। अपनी तमाम रचनाधर्मिता के बावजूद महेन्दर मिसिर आखिर एक मनुष्य ही तो थे। हमें अपने आदर्श साहित्यकारों और कलाकारों की उत्कृष्ट कृतियों को उनकी मानवोचित कमजोरियों के साथ ही स्वीकार करने की आदत डालनी होगी।

(ध्रुव गुप्त के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)