मनुष्य जाति के भविष्य का इतिहास लिख रहा है हाॅलीवुड

मैंने पिछले दिनों जितनी भी हाॅलीवुड फ़िल्में देखी हैं, उनमें से ज़्यादातर मनुष्य जाति पर छाये संकट और उससे बचने के वैज्ञानिक तरीक़ों से जुड़े विमर्श पर आधारित हैं।

New Delhi, Mar 22 : कल मैंने नेटफ्लिक्स पर एक फ़िल्म देखी, गार्जियन्स ऑफ गैलेक्सी। धरती के अलावा रहने के विकल्पों और उन पर अलग अलग ताक़तों के क़ब्ज़े की सतह पर यह एक स्टंट फ़िल्म है – लेकिन मुझे स्टीफ़न हाॅकिंग के संदर्भ में यह फ़िल्म बहुत प्रासंगिक लगती है। स्टीफ़न हाॅकिंग मानते थे कि पृथ्वी अब बस तीन-चार सौ सालों की मेहमान है। सूरज इसे निगल जाएगा और सब कुछ जल कर राख़ हो जाएगा। पृथ्वी की उम्र दस लाख साल हो चुकी है और अगल पृथ्वीवासियों को अपने लिए और दस लाख साल चाहिए, तो उसे किसी और ग्रह पर जीवन की खोज करनी चाहिए। हमारी मौजूदा सभ्यताएं हाॅकिंग की इस स्थापना को लेकर कितनी गंभीर है, मुझे नहीं मालूम – लेकिन हाॅलीवुड की बहुतेरी वैज्ञानिक फ़िल्में कहानियों के लिए दूसरे ग्रहों का रुख़ कर चुकी हैं।

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मैंने मेन इन ब्लैक की तीन सीरीज़ देखी, जिसमें से पहली फ़िल्म 1997 में रीलीज़ हुई थी और तीसरी फ़िल्म 2012 में। टाॅम ली जोन्स और विल स्मिथ तीनों में मुख्य किरदार हैं। इन फ़िल्मों में ये बताया गया है कि दूसरे ग्रहों के जीव पृथ्वी पर भेस बदल कर रहते हैं। यानी जिस तरह हाॅकिंग ने पृथ्वी के लिए जीवन का संकट बताया है, उसी तरह का संकट दूसरे ग्रहों पर पसरा हुआ है और सारे ग्रह वैकल्पिक जीवन के लिए सुरक्षित ग्रह की तलाश में हैं।
फ्रांसिस लाॅरेंस की एक फ़िल्म है, आई एम लीज़ेंड। इसमें विल स्मिथ मुख्य किरदार हैं। न्यूयाॅर्क सिटी के एक हिस्से में कैंसर पर फतह करने वाले एक वायरस की गड़बड़ी के चलते लोग आदमखोर होने लगते हैं। शहर को देश से काट दिया जाता है और जिन लोगों में वायरस फैल चुका है, उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। विल स्मिथ पूरे शहर में अकेला रह जाता है और इस वायरस का एंटी डोज़ तैयार करने में लगा रहता है। आख़िरकार उसे भी अपनी जान गंवानी पड़ती है लेकिन तब तक वह एंटी डोज़ तैयार करके आने वाली नस्लों की सुरक्षा की गारंटी कर चुका होता है।

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मैंने पिछले दिनों जितनी भी हाॅलीवुड फ़िल्में देखी हैं, उनमें से ज़्यादातर मनुष्य जाति पर छाये संकट और उससे बचने के वैज्ञानिक तरीक़ों से जुड़े विमर्श पर आधारित हैं। यानी हाॅकिंग जिस बात को वैज्ञानिक सच्चाइयों के साथ प्रस्थापित कर गये, हमारे यहां कहानियों की गली में उस बात पर खुसर-पुसर जारी है और फ़िल्में भविष्य का नक़्शा बनाने में ज़्यादा दिलचस्पी ले रही हैं। 2010 में आयी ह्यूज बंधुओं की फ़िल्म द बुक ऑफ एली की कथा भी कुछ ऐसी है। विश्वयुद्ध में सब ख़त्म हो गया है। बचा हुआ एक व्यक्ति बाइबिल की एक प्रति एक छोर से दूसरे छोर पर ले जा रहा है और चलते चलते तीस बरस बीत चुके हैं और वह मुकाम पर नहीं पहुंचा है। एक जगह उसे एक बस्ती मिलती है, जहां बचे हुए चंद लोगों पर एक माफिया रूल कर रहा है और लोग उसके आतंक को जायज़ और नैतिक मानें, इसके लिए उसे उसी पवित्र बाइबल की तलाश है, जो धरती पर कहीं नहीं है। उसके लोग राहगीरों से किताबें लूटते हैं।

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क्रिस्टोफ़र नोलन की मशहूर फ़िल्म इंटर्सटेलर में दूसरे ग्रहों पर जीवन की तलाश करते वैज्ञानिक हैं। यह फ़िल्म 2014 में आयी थी। अलफ़ान्सो कुएराॅन की फ़िल्म ग्रैविटी भी दो अंतरिक्ष यात्रियों की कहानी है। बहरहाल जब से नील आर्म स्ट्रांग ने चांद पर क़दम रखा है, अंतरिक्ष में दुनिया भर के किस्सागो की दिलचस्पी देखने लायक है। अंदरखाने अक्सर यह ख़बर भी मचलती रहती है कि चांद पर जीवन की तलाश जारी है और यह भी कि चांद पर प्लाॅट खरीदे-बेचे जाने लगे हैं। लेकिन अगर इन बेसिरपैर की बातों में लोग दिलचस्पी ले रहे हैं तो साफ़ है कि पृथ्वी पर जीवन से जुड़ी उत्सुकता ख़त्म हो चुकी है और मनुष्य जीवन की एक नयी रोमांचक यात्रा पर जाना चाहता है। इस भावना को तब और भी ताक़त मिलती है, जब स्टीफ़न हाॅकिंग जैसे वैज्ञानिक कहते हैं कि जीने के लिए पृथ्वी के अलावा कोई और ज़मीन तलाशो।
यानी वैज्ञानिक फ़िल्मों के लिए ठोस और तार्किक खुराक देने के लिए भी स्टीफ़न हाॅकिंग हमेशा याद किये जाएंगे। उन्हें मेरी श्रद्धांजलि।

(वरिष्ठ पत्रकार एवं फिल्ममेकर अविनाश दास के ब्लॉग से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)