कर्नाटक का असंसदीय नाटक : अल्पमत को बहुमत में बदलने के लिए क्या-क्या गुल खिलायेगी भाजपा !

थोड़ी देर के लिए हम भी लें कि नवनिर्वाचित दो में एक निर्दलीय सदस्य भाजपा खेमे में जायेगा तो भी 7 सदस्यों की दरकार होगी।

New Delhi, May 18 : सुप्रीम कोर्ट कर्नाटक मामले में क्या फैसला करेगा, यह तो वक्त बतायेगा पर न्यायविदों और आम समाज के बड़े हिस्से में इस बात पर व्यापक सहमति है कि राज्यपाल के फैसले से राजनीतिक भ्रष्टाचार और विधाय़कों की खरीद-फरोख्त के गैर-कानूनी और लोकतंत्र-हंता प्रयासों को संरक्षण मिलेगा। अगर नवनिर्वाचित सदन में भारतीय जनता पार्टी के सदस्यों की संख्या महज 104 है और बहुमत के लिए उसे कम से कम 8 और सदस्यों के समर्थन की जरूरत है तो वह कहां से 7 सदस्यों का समर्थन हासिल करेंगे?

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थोड़ी देर के लिए हम भी लें कि नवनिर्वाचित दो में एक निर्दलीय सदस्य भाजपा खेमे में जायेगा तो भी 7 सदस्यों की दरकार होगी। इसके अलावा सदन के सारे सदस्य कांग्रेस या जनता दल(एस) के हैं। पर राज्यपाल के आदेश पर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके बी एस येदियुरप्पा, केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर, अंनत कुमार और रविशंकर प्रसाद समेत समूचा भाजपाई खेमा दावा कर रहा है कि येदियुरप्पा जल्दी ही अपना बहुमत साबित कर देंगे। मतलब साफ है कि भाजपा इसके लिए कांग्रेस या जनता दल(एस) के खेमे से गैर-कानूनी दल-बदल करायेगी!

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ऐसे विडम्बनापूर्ण राजनीतिक परिदृश्य के लिए आज कर्नाटक के राजभवन को जिम्मेदार माना जा रहा है। राज्यपाल भारतीय संविधान के अनुसार राज्यों में सबसे शीर्ष संवैधानिक पद है। लेकिन अपनी सरकार के चयन में अगर राज्यपाल स्वयं ही गैर-संवैधानिक और अमर्यादित कदम को संरक्षण देता नजर आये तो संविधान की व्यवस्था और लोकतंत्र का क्या होगा? अब तक मिली जानकारी के मुताबिक भाजपा नेता येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद की दावेदारी पेश करते वक्त राज्यपाल के समक्ष अपने समर्थकों की जो सूची पेश की, उसमें भाजपा के जीते 104 सदस्यों के नाम हैं। दूसरी तरफ जनता दल(एस) नेता एच डी कुमारस्वामी ने जो सूची पेश की, उसमें कांग्रेस और जनता दल-एस के कुल 117 विधायकों के नाम और हस्ताक्षर दर्ज थे। ऐसे में संविधान के मूल प्रावधान, उसकी भावना और परंपरा के मुताबिक स्पष्ट बहुमत वाले नेता को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए था। इसमें चुनाव-पूर्व और चुनाव-बाद के गठबंधन के बीच विभाजन करने का कोई औचित्य नजर नहीं आता। ऐसे राजनीतिक विवादों में स्वयं सुप्रीम कोर्ट के अतीत के अपने फैसले भी साफ बहुमत का दावा करने वाले नेता को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने का मौका देने के पक्ष में जाते हैं। रामेश्वर प्रसाद मामले में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला इस प्रकरण में एक अहम नजीर बन सकता है।

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दूसरा बड़ा सवाल उठता है-क्या राज्यपाल ऐसी स्थितियों में किसी अल्पमत सरकार को शपथ दिला सकते हैं? बहुमत का दावा किसी तरफ से पेश नहीं किया जा रहा हो और चुनाव-बाद सदन की संरचना में अल्पमत सरकार के जरूरी समर्थन हासिल करने की संभावना नजर आती हो, सिर्फ तभी बहुमत के बगैर किसी नेता को मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई जा सकती है। केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी और नर सिंह राव की सरकारें इसी आधार पर बनी थीं। हालांकि उस वक्त भी इनके गठन को लेकर विवाद उठे थे। कुछ सांसदों की कथित खरीद-फरोख्त के लिए तत्कालीन राव सरकार की काफी बदनामी भी हुई।

वाजपेयी सरकार तो एक बार सदन में अपना बहुमत ही साबित नहीं कर सकी और प्रधानमंत्री की शपथ ले चुके वाजपेयी को इस्तीफा देना पड़ा। कैसी विडम्बना है, आज भाजपा के नेता बड़े गर्व से दावा करते हैं कि तबसे लेकर अब तक यमुना और कावेरी में बहुत सारा पानी गुजर चुका है। भाजपा आज वह भाजपा नहीं है, यह मोदी और शाह की भाजपा है। बात में दम भी नजर आता है। भाजपा ने हाल के वर्षों में चुनावी-हार के बावजूद गोवा, मणिपुर और बिहार में सिर्फ अपने कुटिल प्रबंधन के बल पर अपनी सरकारें बना लीं। गोवा से लेकर बिहार तक, उसके पास कहीं भी सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं था। बिहार में तो उसने जनादेश का ही सियासी-अपहरण कर लिया!
ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि कर्नाटक के 79 वर्षीय राज्यपाल वजु भाई वाला, जो गुजरात में जनसंघ-भाजपा के वरिष्ठ नेता और राज्य सरकार में लंबे समय तक वरिष्ठ मंत्री रह चुके हैं, के संरक्षण में भाजपा अपने नेता येदियुरप्पा की सरकार को बहुमत दिलाने के लिए क्या-क्या गुल खिलाती है!

( वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)