बाढ़ हर साल आती है, लेकिन हम कभी तैयार नहीं रहते !

बाढ़ एक ऐसी आपदा है, जिसका पूर्वानुमान सबसे आसानी से लगाया जा सकता है. उत्तर बिहार की बाढ़ के बारे में तो एक हफ्ते पहले तक भी पता चल सकता है।

New Delhi, Aug 15 : लगभग पूरा उत्तर बिहार इन दिनों भीषण बाढ़ की चपेट में है, नेपाल से सटे उत्तर प्रदेश के इलाके भी ऐसी ही स्थितियों का सामना कर रहे हैं. ज्यादा असर अररिया-किशनंगज के सीमांचल वाले इलाके और पश्चिमी चंपारण के नरकटियागंज और आसपास के इलाकों में है. यानी गंडक और महानंदा उफनाई हुई है. कोसी भी कम पावर में नहीं है, वहां भी लगातार ढाई लाख क्यूसेक से अधिक बहाव लगातार है. कमला में भी खूब पानी है. आप जहां जायेंगे वहां तेजी से बहता पानी खेतों, झोपड़ियों, सड़कों को रौंदता नजर आयेगा. हालांकि दबाव घट रहा है, हालात नियंत्रण में हैं. आज नीतीश जी हवाई सर्वेक्षण भी करने वाले हैं. बचाव और राहत कार्य भी तेज है.

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मगर इस बीच एक बात परेशान किये हुए है. बाढ़ एक ऐसी आपदा है, जिसका पूर्वानुमान सबसे आसानी से लगाया जा सकता है. उत्तर बिहार की बाढ़ के बारे में तो एक हफ्ते पहले तक भी पता चल सकता है, मगर हमें यह जानकारी 12 अगस्त को मिली जब सीमांचल और चंपारण के कई इलाके तेजी से डूबने लगे. सरकार ने ठीक-ठाक रेस्पांड किया, मगर क्या हमारे प्रशासन को पहले से इस बात का अंदाजा था कि बाढ़ आने वाली है?
शायद नहीं. होगा भी तो मटिया दिया गया होगा. अब मैं आपको बताता हूं, 4 अगस्त को स्काईमेट वेदर डॉटकॉम ने चेतावनी दे दी थी कि नेपाल के इलाके में भारी बारिश हो रही है, यूपी और बिहार के इलाकों में बाढ़ का खतरा है. 9 अगस्त के आसपास भूटान की सरकार ने भी अपने इलाके में होने वाली भारी बारिश की सूचना भारत सरकार को दी थी. इतना ही नहीं. 10 और 11 अगस्त को दार्जिलिंग-सिलिगुड़ी और आसपास के इलाके भीषण बाढ़ का सामना करते रहे. सौ से अधिक चाय बगान तबाह हो गये. जाहिर था कि वहां का पानी बह कर महानंदा नदी के रास्ते सीमांचल के इलाके को तबाह करने वाला था.

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नेपाल की भीषण बारिश ने गंडक, कोसी, बागमती, कमला और उनकी सहायक नदियों को लबालब कर दिया. हमें यह समझना पड़ेगा कि उत्तर बिहार की बाढ़ यहां होने वाली बारिश की वजह से नहीं आती. नेपाल, सिक्कम-भूटान यानी हिमालयी क्षेत्रों में होने वाली बारिश दो-चार दिन बाद उत्तर बिहार के इलाके को परेशान करती है. यानी हमारे पास दो से चार दिन का वक्त हर हाल में होता है.
दूसरी बात हिमालयी इलाकों में हुई तेज बारिश अक्सर नदियों के रास्ते हमारे इलाके में पहुंची है. बारिश के महीने में ढेर सारी मिट्टी और गाद लेकर फुल स्पीड में. क्योंकि यह पानी पहाड़ों से उतर रहा होता है. आप कुछ इस तरह समझिये कि जब सीढ़ी के उपर पानी गिराया जाता है तो पानी जितनी तेजी से नीचे आता है, वही बात होती है. तराई वाले लोगों को यह झेलना ही है.

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मगर हमारी सरकारों ने इस समस्या के बचने के लिए क्या तरीके निकाले हैं? कुछ तटबंध बना दिये गये हैं, बाढ़ आती है तो राहत बांट दिया जाता है. क्या इतना काफी है? क्या कभी यह सोचने की जरूरत होती है कि ऐसी परिस्थितियों से मुकाबला करने के लिए लंबी अवधि की रणनीति बने. तटबंध और बांध तभी तक कारगार होंगे जब तक पानी में इन्हें तोड़ने की ताकत नहीं होगी. जिस दिन पानी इन्हें तोड़ डालेगी. वह सुनामी का दिन होगा. जैसा 2008 में हुआ था. या उससे भी भयावह. वह बहुत मजबूत उपाय नहीं है.
हमने नदियों को इतना सक्षम बनाना चाहिये कि वह तेजी से आ रही इस जल राशि को संभाल सके. और इसके लिए हमें कुछ करने की जरूरत नहीं है. कुदरत ने तमाम इंतजाम खुद कर रखे हैं. हां, हमने अपना दिमाग लगाकर उसे बिगाड़ दिया.

तटबंध बना दिये. इससे दो नुकसान हुआ. पहला नदियां गाद से भर गयीं, क्योंकि तटबंध की ऊंची दीवारों की वजह से गाद को फैलने, हमारे खेतों तक पहुंचने में बाधा आ गयी. गाद सीमित क्षेत्र में भरते रहे. अब जब नदियों का पेट पहले से ही गाद से फुल है, तो वह बाढ़ का पानी कैसे संभाले, कितना संभाले. अगर तटबंध नहीं होते, तो नदियां गाद मुक्त होती. उसमें गहराई होती और फिर वह पानी की बड़ी मात्रा को संभाल लेती.
दूसरा नुकसान. नदियों का संपर्क अपनी सहायक धाराओं से कट गया. मतलब यह कि तटबंध बन गये तो इन नदियों से जुड़ी छोटी-छोटी धाराएं इनसे कट गयीं. अब इन धाराओं का महत्व समझिये. जैसे ही नदियां ओवर फ्लो होती थी, अतिरिक्त पानी इन धाराओं में भरने लगता था. मेरे घर के पास से एक हिरण धार बहती थी. आज वह समतल हो गयी और वहां खेती हो रही है. बचपन में हर बारिश में मैंने उस धार को भरते हुए देखा है. ऐसी हजारों धाराएं थीं, चंपारण से लेकर किशनगंज तक फैले उत्तर बिहार के इलाके में. 90 फीसदी धाराओं के सिर्फ नाम बच गये हैं.

आप यही समझिये कि हम उत्तर बिहार की आठ-नौ नदियों का नाम जानते हैं, मगर इस इलाके में आज भी सेटेलाइट मैप से 208 धाराएं दिखती हैं. मगर इनमें से भी अधिकांश मृतप्राय हैं. भू-माफियाओं की इन पर नजर है. कुछ साल पहले पूर्णिया के पास से बहने वाली कोसी की सहायक नदी सौरा की जमीन पर प्लाटिंग करके लोगों को बसा दिया गया था. मगर शुक्र है पिछले साल की बाढ़ का की मरी हुई सौरा नदी जी उठी और जिन लोगों ने भू-माफियाओं से जमीन खरीदी थी, उन्हें उजड़ना पड़ा. नदी का इलाका छोड़ना पड़ा. मगर हर धारा के साथ ऐसा नहीं हुआ है. अब जब धाराएं ही सूख जा रही हैं, उन्हें खेत और मकान के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. उनका संपर्क मुख्य नदी से कट गया है तो वे अतिरिक्त जल कहां से ले पायेंगी.

उसी तरह कभी पूरे उत्तर बिहार में बड़े-बड़े चौर थे. उनका भी यही काम था. बाढ़ के दिनों में नदियों का अतिरिक्त जल संभालना. बड़हिया का टाल और बेगुसराय का कांवर झील. इसी तरह के चौर थे. कोसी-गंडक बागमती नदियों के भी अपने-अपने चौर थे. मगर अब चौर कहां हैं? जमीन की लालसा में हमने इन चौरों को खेतों में बदल दिया. तो अब तो भुगतना पड़ेगा ही.
आप समझिये उस प्राकृतिक व्यवस्था को, जिससे बाढ़ के दिनों में बड़ी नदियां अपना अतिरिक्त जल धारों और चौरों को दे देती थी और फिर ठंड और गरमी के मौसन में जब बड़ी नदियों का पानी घटता तो ये धार और चौर बड़ी नदियों को पानी वापस कर देतीं. इसलिए नदियां सदानीरा थीं. आज की तरह नहीं कि गरमियों में पतली धारा बन गयी और बारिश में बाघिन की तरह फुफकार मारने लगी.

माफ कीजियेगा, जब लोग भीषण बाढ़ झेल रहे हैं, ठहार तलाश रहे हैं. राहत की मांग कर रहे हैं. तो मैं ऐसी उपदेशात्मक बातें लिख रहा हूं. मेरी भी लाचारी है, ऐसी बातें भी लोग इसी मौसम में पढ़ते हैं. दूसरे मौसम में नहीं. दूसरी बात यह आश्वस्ति भी है कि इस बार राहत का काम ठीक-ठाक चल रहा है और जहां दिक्कत है, वहां लोग जल्द से जल्द एक्टिव हो जा रहे हैं. 2008 के बाद न सिर्फ पत्रकार बल्कि आम लोग भी बाढ़ के मसले को लेकर काफी सजग हैं. इसलिए इस बार मैं खुद को खाली महसूस कर रहा हूं.
इसलिए यह कहना चाह रहा हूं कि जब तक सरकार और समाज इन तमाम बातों के बारे में नये सिरे से नहीं सोचेगा. बाढ़ आपदा बनी रहेगी. और एक बार प्राकृतिक संतुलित ठीक हो गया तो यही बाढ़ आपको ठीक लगने लगेगी. आप खेती से लेकर तमाम व्यवस्थाएं ऐसी बना लेंगे कि बाढ़ आये तो कोई फर्क नहीं पड़े. पिछले दिनों मैं सीतामढ़ी के उन इलाकों में घूम कर लौटा हूं, जहां धान की ऐसी किस्म उगायी जा रही है, जो तीन हफ्ते तक बाढ़ का मुकाबला कर सकती है. 2015 के चुनाव में मेरी मुलाकात दरभंगा के उन मछुआरों से हुई थी जो बागमती के किनारे तटबंध बनने से अपनी रोजी-रोटी खो चुके थे. क्योंकि अब बाढ़ का पानी उनके आसपास के तालाबों-पोखरों को नहीं भरता था, जहां से उन्हें मछलियां पकड़ने का अवसर मिलता था.
नदियां जीवन दायिनी होती हैं, वे खेतों को सिंचाई के साथ-साथ बाढ़ के मौसम में उपजाऊ मिट्टी का उपहार देती हैं. बाढ़ आती है तो पूरे इलाके का भू-जल स्तर बरकरार रहता है. अगले साल गरमियों में हैंडपंप नहीं सूखते. मछुआरों को मछलियां मिलती हैं. और आप किसी आजाद नदी के किनारे बैठते हैं तो सुकून मिलता है. मगर जब आप नदियों को तटबंधों से घेर देते हैं तो आसपास के लोगों को नदियों से सहज मिलने वाले वरदान से वंचित कर देते हैं. उसकी प्राकृतिक व्यवस्था को ध्वस्त कर देते हैं. जाहिर है, फिर कभी बाढ़ की तबाही आती है, तो कभी सुखाड़ की.

(पुष्य मित्र के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)