क़ुर्बानी की मूल भावना को समझें मुसलमान और धार्मिक आज़ादी का सम्मान करें हिंदू संगठन !

जो मुसलमान अपनी हैसियत के हिसाब से एक से ज्यादा बकरों की कुर्बानी करते हैं उन्हें चाहिए को वो रस्म अदायगी को तौर पर एक बक़रे की ही कुर्बानी करें।

New Delhi, Sep 02 : राष्ट्रीय मुस्लिम मंच और कई हिंदू संगठनों कई दिन से क़ुर्बानी को लेकर बवाल मचाया हुआ है। मंच के अध्यक्ष इंद्रेश कुमार के चेले अधकचरे ज्ञान के साथ कुर्बानी के खिलाफ़ तर्क-वितर्क कर रहें हैं। तर्क क्या बल्कि कुतर्क कर रहे हैं। इंद्रेश कुमार और उनके चेलों के पास उनसे पूछे जाने वाले सवालों के जवाब नहीं हैं। मामूली से सवालों पर वो बगले झांकने लगते हैं।
जहां तक मैंनें कुरआन और हदीसों का अध्यन किया है उसके मुताबिक कुर्बानी हज का हिस्सा है। ग़ैर हाजियों के लिए कुर्बानी नहीं हैं। कुरआन में हर साल जानवर की कुर्बानी को लेकर कोई आदेश नहीं है। नबी ने अपने आक़री खुतबे में भी हर साल कुर्बानी करने का कोई आदेश मुसलमानों के नहीं दिया था। क़ुर्बानी को हज़रत इब्राहीम और मुहम्मद (सअव) सहाब की सुन्नत बताया जाता है। लेकिन ऐसी कोई मिसाल नहीं मिलती कि हज़रत इब्राहीम ने अपन बेटे की कुर्बानी वाले वकिए के बाद इसकी याद में हर साल बक़रे, भेड़ या किसी और जानवर की कुर्बानी दी हो। उनके बाद के नबियों में हज़रत इस्माइल, हज़रत इसहाक, हज़रत याकूब, हज़रत यूसुफ, हज़रत यूनुस, हज़रत मूसा और हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के बारे में भी हज़रत इब्राहीम की इस कथित सुन्नत पर अमल करते हुए हर साल जानवर की कुर्बानी की कोई मिसाल नहीं मिलती।

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पैगंबर-ए-इस्लाम मुह्ममद (सअव) कुर्बानी किया करते थे इसको लेकर हदीसों में अलग-अलग दावे हैं। एक हदीस के मुताबिक हज के मौके पर उन्होंने सौ ऊंटो की कुर्बानी की थी। वहीं हदीसों के मुताबिक नबी की गरीबी का आलम ये था कि उनके घर में कई-कई दिनों तक चूल्हा नहीं जलता था। एक हदीस में हज़रत आयशा बताती हैं कि हम कई दिन सिर्फ खजूर और पानी पर जिंदा रहते थे। एक अन्य हदीस में वो बताती हैं कि नबी ने बीमारी का हालत में एक यहूदी के यहां अपना सुरक्षा कवच गिरवी रख घर का खर्च चलाने के लिए क़र्ज लिया था। नबी ये क़र्ज नहीं चुका पाए। क़र्ज़ की हालत में ही उनकी वफात (देहांत) हुई। सवाल पैदा होता है अगर नबी की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी तो उन्होंने हज के दौरान सौ ऊंटो का कुर्बानी कैसे दी। और अगर उनकी हैसियत सौ ऊंटो की कुर्बानी की था तो फिर हज के बाद अचानक उनकी आर्थिक स्थिति इतनी खराब कैसे हो गई कि घर में फाकाकशी की नौबत आ गई। हदीसों के इन दावों पर लंबी बहस हो सकती है।

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नबी सी सुन्नत का हवाला देकर कुर्बानी की वकालत करने वालों को हज के दौरान सौ ऊंटों की कुर्बानी देनी चाहिए। कुछ और हदीसों के मुताबिक हज़रत ईद-अल-अज़हा के मौके पर मुहम्मद (सअव) साहब एक बक़रा अपने परिवार की तरफ से और एक बक़रे की पूरी उम्मत यानि दुनिया भर के मुसलमानों की तरफ से किया करते थे। इस हदीस पर तमाम फिरिकों के आलिम एकमत हैं। इस हदीस के हिसाब से पूरे परिवार की तरफ से एक बकरे की कुर्बानी ही काफी है। एक से ज्यादा बकरों का क़ुर्बानी का सकोई नतुक नहीं हैं। ये पैसों की बर्बादी और क़ुर्बानी के गोश्त का बेक़द्री है। ये महज़ दिखावे से ज्याद कुछ नहीं। लिहाज़ा जो मुसलमान अपनी हैसियत के हिसाब से एक से ज्यादा बकरों की कुर्बानी करते हैं उन्हें चाहिए को वो रस्म अदायगी को तौर पर एक बक़रे की ही कुर्बानी करें और बाकी बक़रों की क़ीमत के बराबर रक़म अपने ग़रीब रिशतेदारों, पड़ोसियों, दोस्तों और अपने नौकर-नौकरानियों जैसे ज़रूरतमंद लोगें को दे दें।

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कुर्बानी की वकलत करने वालो का तर्क है कि समाज में एक बड़ा तबका ऐसा है जिसे साल भर अच्छा खाना तक नसीब नहीं होता इस लिए ईद-उल-अज़हा के मौके पर उन्हें बक़रे का गोश्त खिलाने के लिए कुर्बानी की जाती है। जिन्हे ऐसे लोगों की चिंटा है उन्हे ये भी याद रखना चाहिए कि ऐसे लोगों को साल भर बच्चों के स्कूल की फीस, इलाज के लिए पैसे और तमाम तरह की क़िल्लत भी रहती हैं। उनकी इन ज़रूरतो का भी ख्याल रखा जाना चाहिए। सिर्फ दो-तीन दिन मटन खिलाने भर से किसी की ग़रीबी दूर नहीं हो सकती। लिहाज़ा साहिब-ए-हैसियत लोग अगर अपनी कुर्बानी के बजट को दो हिस्सो में बांट इस्तेमाल करें तो इससे कुर्बानी का मकसद भी पूरा हो जाएगा और समाज और देश को मज़बूत बनाने में उनका योगदान हो जाएगा।
दरअसल मुसलमानों कुर्बानी की मूल भावना के समझने की ज़रूरत है। कुरआन में समाज और देश के लिए अपना सबकुछ कुर्बान करने का हुक्म है। कुरआन कहता है कि जो कुछ ज़रूरत से ज्यादा है उसे अल्लाह की राह में दे दो। जो मुसलमान यह समझते हैं कि ईद-उल-अज़हा के मौके पर बक़रे की कुर्बानी करना ही ज़रूरी है। इसी से समाज और देश मज़बूत होगा तो उन्हें बेखौफ होकर क़ुर्बानी करनी चाहिए। संवैधानिक और क़ानूनी तौर पर इस पर कोई रोक नहीं है। बल्कि अपनी क़ुर्बानी ऐलानिया तौर पर राष्ट्र को, सरहद पर शहीद होने वाले जवानों को, लिंचिंग में मारे गए लोगों के साथ ही को समर्पित कर देनी चाहिए। कुर्बानी के स्थान पर एक बड़ा सा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा भी फहरा देना चाहिए। इससे कुर्बानी के इस त्यौहार का राष्ट्रीयकरण भी हो जाएगा। जब कांवड यात्रा राष्ट्र और शहीदों को समर्पित हो सकती है तो कुर्बानी क्यों नहीं..? धर्मनिरपेक्षता का और देशप्रेम यहीं तकाज़ा है कि हर काम देश के लिए किया जाए।

संविधान में सभी नागरिकों को समान अधिकार दिए हैं। धार्मिक आज़ादी का मौलिक अधिकार है। किसी धर्म विशेष से जुड़े संगठनों को दूसरे धर्म के लोगों पर अपनी मर्ज़ी थोंपने का कोई अधिकार नहीं है। कुर्बानी को तौर तरीको में कोई बदलाव करना होगा तो मुस्लिम समाज के लोग इसके लिए खुद आगे आएंगे। समाज में इस अंदरूनी तौर पर होगी। लोग आगे आ भी रहे हैं। समाज में बहस भी चल रही है। हिंदू संगठनों को इसमें कूदने की क़तई ज़रूरत नहीं है। वो हिंदू समाज में फैली बुराइयों को दूर करने पर ध्यान केंद्रित करें तो बेहतर है।
एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘मन की बात’ में ईद-उल-अज़हा की मुबारकबाद पेश करते हैं वहीं उनकी पार्टी के कुछ सांसद और विधायक ईद-उल अज़हा को लेकर ज़हर उगलने लगते हैं। हर साल यही होता है। ईद-उल-अज़हा नज़दीक आते ही हिंदू संगठनों का ड्रामा शुरू हो जाता है। ये मुसलमानों के धार्मिक आज़ादी के मौलिक अधिकारों के हनन की कोशिश है। प्रधानमंत्री को इसका संज्ञान लेकर अपने सांसद, विधायक और पार्टी नेतीओं के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करनी चाहिए। प्रधानमंत्री बार-बार अपने भाषणों में सवा सौ करोड़ देशवासियों की दुहाई देते हैं। उन्हें अपनी पार्टी से जुड़े लोगों को देश के संविधान और क़ानून के सम्मान का पाठ ज़रूर सिखाना चाहिए।

अगर संघ परिवार और उससे जुड़े संगठनों को लगता है ईद-उल-अज़हा पर क़ुर्बानी जानवरों पर अत्याचार है तो ये जानवरों पर ये अत्याचार हर रोज़ हो रहा है। बग़ैर बकरे काटे यह देश दुनिया में मटन का सबसे सबसे बड़ा निर्यातक नहीं हो गया है। देश में 70 करोड़ लोग मांसाहारी हैं। अगर ये मान लिया जाए की देश के सभी 17.25 करोड़ मुसलमान मांसाहारी है तो फिर बाकी के 52.75 करोड़ कौन लोग हैं जो मांसाहार करते हैं। देस के कई मंदिरों में आज भी सार्वजनिक रूप से पशुबलि दी जाती है। ये सब पंरपंरा के नाम पर ही होता है। देश सबका है। परंपराए भी सबकी हैं। सबकी परंपंराओं का सम्मान होना चाहिए। प्रधानमंत्री के सबका साथ सबका विकास नारे की मूल भावना यही है। हर चीज़ के लिए मुसलमानों को ज़िम्मेदार ठहराना बीमार मानसिकता है। इस बीमरी का इलाज नहीं किया गया तो ये बीमारी देश के लिए नासूर बन जाएगी।

अगर बकरे काटकर खाना जानवरों पर अत्याचार है तो केंद्र सरकार देशभर में बकरा पालन को क्यों बढ़ावा दे रही है। इस पर तमाम तरह की छूट के अलावा सरकार सब्सिडी भी देती है। इससे होनेवाली आय टैक्स फ्री है। सबसे ज्यादा बकरा पालन महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश में होता है। इन सभी राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं। इन सरकारों को अपने यहां बकरा पालन को बढ़ावा नहीं देना चाहिए। बकरी का दूछ डेंग्यू और चिकन गुनिया जैसी बीमारी में बहुत फायदेमंद होता है। लेकिन बकरा तो दूध नहीं देता। बकरा पलान का असल मकसद तो देश में मटन की घरेलू और इसके निर्यात कीं मांग की आपूर्ति के मकसद से ही किया जा रहा। केंद्र और राज्य सरकारें क्यों जानवरों पर अत्याचार को बढ़ावा दे रही हैं..? जिनका पशुप्रेम ज्यादा कुलांचे मार रहा है वो जांए और देश में चल रहे सभी मांस निर्यातक कंपनियों को बंद कराएं। उनके मालिकों को पशु प्रेम का पाठ पढ़ाएं।

(वरिष्ठ पत्रकार यूसूफ अंसारी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)