बारूद, बंदूक से बेहाल बस्तर, बन गया बोलियों का मरघट

बारूद, बंदूक से बेहाल बस्तर क्षेत्र में आंध्र प्रदेश से सटे सुकमा जिले में दोरला जनजाति की बड़ी आबादी है। उनकी बोली है दोरली। बोली के मामले में बस्तर अनोखा क्षेत्र है।

New Delhi Oct 24 : बोलियां कैसे गुम होती हैं, यह समझने के लिए बस्तर पर्याप्त है। हिंसा-प्रतिहिंसा के बीच पलायन और नई जगह बसने के दौर में पारंपरिक बोली पहले कम हुई, फिर गुम। एक बोली के लुप्त होने का अर्थ है, सदियों पुराने उसके संस्कारों का गुम हो जाना। बारूद, बंदूक से बेहाल बस्तर क्षेत्र में आंध्र प्रदेश से सटे सुकमा जिले में दोरला जनजाति की बड़ी आबादी है। उनकी बोली है दोरली। बोली के मामले में बस्तर अनोखा क्षेत्र है। वहां द्रविड़ परिवार की बोलियां भी हैं, आर्यकुल की भी और मुंडारी भी। विभेद इतना कि एक इलाके का गोंडी बोलने वाला दूसरे इलाके की गोंडी समझने में दिक्कत महसूस करता है। दोरली बोलने वाले वहां वैसे ही बहुत कम थे, पलायन ने इनकी संख्या बहुुत कम कर दी। पलायन और विस्थापन ने बस्तर की आदिवासी अस्मिता के बीज यानी बोलियों के समक्ष खड़ा कर दिया। कई बोलियां अतीत हो चुकी हैं।

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कई के व्याकरण गड़बड़ा गए, तो कई ने अपना मूल स्वरूप ही खो दिया। साठ के दशक तक भी यहां कोई 36 बोलियां थीं- सभी जनजातियों की अपनी बोली, प्रत्येक हस्तशिल्प या कार्य करने वाले की अपनी बोली। राजकाज की भाषा हल्बी थी, जबकि जंगल में गोंडी का बोलबाला था। गोंडी का अर्थ एक बोली नहीं है- घोटुल मुरिया की अलग गोंडी, तो दंडामी और अबूझ माड़िया की गोंडी अलग। 1961 की जनगणना में गोंडी बोलने वालों की संख्या 12,713 थी, जो अब घटकर 500 के आसपास रह गई है। आज से 117 साल पहले बस्तर की सबसे ज्यादा बहादुर समझी जाने वाली धुरबा जनजाति ने अपनी संस्कृति की रक्षा के सवाल पर अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठा लिए थे। उस विद्रोह को अंग्रेजों ने इस निर्ममता से कुचला कि शौर्य का प्रतीक माने जाने वाले धुरबा अदिवासियों का जल-जंगल-जमीन का हक समाप्त हो गया। आज धुरबा शहरी मजदूर बनकर रह गए हैं और धुरबी बोली इलाके की संकटग्रस्त बोली बन गई है।

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धुरबी पर बाहरी प्रभाव पड़ा, तो एक अलग ही बोली उपजी, जिसे परजी कहा गया। यह भी अब लुप्तप्राय है। बस्तर में बाहरी यानी नेपाली से लेकर मैथिल और बुंदेली से लेकर गुजराती तक सदियों से बसते रहे हैं और वहां की लोक-संस्कृति में ‘तर’ कर बस्तरिया बनते रहे। हां, इन लोगों ने कभी लोक जीवन में घुसपैठ या उनके इलाकों में दखल देने का प्रयास नहीं किया। अधिक से अधिक प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की प्रवृति ने आदिवासियों और सरकार के बीच टकराव उत्पन्न किया और नक्सली उपजे। एक आंदोलन के रूप में प्रारंभ हुआ नक्सलवाद बाद में आतंक बनकर रह गया, जिसके जवाब में अंग्रेजी कानून से पैदा पुलिस ने अंग्रेजों की ही नीति- ‘फूट डालो और राज करो’ अपनाकर व सलवा जुड़ूम के नाम पर आदिवासियों को हथियार थमा दिए। उसके बाद तो बडे़ स्तर पर आदिवासियों का पलायन हुआ। आज भी हजारों आदिवासी सुरक्षा बलों द्वारा स्थापित शिविरों में रहते हैैं, जो उन्हें बिल्कुल नहीं सुहाता।

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एक तो उनमें मिश्रित जनसंख्या होती है। दूसरे, यह उनकी पुश्तैनी प्रकृति के अनुरूप नहीं होते। यहां रहते-रहते उनका भोजन, रहन-सहन और फिर बोली भी बदल जाती है। ऐसा पलायन कर कस्बों में गए आदिवासी अपने दैनिक व्यवहार में स्थानीय बोली अपना लेते हैं और उनके पारंपरिक नाम भी बदल जाते हैं। पलायन, मशीनीकरण और बाजार के विस्तार से कई हस्त शिल्प भी लुप्त हो गए, उनकी बोलियां भी गायब हुईं। लोहारी, पनका, घड़वा, पारधी, कसेर जैसी जातियों की बोलियां भी इस आंधी में या तो समाप्त हो गईं या फिर किसी करीबी बोली में संगम कर एकसार हो गईं। एक बोली की मौत का अर्थ होता है, उससे संबद्ध संस्कृति, लोक-व्यवहार, अस्मिता और पहचान आदि का हमेशा के लिए लुप्त हो जाना। बीते 40 साल में बस्तर ऐसी कई संस्कृतियों को बोली के रास्ते बिसरा चुका है। आज जरूरत है बोलियों के रूप में वहां की मूल संस्कृति को बचाए रखने के लिए किसी ऐसी योजना की, जिसमें बोलियों के संग्रहालय से लेकर विभिन्न रूपों में इनके संरक्षण की बात हो। दरअसल, ऐसी नीति देश के विभिन्न अंचलों के लिए बनाए जाने की जरूरत है। (वरिष्‍ठ पत्रकार पंकज चतुर्वेदी के फेसबुक वॉल से साभार)