फोन के बिना पत्रकारिता और संसार

पत्रकारिता का ढाँचा ध्वस्त हो चुका है। लोगों को ना कहने में मन बहुत दुखता है। हमारे जैसे मूर्ख लोग रो भी देते हैं और झुंझला कर मना भी कर देते हैं।

New Delhi, Dec 17: हवाई अड्डे पर फोन परिवार के परदादा जी दिखे। जिन्हें घरों से निकाल कर नई पीढ़ी के फोन स्मार्ट फोन बने। इनमें से दो फोन एक जैसे हैं। 5000 के हैं।एक काँसे का बना 8000 का है। घर की किसी पुरानी चीज़ को मत फेंकिए। दस साल के लिए छिपा दीजिये फिर निकाल कर सजा दीजिएगा। स्मार्ट फोन की मस्ती चलेगी मगर परदादा जी भी ख़बर लेते रहेंगे।मुंबई में टाइम्स ऑफ़ इंडिया का लिट-फेस्ट है। वहाँ लप्रेक पढ़ने जा रहा हूँ। वहाँ कलयुग पर कुछ बोलना भी है। उसके बाद तुरंत दिल्ली। छुट्टियाँ बुला रही हैं। लंबे समय के लिए जाने वाला हूँ । इस बार एक प्रयोग करूँगा। अपना फोन बंद कर दूँगा। संभव हुआ तो जीवन में फोन की भूमिका नगण्य कर दूँगा। वैसे पत्रकारिता में फोन की कोई भूमिका नहीं बची है। गोदी मीडिया के दौर में लोगों की समस्याओं को दिखाने की मूर्खता से परेशानी हो जाती है। लोगों की तकलीफ सुनकर ही नींद नहीं आती है। मन उदास रहता है। रोज़ दस लोग फाइलें लेकर आ जाते हैं। मिनट मिनट चिट्ठियाँ आती रहती हैं । पचासों फोन आते हैं ।

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मेरे पास उन्हें पढ़ने और कुछ करने का कोई सपोर्ट सिस्टम नहीं है। लेडी हार्डिंग अस्पताल के लोग आ गए थे। सुनने का वक्त ही नहीं था,मना करना पड़ा । उन्हें लौटता देख ख़ुद मायूस हो गया। वे लोग तो मुझी से नाराज़ होकर गए होंगे । इतना आसान नहीं होता है किसी को बिना सुने मना कर देना। एक माँ ने दो साल तक मेरा नंबर खोजा, उसके इकलौते बेटे को किसी ने मार दिया है। वो भटक रही है। हम नहीं सुनेंगे, सरकार नहीं सुनेगी तो कौन सुनेगा। उन्हें कहने के बाद कि मेरे पास कुछ नहीं है, मैं नहीं कर सकता,फोन पर उनकी छूटती हुई आवाज़  के बाद मैं ही रोने लगा। मुझे पत्थर होना ही होगा। इसकी वजह यह भी है कि लोगों की कहानी की पड़ताल और उसे प्रसारण लायक बनाने के लिए रिपोर्टर नहीं है। पत्रकारिता का ढाँचा ध्वस्त हो चुका है। लोगों को ना कहने में मन बहुत दुखता है। हमारे जैसे मूर्ख लोग रो भी देते हैं और झुंझला कर मना भी कर देते हैं।

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भाई लोग तो केरल की घटना के लिए गाली देने लगते हैं। कहाँ कहाँ का लोड लेंगे। मेरे पास इस समस्या का हल नहीं है। मैंने देखा है जो पत्रकार चोर नेताओं के बयान और हैंडआउट ढोते हैं, वो काफी खुश रहते हैं। नौकरी में भी लंबे समय तक बने रहते हैं। हमारे जैसे लोग आसानी से बाहर कर दिए जाते हैं और बाहर होने से पहले कई मोर्चे पर अपमानित भी किए जाते हैं। हिन्दी के अखबार मेरा लेख छापने से मना कर देते हैं। 2014 तक इतना पूछते थे कि तंग आ जाता था। एक ही सज्जन बचे हैं जो पूछ लेते हैं। कन्नड और मराठी में छप जाता हूँ हिन्दी में नहीं। वैसे इस राय पर कायम हूँ कि अपवाद को छोड़ हिन्दी के अखबार कूड़ा हैं । ये तब भी कहता था जब छपता था।

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उर्दू और हिन्दी के अखबारों के कुछ वेबसाइट कस्बा से मेरा लेख लेकर छाप लेते हैं , हिट्स बढ़ाने के लिए । चिरकुट लोग पैसा भी नहीं देते। तो हम जैसे लोग गुज़ारा कैसे चलायेंगे। सभा सम्मेलन में फोकट में बुलाने वालों के लिए भी कह रहा हूँ । मुझे न बुलाएँ । कितना अपनी जेब से लगाकर जाता रहूँगा। दिल्ली विवि वाले मार्च तक बुला बुला कर मार देते हैं। टॉपिक तक पता नहीं होता मगर बुलाते जरूर हैं । रोज़ देश भर से दस फोन आते हैं कि यहाँ बोलने आ जाइये। मना करने पर वही मायूसी। इसलिए फोन बंद करूंगा। शायद 25 दिसंबर से। ईमेल वैसे भी नहीं देखता।  मुमकिन है इस प्रयास में फ़ेल हो जाऊँ मगर कोशिश तो करूँगा ही। तो मुझसे मोहब्बत करने वालों और गाली देने वालों आप दोनों आपस में बात कर लेना। प्यार बढ़ा लो।

(वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार के फेसबुक पेज से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)