ख्वाहिशें नहीं रोती, वो तो पूरी होने तक हंसती रहती हैं

ख्वाहिशें नहीं रोती, वो तो पूरा होने तक हंसती है। वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार ने इस बारे में एक ब्लॉग लिखा है। आप भी पढ़िए ये ब्लॉग

New Delhi, Dec 31: ख्वाहिशें : लाज लग रही है । कोट कभी नही पहना ।आमजन के बीच तो कत्तई नही। जेल में पहना । खूब रगड़ के पहना । फाड़ा । दूसरी लिया । सरकारी माल था , कौन सा बाप की कमाई का है ? तब इतनी ही समझ थी , एक वजह और रही सरकार के प्रति गुस्सा । गलत था ,अब स्वीकारता हूँ जनतंत्र में सरकार वो नही होती जो दिखाई पड़ती है खर्च उनके खीसे से नही होता , सब जनता की कमाई है । यह समझ भी जेल में ही आया । एक बार कुछ दिनों के लिए पहना था । 74 का वाकया है । जार्ज को किसी ने कलकत्ते में कोट का कपड़ा दिया था उसे लेकर वे बनारस आये थे । हम उन्हें लेने एयरपोर्ट गए थे।

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जार्ज ने हमे वो कोट का कपड़ा दिया – सिलवा लेना , गर्म है । पुरानी ख्वाहिश थी एक कोट पहनने की दूसरी एक तौलिया मिल जाती। हंसों मत भाई ! ये छोटी छोटी ख्वाहिश तो याद रहती हैं , इनकी उम्र बहुत बड़ी होती है । विश्वविद्यालय पहुचने तक दोनो ख्वाहिस जस का तस पड़ी रही एक को जार्ज ने पूरा किया पर सिलाई ? देखा जाएगा । लंका पर ‘साइटक ‘ सिलाई दुकान थी , बहुत महंगी । 60 रुपये का सवाल सामने रहा । बहरहाल 100 रुपये की साइकिल बेच कर 60 रुपये साइटक को दिया । गर्मी के दिन थे , ठंढ में उठा लेंग्गे , लेकिन ठंढ के पहले ही हम उठा लिए गए और छोड़ दिये गए बनारस सेंट्रल जेल।

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लौट के आये छात्रसंघ अध्यक्ष बन गए । ठंढ शुरू होते ही साइटेक का फोन आया – आपकी कोट यहीं है ले जाइए। हमने चपरासी राधे को भेज दिया और खुद किसी बैठक में चले गए । लौटे यो देखा साइकिल स्टैंड में हमारे तीनो सहायक (देबुदा के जमाने से यह तय हो चुका था कि छात्र संघ के चपरासी ,चपरासी नही ,सहायक होंगे ) खड़े हैं राधे कोट पहन कर इधर उधर शरीर ऐंठ रहा है । हम चुपचाप दफ्तर में आकर बैठ गए । इतने राधे कोट लेकर आया । क्या है ? कोट, -पहनो, कौन मैं ?  हां  वहः संकोच में चुप रहा । इतने में पूरा स्टाफ आया। इसके बाद भी कुछ बातें इस ब्लॉग में लिखी गई हैं।

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चंचल ने आगे लिखा कि ‘’हमने कहा जो सीनियर सहायक पांडे जी थे ,से पांडे जी इसे पहना कर बताइएगा कैसी लगी ? और हम बाहर निकल गए , मालिक साहब के साथ राष्ट्रीय कार्यक्रम में। रात खाने पर हम सब साथ बैठते थे । हमने पांडे जी पूछा राधे कहां है ? घर गया साहब ! रो रहा था साहेब ‘ बोलते बोलते पांडे जी की आंख खुद भर आईं। सांझ खराब न हो , हमने जोर का ठहाका लगाया। ‘ ख्वाहिशें नही रोती, वहः तो पूरी होने तक हंसती रहती है।’ ये ब्लॉग वरिष्ठ पत्रकार और संत्भकार चंचल के फेसबुक वॉल से साभार है। साथ ही आपको बता दें कि ये लेखक  के निजी विचार हैं।