श्रीदेवी हमारे लिए कोई फिल्मी हीरोइन नहीं, जिंदगी का हिस्सा थीं

श्रीदेवी के निधन के बाद शो बनाने के चक्कर में बार-बार पुराने सीन, पुराने गीत देखने पड़े, जो बरबस पुराने दिनों में ले गए।

New Delhi, Mar 01 : 13 साल उम्र रही होगी, तब गांव में रेडियो ही मनोरंजन का पूर्ण साधन था। रेडियो सिलोन पर ‘बिनाका गीतमाला’ सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम था। रात में ये प्रोग्राम हम सब पढ़ाई छोड़कर सुनते थे। कई हफ्तों से फिल्म ‘हिम्मतवाला’ का गाना- नैनों में सपना.. नंबर वन बना हुआ था। मेरे एक बड़े भइया गोरखपुर से ये फिल्म देखकर आए थे, घर में भाभी के सामने श्रीदेवी का अनुपम सौंदर्य बखाना था, तभी ठीक से श्रीदेवी का नाम सुना था। तब एक मैग्जीन आती थी मायापुरी, श्रीदेवी की तस्वीर पहली बार उसी पर देखी थी, आगे की भी कहानियां उसी से जानते रहे।

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उस दौर में वीडियो कैसेट का प्रचलन शुरू हो गया था। 1984 में गांव से 10 किलोमीटर दूर बृजमनगंज में वीडियो टॉकीज में फिल्म ‘इंकलाब’ देखी। वीडियो कैसेट के जरिए पहली बार श्रीदेवी के दर्शन हुए। इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए बनारस गया, वहां फिल्मों का खूब चस्का लग गया। श्रीदेवी की फिल्में अमूमन दो-तीन टॉकीज में लगी ही रहती थीं। वो उम्र थी जब नाक के नीचे, होठों के ऊपर स्याह रेखाएं उभरनी शुरू हुई थीं। मेरी उम्र के लड़के श्रीदेवी को देख-देखकर जवान होने की तरफ बढ़ रहे थे। या यूं कहें की श्रीदेवी अपनी संगत में हम सभी को जवान कर रही थीं। 80-90 के दशक में इतनी इलेक्ट्रॉनिक क्रांति नहीं हुई थी। घर-घर में टीवी नहीं था, लेकिन चित्रहार देखने का जुगाड़ कहीं न कहीं हो जाता था। चित्रहार में श्रीदेवी के गाने जरूर हुआ करते थे।

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श्रीदेवी की नई फिल्म आते ही उसे हफ्ते भर के अंदर देख लेते। श्रीदेवी से जैसे कोई रिश्ता सा हो गया था। वो बहुत अपनी सी लगती थीं। ‘मिस्टर इंडिया’ के पैरोडी सॉन्ग और हवा-हवाई में जिस तरह उन्होंने अपना चुलबुलापन दिखाया, ऐसा लगा जैसे अपनी उम्र को धता बताकर हमारी उम्र में शामिल हो चुकी हैं। जबकि मुझसे करीब 7 साल बड़ी थीं श्रीदेवी।
1989 में ‘चांदनी’ आई थी, तब मैं इलाहाबाद पहुंच चुका था। बीए का दूसरा साल था। अब हीरो हीरोइन के रोमांटिक सीन्स का मतलब समझ में आने लगा था। गानों के बोल समझ में आने लगे थे, गानों के भाव के हिसाब से दिलों के भाव डूबते उतराते थे। धर्मवीर भारती का उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ इलाहाबाद का हर छात्र पढ़ चुका होता था, इलाहाबाद पहुंचे हर ‘चंदर’ की एक ‘सुधा’ भी होती थी, भले ही वो ख्वाबों-खयालों में हो या फिर हकीकत में। श्रीदेवी हर ‘चंदर’ की लव गुरु बन गई थीं। श्रीदेवी हमारे लिए सेक्स सिंबल नहीं थी, मुहब्बत की देवी थी। चांदनी फिल्म का गीत-‘आ मेरी जान, मैं तुझमें अपनी जान रख दूं।’ सुनकर सिहरन सी होती थी। जब भी हम छात्र वीसीआर मंगवाते थे, तब ‘चांदनी’ फिल्म उसमें जरूर आती थी और ये गाना रिपीट करके देखते थे। श्रीदेवी की उम्र ठहरी हुई थी, हमारी उम्र बढ़ रही थी, लेकिन उससे भी तेजी से बढ़ रही थीं ख्वाहिशें, बढ़ रहे थे अरमान, ख्यालों में बस रही थी मुहब्बत की बस्ती कि आकर कोई कहे-आ मेरी जान, मैं तुझमें अपनी जान रख दूं।
श्रीदेवी से कुछ इस कदर आशिकी थी कि उनकी हर फिल्म देखते थे। अच्छी भी लग जाती थी। 1991 में बीए की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी, तब आई थी ‘लम्हे’। अटपटी सी कहानी थी, लेकिन श्रीदेवी ने जादू सा कर दिया था। फिल्म की 10 मिनट की पैरोडी तो उसकी जान थी। पिता के उम्र के शख्स के प्रति एक कमसिन लड़की की दीवानगी की कहानी थी। कहानी भारतीय जनमानस को नहीं पची, फिल्म फ्लॉप थी, लेकिन श्रीदेवी ने तो नींदें ही उड़ा दी थीं। फिल्म का गाना था-‘मेरी बिंदिया तेरी निंदिया ना उड़ा दे तो कहना।’

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श्रीदेवी की फिल्म ‘सदमा’ बाद में देख पाया था, करीब हफ्ते भर बेचैन कर रखा था सदमा ने। क्लाइमेक्स में जिस तरह नायक (कमल हासन) नायिका (श्रीदेवी) को बीते दिनों की याद दिलाता है और नायिका तो सब कुछ भूल गई थी। श्रीदेवी को थप्पड़ मारने का मन भी हुआ था, ये फिल्म आज भी टीवी पर जब देखता हूं तो क्लाइमेक्स नहीं देख पाता।
श्रीदेवी ने जहां हम सबको छोड़ा था, वहां से आगे जूही चावला और माधुरी दीक्षित ने बखूबी संभाला, फिल्मों से आज भी रिश्ता वैसा ही कायम है। पहले हॉल में देखते थे, अब ज्यादातर टीवी पर रिकॉर्ड करवाकर देखते हैं।
श्रीदेवी के निधन के बाद शो बनाने के चक्कर में बार-बार पुराने सीन, पुराने गीत देखने पड़े, जो बरबस पुराने दिनों में ले गए। आज ही ‘लम्हे’ की पैरोडी बहुत दिनों बाद देखी, बार-बार देखी। श्रीदेवी की शोख और नटखट अदाओं, पलकों के उठने और गिरने के बीच बीते दिनों में डूबता-उतराता रहा। श्रीदेवी हमारे लिए कोई फिल्मी हीरोइन नहीं थीं, जिंदगी का हिस्सा थीं, बहुत गहरी दोस्त थीं, फर्क बस ये था कि मैं उन्हें जानता था, वे मुझे नहीं जानती थीं। इस जनम में तो उनसे कभी मुलाकात नहीं हो पाई, जहां वो पहुंचीं हैं, शायद मुलाकात वहीं हो। सबको जाना आखिर वहीं है।

(वरिष्ठ पत्रकार विकास मिश्र के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)