ऐसा नहीं है कि सिर्फ ब्राह्मण ही हमारे समाज में बदलाव की प्रक्रिया में बाधक हैं!
अगर ब्राह्मणवाद या मनुवाद बदलाव की प्रक्रिया में बड़ी बाधा हैं तो भी आप ‘ब्राह्मण’ और ‘ब्राह्मणवादी’ का फ़र्क तो करेंगे न!
New Delhi, Mar 13 : पहले ही बता दूं, मेरी यह टिप्पणी किसी एक घटना, किसी एक व्यक्ति या किसी मित्र की टिप्पणी पर केंद्रित या उससे प्रेरित नहीं है। मुझे लगता है, यह सोचना या बोलना एक जटिल सामाजिक यथार्थ का बहुत सरलीकरण है कि सिर्फ ब्राह्मण ही हमारे समाज में बदलाव की प्रक्रिया में बाधक हैं! उन्हीं के चलते सामाजिक राजनीतिक बदलाव नहीं हो पा रहा है !
अगर ब्राह्मणवाद या मनुवाद बदलाव की प्रक्रिया में बड़ी बाधा हैं तो भी आप ‘ब्राह्मण’ और ‘ब्राह्मणवादी’ का फ़र्क तो करेंगे न! ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए कइयों को जानता हूं, जिन्हें सिर्फ उनके ब्राह्मणवाद या मनुवाद-विरोधी होने के चलते ब्राह्मणों ने अपने समाज से बहिष्कृत सा कर रखा था!
राजनीति में ऐसे लोगों को दलित और अन्य उत्पीड़ित समुदायों के बड़े हिस्से का समर्थन मिला! वे आजीवन ऐसे समुदायों के लिए लड़े और उनमें कुछेक ने तो उन्हीं के लिए लड़ते हुए अपनी जान तक दे दी!
अब आइये दूसरा पहलू देखें। श्रीमन केशव मौर्य, हंसराज अहीर, अनुप्रिया पटेल, रामदास अठावले, उदित राज, अजीत सिंह या ‘आज के मुलायम’ ही किस ‘ब्राह्मणवाद’ या ‘मनुवाद’ से लड़ रहे हैं?
अगर हमें अपने समाज को सचमुच बदलना है तो हमें ज्यादा गहराई और ज्यादा ईमानदारी से सोचना होगा। सामाजिक-राजनीतिक जटिलताओं के सरलीकरण से बचते हुए उन्हें व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की ज़रूरत है। बदलाव की सही दिशा तभी मिलेगी। बदलाव का कोई रेडीमेड फार्मूला नहीं है!