‘“जय जवान, जय किसान” को थोड़ा बदल कर कहूँगा – “जिए जवान, जिए किसान”‘

शास्त्री जी के नारे “जय जवान, जय किसान” को थोड़ा बदल कर कहूँगा – “जिए जवान, जिए किसान”।

New Delhi, Mar 15 : लोकतंत्र में जब ‘लोक’ के सवाल को नज़रअंदाज़ किया जाता है तब ‘नक्सलवाद’ जैसी समस्या का जन्म होता है। यह महज़ कानून-व्यवस्था या फिर एक विचारधारा के अतिवाद का मसला नहीं है, बल्कि इसका सीधा संबंध सत्त्ता के चरित्र और लोगों के साथ इसके व्यवहार से है। मौजूदा समय में जिनके पास धन है उनके पास ही बल है और सत्ता भी असल में उनकी ही है। समाज की सीढ़ीनुमा व्यवस्था में पूरी संरचना का भार आख़िरी पायदान पर खड़े लोगों के कंधे पर होता है।

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ज्यों-ज्यों सीढ़ी ऊपर बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों भार कम होता जाता है और धन, बल व अधिकार में बढ़ोतरी होती जाती है। हालाँकि लोकतंत्र में ठीक इसके विपरीत होना चाहिए लेकिन सच्चाई कुछ और है। नतीजा यह होता है कि लोकतंत्र की इमारत की नींव में दबाए गए लोगों को इस व्यवस्था से न्याय, समानता और अधिकार मिलने की उम्मीद कम होने लगती है क्योंकि भवन के ऊपरी तल्ले पर बैठा समूह अपने पाँव से नीचे वाले को दबाता रहता है। यही वो प्रक्रिया है जो नक्सलवाद जैसी समस्या के लिए ठोस ज़मीन तैयार करती है।

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सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग स्वयं नहीं चाहते हैं कि हिंसा की समस्या का समाधान हो ताकि भय के भूत से संसाधनों की लूट अबाध गति से चलती रहे। यही वजह है कि इस समस्या के ठोस कारणों को ढूँढ़कर उन्हें दूर करने के बजाय इसका सरलीकरण किया जाता है। उदाहरण के तौर पर, भाजपा की सांसद पूनम महाजन महाराष्ट्र में शांतिपूर्ण तरीके से अपना हक माँगने वाले किसानों को नक्सली कहती हैं और छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ़ के जवानों पर गोली चलाने वाले लोग भी नक्सली हैं। शहरी नक्सली, देहाती नक्सली… कल को बोलेंगे काला नक्सली, गोरा नक्सली। ये शब्द क्यों गढ़े जाते हैं? सत्ता के ख़िलाफ़ उठने वाली हर आवाज़ को नक्सली क्यों घोषित किया जाता है? हद तो तब हो जाती है जब नक्सली और जेहादी शब्द को पर्यायवाची के रूप में इस्तेमाल किया जाता है ताकि मूल समस्या से लोगों का ध्यान भटकाया जा सके। नफ़रत, हिंसा और भय का ऐसा जाल बुना जाता है जिसमें देश हमेशा उलझा रहे और धनकुबेर आराम से गिद्ध की तरह इस देश के संसाधनों को नोचते रहें।

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विकास के नाम पर दरअसल देश में लोकतंत्र और समाज का विनाश किया जा रहा है। मुट्ठी भर धनपशुओं के विकास की बंदूक से बहुसंख्यक आबादी लहूलुहान हो रही है। बंदूक उनकी है लेकिन चलाने वाले लोग हमारे हैं। इस बंदूक से ग़रीब, मज़दूर, किसान और मध्यम वर्ग के लोग ही मर रहे हैं। चाहे नक्सली बताकर आम आदिवासी को मारा जाए या फिर नक्सली बनकर सीआरपीएफ़ के जवानों को मारा जाए, ख़ून तो आम लोगों का ही बहता है, हत्या तो लोकतंत्र की ही होती है। चिराग़ ग़रीब के घर का बुझता है और झोपड़ी जलाकर महलों को रोशन किया जाता है। संसाधन माफ़िया ने आदिवासियों से जल-जंगल-ज़मीन छिनकर विकास का ऐसा तमाशा बनाया है जिसमें आदिवासी तमाशबीन बन चुके हैं और जो इसका विरोध करने वाले हैं उनको या तो मारा जा रहा या जेलों में भरा जा रहा है। खेती-किसानी को तबाह करके किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर किया जा रहा है और इनके ही लाल सीआरपीएफ़ और फ़ौज में शहीद हो रहे हैं। एक फ़ौजी शांतिपूर्ण तरीके से जब बीएसएफ़ में ख़राब खाने की शिकायत करता है तो उसको नौकरी से निकाल देते हैं और जब किसान अपनी फ़सल का दाम माँगता है तो उसको नक्सली बोल देते हैं। मतलब बाप को खेत में अनाज का दाम नहीं मिलता और बेटे को सीमा पर अनाज नहीं मिलता। जिस देश में किसान और जवान की हालत ठीक न हो, उस देश की तरक्की रुक जाती है। वैसे भी इस देश के हुक्मरानों ने सबका साथ लेकर कुछ का विकास किया है।

शहरी मध्यम वर्ग भी इस बात को समझने लगा है कि जब तक स्मार्ट गाँव नहीं होगा तब तक स्मार्ट सिटी नहीं बनेगी। खेती की हालत यदि ख़राब रहेगी तो गाँव से शहर की ओर पलायन नहीं रुकेगा और शहर पर बढ़ता दबाव कम नहीं होगा। कितना भी मेट्रो और फ्लाईओवर बना लें, ट्रैफ़िक कम नहीं हो पाएगा। दिल्ली की हालत यह है कि लोग साँस नहीं ले पा रहे हैं। लेकिन यह बात शायद सरकार की समझ से परे है, शायद इसलिए कि उनको लगता है जुमले वाला कामयाब नुस्ख़ा उनके पास है। अभी हाल में हुए नक्सली हमले में बेगूसराय के एक सपूत अमरेश कुमार शहीद हो गए। मोदी जी का एक जुमला याद आया कि नोटबंदी से नक्सली हमला रुक जाएगा। पचास दिन कब के बीत चुके हैं लेकिन लगातार जवान शहीद हो रहे हैं और सरकार ज़िम्मेदारी लेने के बजाय विपक्ष पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रही है। गृह मंत्री ख़ुद सांसद हैं और बेटा विधायक। शहादत दे रहा है किसान का बेटा और राजनीति कर रहा है नेता जी का बेटा। इस खेल को समझना होगा कि पंद्रह साल से छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार है और नक्सली हमले के लिए विपक्ष, नेहरू और जेएनयू को ज़िम्मेदार बताया जा रहा है। इनका यह खेल ज़्यादा दिन तक चलने वाला नहीं क्योंकि यह बुद्ध, कबीर, नानक, गांधी, आंबेडकर, पेरियार, फुले, अशफ़ाक़ और भगत सिंह का देश है। ख़ूनी खेल खेलने वाले सत्तालोलुप जल्द ही एक्सपोज़ होंगे। और एक बात, जिनको लगता है कि किसी की हत्या क्रांति है, वे भगत सिंह की इस बात को याद कर लें कि बम और पिस्तौल से कभी इंकलाब नहीं आता।
शास्त्री जी के नारे “जय जवान, जय किसान” को थोड़ा बदल कर कहूँगा – “जिए जवान, जिए किसान”।

(छात्रनेता कन्हैया कुमार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)