बिहार उपचुनाव रिजल्ट : सुशासन बाबू की यूएसपी मौजूदा दौर में दरक रही है

उपचुनाव में सबसे अच्छी बात यह रही कि जिन दिवंगत सदस्यों की वजह से चुनाव हुए उन्हीं के अपनों ने उनकी सीट पर कब्ज़ा जमाया।

New Delhi, Mar 15 : पहला संस्मरण – 30 अप्रैल 2014 में दरभंगा की सुबह.. तक़रीबन 5 बजे ही मैं अपने सहयोगी कैमरा पर्सन के साथ कवरेज़ के लिए तैयार था। होटल से निकल कर बाहर आए। चाय की पहली दुकान पर रुककर चाय पीते हुए मैंने वोटिंग की सुबह वहां खड़े वोटरों का मन समझने की कोशिश की। चूंकि मुझे दरभंगा के साथ मधुबनी में भी लोकसभा चुनाव की वोटिंग को कवर करना था इसलिए मैंने तय किया कि सुबह – सबेरे पहले मधुबनी निकल जाऊंगा और आधे दिन के बाद वापसी में दरभंगा को कवर करूँगा। लगभग 40 मिनट के सफर के बाद हमारी गाड़ी सकरी के आसपास पहुंची। सकरी मोड़ के आसपास की आबादी और उसके बीच कई छोटी-बड़ी मस्जिदें आपको मिल जायेगीं। सुबह के 6 बजने को होंगें और जिन गांवों से हम गुजर रहे थे वहां बने बूथों पर वोटरों की लंबी कतार देखने को मिल रही थी। लगभग आधा दर्जन गांवों में हमे ऐसा ही नजारा दिखा। मधुबनी की तरफ़ आगे बढ़ते हुए मैंने पंडौल-सकरी रोड पर बलाह में नूरी मस्जिद के सामने गाड़ी रुकवाई। वोटिंग शुरू नहीं हुई थी लेकिन इस मुसलमान आबादी के वोटरों में गज़ब का उत्साह देखने को मिल रहा था। मैंने वोटरों से बात की… सीधा सवाल किया इतनी सुबह वोट के लिए क्यों खड़े हो गए? जवाब भी सीधा आया.. हमारा हक़ है, वोट कर रहे कि देश सुरक्षित रहे। मैं आगे बढ़ गया… कुछ किलोमीटर आगे ही शम्भुआर। शम्भुआर में सड़क किनारे एक स्कूल में बूथ पर वोटिंग शुरू हो चुकी थी। सुबह से दिखी हर लंबी कतार से शम्भुआर में वोटरों की कतार ज्यादा लंबी थी। अगड़ी-पिछड़ी की मिली जुली हिंदू वोटरों का बूथ। मैंने ऑन कैमरा वोटरों से सवाल किया… वोट किसके लिए? जवाब एक ही मिला… विकास के लिए।

Advertisement

2014 के लोकसभा चुनाव में ये वोटों का वो ध्रुवीकरण था जिसने पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के विरोध के लिए खड़े वोटरों की कतार के समानांतर उससे बड़ी कतार खड़ी कर दी थी। नतीजा पूरे देश ने देखा। चूंकि मैंने शुरुआत मधुबनी से की इसलिए एक नज़र में उसके नतीजे से ध्रुवीकरण की लकीर को समझने की कोशिश करिये। 2009 और 2014 दोनों दफ़े यहां बीजेपी से हुकुमदेव नारायण यादव और आरजेडी से अब्दुल बारी सिद्दकी आमने – सामने रहे। 2009 में हुकुमदेव को 1 लाख 64 हजार के करीब और सिद्दकी को 1 लाख 54 हजार के आसपास वोट मिले। हार का अंतर 10 हजार से ज्यादा न था। 2014 में अल्पसंख्यक वोटरों ने जोरदार वोटिंग कर सिद्दकी को 3 लाख 37 हजार से ज्यादा वोट दिए लेकिन उससे भी बड़ी लकीर हुकुमदेव ने 3 लाख 58 हजार वोटों की बुते खींच दी। अगड़ी-पिछड़ी को दरकिनार कर नरेंद्र मोदी की लहर में हिन्दू वोटों का ये ऐसा ध्रुवीकरण था जिसने नमो – नमो की गूंज उठा दी।

Advertisement

दूसरा संस्मरण – 16 अक्टूबर 2015 की सुबह.. गुलाबी ठंड ने दस्तक़ दे दी है। मैं अपने सहयोगी कैमरा पर्सन मनीष जुनेजा के साथ औरंगाबाद स्थित होटल से बाहर निकलता हूँ। विधानसभा चुनाव की वोटिंग का दिन.. हमारा पहला लाईव अनुग्रह कॉलेज स्थित बूथ से। सुबह में वोटरों की बढ़िया तादाद है। एलीट टाईप.. मॉर्निंग वाकर वोटर, सभी हाथों में मतदाता पहचान पत्र लिए। पुराने सवाल के साथ शहरी वोटर का मन टटोलने की कोशिश होती है। वोट किसके लिए? जवाब – बदलाव के लिए.. विकास के लिए। आप समझदार हैं तो समझिए क्योंकि वोटर सबसे चालाक होता है। 10 बजे तक चालाक वोटरों का मूड भांप हम भी देव के लिए निकल गए। सूर्य मंदिर में पूजा भी की और वहां भी वोटिंग कवर की। चुनाव हम पत्रकारों के लिए उत्सव की तरह से होता है। हम भी कुछ अलग खबरों की तलाश में हर चुनौती को कबूल करते हैं। देव में हमें मालूम पड़ा कि आगे नक्सल प्रभावित कुटुंबा विधानसभा क्षेत्र है। रास्ता कच्चा – पक्का है और लैंड माइंस का जोख़िम भी है। मुझे मेरे लोकल इनफॉर्मर ने बताया कि कुटुंबा के अंदर आगे पचोखर है। वही पचोखर जहां 2010 के विधानसभा चुनाव के दौरान नक्सलियों द्वारा प्लांट एक सिलेंडर ब्लास्ट हुआ था जिसमे 5 बच्चे भी मारे गए थे। खबर मिली कि नक्सलियों से बेख़ौफ़ पचोखर में जबरदस्त वोटिंग हो रही। मुझे और मेरे सहयोगी मनीष जुनेजा को चुनौती कबूल थी.. हम कच्चे रास्ते पर निकल पड़े। हमारी गाड़ी के पीछे चैनल की बड़ी से ओवी वैन। एक दो किलोमीटर जाने के बाद मुझे एहसास हुआ कि ओवी वैन को साथ ले जाना, ज्यादा जोख़िम उठाना होगा। हमने ओवी को देव में रुकने को कहा और आगे बढ़ चले। आधे घंटे के रास्ते मे हमे दो दफ़े सीआरपीएफ के चीता जवानों ने चेक किया। हम जब पचोखर पहुंचे तो हैरत में पड़ गए। बिना किसी डर के ग़रीब वोटर अपने लोकतंत्र के अधिकार का इस्तेमाल कर रहे थे। गजब का जज्बा.. अद्वितीय उत्साह। बात की तो सबकी अपनी उम्मीदें थी। कुटुंबा सुरक्षित सीट है। कांग्रेस के राजेश कुमार और हम के उम्मीदवार संतोष सुमन आमने – सामने थे। एक सुरक्षित सीट पर बेख़ौफ़ ग़रीब वोटर ने किन बातों को दिमाग़ में रखकर वोट डाला होगा इसका विश्लेषण नतीज़े याद कर समझिये। एनडीए उम्मीदवार को 41 हजार वोट मिले लेकिन ग़रीब वोटरों की एकजुटता भारी पड़ी और महागठबंधन के राजेश कुमार 10 हजार वोटों से इस सीट पर जीते।

Advertisement

दोपहर बाद हम वापस औरंगाबाद लौटे। शहरी बूथों का फिर से जायजा लिया। संस्कृत हाई स्कूल, पीएचईडी कॉलोनी सहित शहर के कई बूथों पर घूमे लेकिन एक्का – दुक्का वोटर ही नज़र आए। कुटुंबा के पचोखर गांव के वोटरों की बनिस्पद औरंगाबाद का शहरी वोटर उदासीन दिखा। असर नतीजों में भी दिखा। बीजेपी के उम्मीदवार रामाधार सिंह को इसका खामियाजा हार से चुकाना पड़ा। महागठबंधन के उम्मीदवार आनंद शंकर ने उन्हें 17 हज़ार वोटों के अंतर से हराया।
तीसरा संस्मरण – 1 नवम्बर 2015 की तारीख़… मोतिहारी में विधानसभा की वोटिंग कवर कर रहा था। संयोग ऐसा बना की मेरे वरीय सहयोगी महफ़ूज भाई को भी उर्दू चैनल के लिए लाईव देना था। हम दोनों के साथ ओवी वैन एक ही थी इसलिए सुबह से लेकर शाम तक हमे मोतिहारी विधानसभा के शहरी इलाकों के बूथों पर ही रहना था। एनडीए और महागठबंधन के उम्मीदवारों के बीच कड़ी टक्कर थी। सुबह से दोपहर 1 बजे बजे तक हर बूथ पर दोनों उम्मीदवारों को वोट मिलता दिखा। लेकिन जैसा अमूमन हर बार होता है, वैसा ही देखने को मिला। 2 बजे तक हर पक्ष का वोटर शिथिल होने लगा। 3 बजे तक यही माहौल रहा लेकिन उसके बाद अंतिम 2 घंटों में जो हमने देखा वही संगठन की मारक क्षमता थी। अचानक से बीजेपी के संगठन से जुड़े युवा वोटरों को बूथ तक लाने लगे। जो वोट उनके उम्मीदवार को मिलना था और अब तक घरों से बाहर नहीं निकला था। उसे बूथों तक पहुंचाने का कौशल देखते ही बन रहा था। शायद वोटिंग के अंतिम 2 घंटों का ही असर था महागठबंधन की लहर में बीजेपी उम्मीदवार प्रमोद कुमार 19 हज़ार के बड़े अंतर से जीत गए।

तीन लंबे संस्मरण के ज़रिए बिहार में उपचुनाव के मौजूदा नतीजों को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। अररिया में आरजेडी की जीत तय थी। तस्लीमुद्दीन फ़ैक्टर वहां से जाते-जाते ही जायेगा। इतनी जल्दी तो बिल्कुल भी नहीं। सरफ़ाज़ और प्रदीप सिंह के बीच आगे – पीछे का खेल तो ख़ूब हुआ लेकिन नतीजा वही हुआ जिसकी उम्मीद बीजेपी को भी थी। साफ़ बात करें तो अररिया में बीजेपी की कोशिश 2014 के लोकसभा चुनाव जैसे स्थितियों को पैदा करने की थी। लेकिन वहां मधुबनी जैसी वो तस्वीर बन नहीं सकी जिसकी चर्चा मैंने पहले संस्मरण में की। नित्यानंद राय ने अगर अररिया को आईएसआई का हब बनने की आशंका जताई थी तो उसका मक़सद केवल धार्मिक ध्रुवीकरण को खड़ा करना था ताकि आरजेडी उम्मीदवार के साथ खड़ा पिछड़ी जातियों का समर्थन हिन्दू कार्ड के तहत उनके साथ आ जाए। दुर्भाग्य कहिए ये हुआ नहीं या हर बार ये हो नहीं सकता। अब बीजेपी के लिए संदेश साफ है, बिहार की सियासत धार्मिक ध्रुवीकरण से आगे निकल चुकी है इसलिए 2019 के लिए रणनीति में बदलाव की तैयारी करनी होगी। अररिया में बीजेपी का असफ़ल हिन्दू कार्ड नीतीश कुमार को ज्यादा परेशान कर रहा होगा। क्योंकि खुद उन्हें भी पता है कि बीजेपी के साथ वो इसी बुते नैया पार लगने की आस में आये थे। अररिया के नतीजे से आरजेडी केवल इतना भर संतोष कर सकती है कि उसका जातिय आधार वोट बैंक हिन्दू कार्ड का शिकार नहीं हो रहा।

हमारे यहां भोजपुरी में एक कहावत है… बिन मन के बियाह, कनपटीये सेनुर। मतलब.. शादी अगर मन लायक न हो तो दुल्हन की मांग बजाय दूल्हा कनपटी में भी सिंदूर डाल देता है। जहानाबाद विधानसभा सीट पर एनडीए की उम्मीदवारी कुछ ऐसी ही रही। आरजेडी उम्मीदवार सुदय यादव के साथ सिम्पैथी और जेडीयु का हां – ना के सस्पेंस के बीच अभिराम शर्मा की उम्मीदवारी यही हालात बताते हैं। जहानाबाद विधानसभा सीट अर्ध शहरी वोटरों का इलाका है। एनडीए के आधार वोटरों की तादाद कम नहीं लेकिन यहां हालात मेरे दूसरे संस्मरण के जैसे हैं। वोट होने के बावजूद जेडीयु उम्मीदवार के पक्ष में सर्वणों ने आक्रामक वोटिंग नहीं कि। औरंगाबाद में रामाधार सिंह अंदरूनी भीतरघात का शिकार बने थे… अभिराम शर्मा के मामले में भी शायद यही कहानी है। हां, सुदय यादव के लिए आरजेडी के वोटरों ने कमोबेश वैसी ही आक्रामकता से वोटिंग की जैसा मैंने कुटुंबा के पचोखर में ग़रीब वोटरों को करते देखा था। मेरा मानना है कि जहानाबाद की सीट आरजेडी जीती नहीं एनडीए का अपने कारणों से हारी। फिर भी चुनाव में जीत की गिनती होती है।

भभुआ विधानसभा सीट का नतीजा शायद पहले से सबके सामने था। स्व. आनंद भूषण पांडेय जैसे मजबूत संगठनकर्मी की पत्नी को उम्मीदवार बनाना बीजेपी का सही फ़ैसला था। सहानुभूति तो उनके साथ थी ही कांग्रेस के कमज़ोर उम्मीदवार ने बीजेपी की जीत आसान बना दी। हालांकि सहानुभूति लहर के बावजूद बीजेपी के संगठन ने प्रचार और मतदान तक कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। संगठन अगर ढीला पड़ जाता तो हार का अंतर कम होना तय था। बीजेपी संगठन की तारीफ़ इसलिए होनी चाहिए कि अपनी जीत सुनिश्चित देखने के बावजूद हर कार्यकर्ता ने मेहनत की। आरजेडी को सोचना होगा कि गठबंधन के नाम पर सहयोगियों के लिए केवल सीट छोड़ देना सही है या फिर उम्मीदवारों के चयन में भी हस्तक्षेप जरूरी है।

उपचुनाव में सबसे अच्छी बात यह रही कि जिन दिवंगत सदस्यों की वजह से चुनाव हुए उन्हीं के अपनों ने उनकी सीट पर कब्ज़ा जमाया। नतीजा आ चुका और बहस लिटमस टेस्ट को लेकर हो रही। मैंने पहले भी लिखा था कि ये तेजस्वी का लिटमस टेस्ट नहीं.. एनडीए की नई सरकार का टेस्ट भले मान लीजिये। चलिए इसे लिटमस टेस्ट न भी मानिए लेकिन इस सच को कोई झुठला नहीं सकता कि आरजेडी ने 2-1 से विजयी बढ़त ले ली। क्योंकि लोकतंत्र में जीतता वही है जिसके साथ जनसमर्थन है।
ये नतीज़े बिहार की राजनीति को नया संकेत दे चुके हैं। नेता से लेकर एक्सपर्ट और या यूं कह लें कि हर बिहारी अपने – अपने नज़रिए से उसका विश्लेषण कर रहा है। कुछ बातों की चर्चा यहां जरूरी हो जाती है। लंबे अरसे बाद ये पहली बार हुआ कि लालू प्रसाद बिहार के चुनावी रण से दूर थे। तेजस्वी फोटो वाली पोस्टर को अपनी गाड़ी पर लगाये घूमते रहे लेकिन हकीकत यही है कि लालू प्रसाद इलेक्शन मैनेजमेंट के एक्सपर्ट माने जाते हैं। उनकी ग़ैर मौजूदगी में भी तेजस्वी ने अगर बढ़त वाली जीत पार्टी को दिलवाई तो ये आरजेडी के लिए शुभ संकेत है। तेजस्वी को भी अब समझ लेना चाहिए कि जनादेश का अपहरण वाला नारा उन्हें उतना फायदा नहीं देगा जितना ग्राउंड वर्क। नई पिछड़ी जातियों को अपने साथ जोड़ने के साथ तेजस्वी सॉफ्ट फॉरवर्ड पॉलिटिक्स की राह अपनाकर अपने लिए सवर्णों की आक्रामकता कम कर सकते हैं।

अररिया में बीजेपी ने अपनी पूरी ताक़त झोंकी। उनके लिए ये सीट आसान कभी भी नहीं थी लेकिन उसके बावजूद बीजेपी ने अपने एजेंडे को आगे लाकर लड़ाई को टफ बना दिया। सफलता भले न मिली लेकिन बीजेपी को तय करना होगा कि क्या भविष्य में भी उसका चुनावी एजेंडा हिन्दू कार्ड होगा या संगठन के बूते नए मुद्दों को लेकर आगे आएगी। बीजेपी के लिए पीछे मुड़कर अपने आधार सवर्ण वोटरों की तरफ़ देखने की स्थिति है क्योंकि भविष्य में अगर हिन्दू कार्ड फेल हुआ तो साख बची रहे। बिहार बीजेपी ने जिन बैकवर्ड नेताओं को मेन स्ट्रीम में रखा उनसे मोहभंग वाली स्थिति है। संगठन का दमखम और उम्मीदवारों का सही चयन बीजेपी को भभुआ जैसी जीत का स्वाद देने की गारंटी है।

सबसे असमंजस वाली स्थिति जेडीयु के लिए है.. नीतीश कुमार को खुद अपने शासन को उनके द्वारा तय किये गए मानकों पर कसना होगा। लॉ एंड आर्डर और डेवलोपमेन्ट उनकी यूएसपी है, जो हालिया दौर में दरकती दिखी है। तय उन्हें करना होगा कि वो अपनी यूएसपी को कैसे बनाये रखेंगें या पूरी तरह से बीजेपी के बूते चुनावी जीत की आस लगाए बैठे रहेगें।
कांग्रेस अपनी साख पर कुछ बेहतरीन प्रदर्शन जल्द कर पायेगी इसकी उम्मीद मौजूदा स्थितियों से करना बेमानी है। मांझी की उपयोगिता अभी समीक्षा की विषय वस्तु समझिये।
जल्दबाज़ी में फ़िलहाल इतना ही.. संकेत दूर तलक जायेगें, विश्लेषण आगे भी होगा। तब तक जीतने वाले जश्न मनाएं।

नोट – पोस्ट लिखे जाने तक जहानाबाद में आरजेडी और भभुआ में बीजेपी उम्मीदवार जीत चुके थे जबकि अररिया में आरजेडी उम्मीदवार विजयी बढ़त में थे।

(वरिष्ठ पत्रकार शशि भूषण के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)