‘उत्तर प्रदेश का राजा नौजवानों को निराश हताश नही होने देता था’

आप उत्तर प्रदेश के गांव से गुजर रहे हों और दिवार पे “योगी” कोई दावा करें तो यकीन करना ही चाहिए।

New Delhi, Mar 23 : डिब्रूगढ़ राजधानी ” में हूँ। बिहार दिवस के कार्यक्रम में भाग लेने के लिए कटिहार जा रहा हूँ जिलाधिकारी मित्र मिथिलेश जी के नेवता पे।
मेरे आस पास की सीट खाली है। सामने भी कोई नही।
अभी जब मैं ये सोच के बहुत बुझा बुझा सा हूँ कि अपने घर के बहुत करीब जा कर भी बिना घर गए परसों दिल्ली लौट आना है ऐसे में ये भी ठीक ठाक ही संयोग है कि मैं और मेरी तन्हाई के सिवा इधर उधर कोई भी नही।

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मैं खिड़की पे सर टिका गाल पे हाथ धरे कांच के इस पार से बाहर उस पार देख रहा हूँ।
सामने से दादरी, चिपियाना, अजायबपुर, सिकंदरपुर, डावर जैसे छोटे टेशन निकले जा रहे। जिस जिस गांव से गुजर रहा,घर की बाहरी दीवारों पे वैध ओपी योगी छाए हुए हैं। इन दीवारों पे कहीं कोई विराट कोहली,सलमान खान या अक्षय कुमार के विज्ञापन नही, हर तरफ बस वैध ओपी योगी। 50- 50 किलोमीटर तक ओपी ओपी ओपी दिख रहा।
दीवारों पे भरोसे का मंत्र लिखा हुआ है, “कोई भी रोगी निराश न हों”
ऐसे विज्ञापन पे भरोसे का कोई मतलब नही पर इस बार हो रहा है। आप उत्तर प्रदेश के गांव से गुजर रहे हों और दिवार पे “योगी” कोई दावा करें तो यकीन करना ही चाहिए।

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योगी लिख रहे हैं, सुखी वैवाहिक जीवन के लिए संपर्क करें।
मैं सोच रहा हूँ, कोई फाहियान या ह्वेनसांग आज अगर इन रास्तों से गुजर रहा होता तो क्या लिखता?
यही न, इस उत्तर देश का राजा नौजवानों को निराश हताश नही होने देता था। कहीं भी, कभी भी..खाते, पीते, सोते सब जगह की दवा देता था।राजा योगी बहुत प्रतापी था। यूँ तो युगल कबूतरी जोड़ो को उद्यानों,बगीचों से खोज खोज खदेड़ देता था पर यही जोड़े अगर विवाह बंधन में बंध के आते तो उनकी सुख की कामना करता और उन्हें भरपूर आनंदमयी जीवन देने की पवित्र परमार्थी सेवा देने के लिए डिस्पेंसरी खोल खुद इलाज़ के लिए उतर आता था। वो हमेशा केसरिया रंग वाला चोला पहनता था जो रंग भारतीय परंपरा में ऑल रेडी “बल भरने का प्रतीक” माना जाता है।

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इतिहास के कई पन्ने इतिहास में शायद ऐसे ही लिखे जाते रहे होंगे। आज जब हम इतिहास के आईटी सेल लेखन के दौर में हैं तब ऐसे इतिहास लेखन के प्रामाणिक होने की संभावना भयंकर रूप से ज्यादा ही होती।
पटरियों के दोनों ओर गेंहू की फसल जवान हो के खड़ी है।
धरती पे जैसे सुनहले पीले सोने की चादर तान दी गयी हो।
गेहुंमन बालियां दाने से लदीं एक पे एक पीछे से पीठ पर लदक के गिरीं मालुम पड़ रही हैं। कहीं कहीं बीच में खेतों की मेड़ पर एकाध लहकता पलाश दिख जा रहा है।
ये ऐसा लग रहा जैसे पुराने गांव के मेले में कोई नयकी सजी धजी दुल्हन लाल फीता टिकुली खोपा किये तैयार हो खड़ी हो।हमारे घर के पीछे तो पूरा शामियाना ही लाल तान कर बैठा होगा जंगल अभी।
अच्छा, खेतों में सोना उगाने वाले लोग कितने खजाने वाले होंगे न? खेत देख के इसी तरह के मासूम विचार लाने ही चाहियें मन में। तब फिर याद कर लेना चाहिए उसी खेत की मेड़ पर कोई पेड़ और उसमें लटका एक किसान। फिर ये सब आलतू फ़ालतू बात सोचना छोड़ ,मुँह घुमा के सूप पीना चाहिए राजधानी एक्सप्रेस में। फिर भी अगर नासिक से चले किसानों की पांव वाली फटी बिवाई याद आ ही जाए तो कम से कम रात का खाना छोड़ देना चाहिए उस यात्रा में।इतना योगदान दे कुछ शुरुआत तो कर ही लेना चाहिए।

एक खेत दिखा है अभी। उसके ठीक बीच में एक सांड़ खड़ा दिख रहा। ट्रैन की गति तेज़ है इसलिए उसके व्यवहार के अध्ययन के लिए समय नही। पर उसे जिस तरह से खड़ा देख रहा हूँ, या तो भर पेट फसल ठूंस के मन भर खेत रौंद के खड़ा है या फिर इसी की तैयारी में है और पोजिशन बना रहा है दौड़ने का।
ये सांड़ मुम्बई शेयर बाज़ार वाले बिल्डिंग के सामने वाले “बुल” की तरह दिख रहा है। बाजार का सांड़ कैसा होता है और कैसे वो हमे बाजार में रौंद के निकलता रहता है ये इस सांड़ के अदा में देख पा रहा हूँ। अब वो नजरों से ओझल है, ट्रैन दूर निकल आयी है। मेरे देखने न देखने से क्या फर्क पड़ता है।खुल्ला छूटा सांड़ सब कुछ रौंद ही देता है,वो रौंद ही रहा होगा।अब अभी तुरंत तुरंत दो सिपाही मेरे बगल के लोअर साइड सीट पे आ बैठ गए हैं। क्या विडंम्बना है,उधर खुल्लम खुल्ला रौंद सांड़ रहा है और पहरा आम आदमी पे।जय हो।

(नीलोत्पल मृणाल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)