क्यों अलग राज्य बना बिहार ?

बिहार अलग राज्य बने इसका सवाल सबसे जोरदार तरीके से बिहार टाइम्स नामक अंग्रेजी अखबार ने उठाया। जिसके संपादक महेश नारायण थे।

New Delhi, Mar 25 : बिहार, जो मगध साम्राज्य के रूप में एक जमाने में लगभग 650 साल तक देश की राजनीति का केंद्र रहा था। जिस मगध साम्राज्य की सीमा इतनी विस्तृत थी कि बाद के दिनों में हिंदुस्तान की सीमा भी उतना विस्तार नहीं हासिल कर पाई। वह बिहार सूबा अंग्रेजों के राज्य में गुमनाम होकर बंगाल प्रेसिडेंसी का हिस्सा बन गया। इसे लोअर बंगाल कह कर पुकारा जाने लगा। राजधानी कलकत्ता थी, लिहाजा शासन प्रशासन में बंगालियों का प्रभुत्व था। बिहार के सुदूर देहात में तक में कोई शिक्षक भी बनता तो वह बांग्ला भाषी होता। अदालतों में भी काम काज में बांग्ला का बोलबाला था। यह बात यहां के पढ़े-लिखे लोगों को अखरती।

Advertisement

इस भेदभाव के खिलाफ सबसे पहले यहां से छपने वाले उर्दू अखबारों ने आवाज उठाई। 1874 में सबसे पहले एक अखबार ने ब्रिटिश सरकार की अखबारों की नीति पर सवाल किया और कहा कि बिहार के अखबारों को सरकार क्यों नहीं खरीदती। फिर नौकरियों का सवाल सामने आया। 1876 में मुंगेर से छपने वाले एक अखबार मुर्ग-ए-सुलेमान ने पहली बार इस मसले को बिहारी अस्मिता से जोड़ा और लेख का शीर्षक दिया। बिहारियों के लिये बिहार। भाव यह था कि बिहार की नौकरियों में बिहारियों को प्रधानता मिले।
बाद में कई उर्दू अखबार ने यह सवाल उठाया। और हवा बनने लगी। इसका नतीजा यह हुआ कि सरकार को बिहार के इलाके में निम्न पदों पर बिहारियों को नियुक्त करने का फैसला लेना पड़ा। यह शुरुआती जीत थी।

Advertisement

बिहार अलग राज्य बने इसका सवाल सबसे जोरदार तरीके से बिहार टाइम्स नामक अंग्रेजी अखबार ने उठाया। जिसके संपादक महेश नारायण थे। महेश नारायण अद्भुत व्यक्ति थे। इन्हें खड़ी बोली में पहली मुक्त छंद कविता लिखने का गौरव हासिल है। बिहारी अस्मिता को जगाने में इनकी भूमिका अतुलनीय है। इन्हें साथ मिला सच्चिदानंद सिन्हा का जो लंदन से पढ़ाई करके लौटे थे और बिहारी पहचान के गुम होने की वजह से दुःखी रहते थे।
दोनों ने बिहार टाइम्स के जरिये इस सवाल को 1895 के वक़्त में खूब उठाया। दोनों ने एक किताब भी लिखी। इन्हें बिहार के मशहूर अली बंधुओं का भी भरपूर साथ मिला।

Advertisement

उम्मीद थी कि इनकी लड़ाई कामयाब होगी। मगर अंग्रेजों ने बंगाल को 1905 भाषा के बदले धर्म के आधार पर बांटने का फैसला किया। बंग-भंग हुआ। बिहार को बंगाल के साथ ही रखा गया। मगर ये निराश नहीं हुए लड़ते रहे। अपनी आवाज कलकत्ता के सत्ता प्रतिष्ठानों तक पहुंचाते रहे।
इस बीच 1911 में एक बड़ा अवसर उपस्थित हुआ। भारत के वायसराय की काउंसिल में लॉ मेम्बर का पद खाली हुआ। सच्चिदानंद सिन्हा को यह अवसर मुफीद लगा। उन्होंने मशहूर बिहारी वकील अली इमाम से आग्रह किया कि वे इस पद को स्वीकार कर लें। वायसराय की तरफ से उन्हें ऑफर भिजवाया गया।
अली इमाम पहले राजी नहीं थे। इनकी वकालत की जबरदस्त प्रैक्टिस थी। काउंसिल में जाने के बाद इस प्रैक्टिस के नुकसान का खतरा था। मगर सच्चिदानंद सिन्हा ने उन्हें समझाया कि आपने लॉ मेम्बर बनने से Bihar के अलग राज्य बनने की संभावना बढ़ जाएगी। इस बात पर वे मान गए। यही हुआ। उनके मेम्बर बनने के एक साल के भीतर बिहार अलग राज्य बन गया। इसमें उड़ीसा को भी शामिल किया गया।

तीन राजधानियां
जब Bihar और उड़ीसा राज्य बनना तय हुआ तो इसकी राजधानी का सवाल उठा। फिर लोगों ने अखबारों में अलग-अलग इलाकों के प्रस्ताव भेजने शुरू किए। एक प्रस्ताव राजगीर को समर केपिटल बनाने का था। मुंगेर और गया को भी इस नए राज्य की राजधानी बनाने का प्रस्ताव मजबूत तर्क के साथ भेजा गया। एक लेखक ने लिखा कि पटना बहुत धूल-धक्कड़ वाली जगह है, यहां राजधानी नहीं होनी चाहिये।
मगर मुहर पटना के नाम पर लगी, रांची समर कैपिटल बना और यह तय हुआ कि गर्मियों में एक निश्चित अवधि के लिये इस राज्य के प्रशासक लेफ्टिनेंट गवर्नर का पुरी में रहना सुनिश्चित किया गया।

इस पोस्ट के साथ लगी तस्वीर महेश नारायण की है, जिन्होंने बिहार को अलग राज्य बनाने के लिये सबसे जोरदार लड़ाई लड़ी। हालांकि बिहार बनने से पहले ही इनका निधन हो गया। मगर इन्हें इनके साथियों ने आर्किटेक्ट ऑफ बिहार का खिताब दिया है।

(वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)