‘फ़ारूक़ शेख़ को याद करते हुए उर्दू का लफ्ज मुहज्जब ही जुबान पर आता है’

फ़ारूक़ शेख़ के अभिनय के बारे में बात करते हुए आम तौर पर चश्मेबद्दूर, कथा, साथ साथ, नूरी जैसी फ़िल्मों का ज़िक्र ज़्यादा होता है ।

New Delhi, Mar 26 : फ़ारूक़ शेख़ को याद करते हुए उर्दू का लफ़्ज़ मुहज़्ज़ब ही ज़ुबान पर आता है। अच्छे कलाकार से भी कहीं बहुत आगे फ़ारूक़ शेख़ को चंद निजी मुलाक़ातों के आधार पर मैं एक बहुत शालीन, सुसंस्कृत, पढ़े-लिखे और जागरूक व्यक्ति के तौर पर याद करता हूँ। अभी तक याद है कि कनाट प्लेस के कांपिटेंट हाउस में आज तक के दफ़्तर की सीढ़ियाँ उतरते हुए फ़ारूक़ टेलीविज़न पत्रकारों की तनावग्रस्त जीवनशैली के बारे में बात करते रहे थे जबकि उस वक़्त 24 घंटे के चैनल का नामोनिशान नहीं था।

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लखनवी चिकन का सफ़ेद कुर्ता पायजामा पहने फ़ारूक़ शेख़ बहुत सहजता के साथ सड़क किनारे की कार पार्किंग में खड़े बतियाते रहे। बाद में जब आज तक वीडियोकान टावर पहुँच गया और वो वहां एक इंटरव्यू के सिलसिले में आये तो मिलते ही तपाक से मज़ाक़िया अंदाज़ में बोले -देखिये जनाब आप लोग कितनी ऊँचाई पर पहुँच गये और हम हैं कि स्टूडियो के चक्कर ही लगाते फिर रहे हैं। यह कह कर अपनी जानी पहचानी हँसी हंस दिये।
जितने सहज इंसान, उतने ही सहज अभिनेता।

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फ़ारूक़ शेख़ के अभिनय के बारे में बात करते हुए आम तौर पर चश्मेबद्दूर, कथा, साथ साथ, नूरी जैसी फ़िल्मों का ज़िक्र ज़्यादा होता है । लेकिन गमन और बाज़ार उनकी ऐसी फ़िल्में हैं जिनकी विषयवस्तु सार्वभौमिक और सार्वकालिक है-ग़रीबी और गाँवों से शहरों की ओर जारी पलायन जहाँ वापस लौटने की गुंजायश वक़्त के साथ लगातार कम होती जाती है। किरदार को अंडरप्ले करने के लिए लोग बलराज साहनी, अशोक कुमार, मोतीलाल और संजीव कुमार का नाम ज़्यादा लेते हैं। लेकिन गमन में उत्तर प्रदेश के एक गाँव से रोज़गार की तलाश में मुंबई पहुँच कर टैक्सी ड्राइवर बन गये ग़ुलाम हुसैन का किरदार फ़ारूक़ ने अद्भुत सहजता से निभाया है। सुरेश वाडकर की गाई ग़ज़ल सीने में जलन, आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है शहरी भागदौड़ में फँसी ज़िंदगी का ऐसा बयान है जो कल भी सच था, आज भी सच है और कल भी सच रहेगा।

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बाज़ार में उनका कहा एक संवाद अब तक याद है-इतनी नफ़रत हो गई अपनी ग़रीबी से कि बेटी का सौदा कर दिये?
गमन मुज़फ़्फ़र अली की भी बेहतरीन फ़िल्म है । जलाल आग़ा ने भी क्या ख़ूब काम किया था। जलाल आग़ा प्रतिभाशाली अभिनेता थे लेकिन क़िस्मत ने साथ नहीं दिया। शोले के महबूबा-महबूबा गाने में हेलेन के साथ दिखने वाले जलाल आग़ा के बारे में शायद ज़्यादा लोगों को याद न हो कि ख्वाजा अहमद अब्बास की सात हिंदुस्तानी में अमिताभ बच्चन के साथ नज़र आये थे।
ये जवानी है दीवानी में फ़ारूक़ शेख़ रनबीर कपूर के पिता के रोल में थे। जवान बेटे से संवादहीनता की कशमकश को अपनी आंखों के सूनेपन से उन्होंने बहुत असरदार तरीक़े से ज़ाहिर किया था।

(वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)