‘काश लालू यादव ने धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के साथ ईमानदारी की राजनीति भी की होती’

भारत का वोटर समय आने पर तय करेगा कि सेकुलरिज़्म का नैतिक छाता लगाए लालू यादव उसके हीरो हैं या फिर भ्रष्टाचार की कालिख में पुते परिवार का मुखिया उनका विलेन है।

New Delhi, Mar 31 : भारत भावुकता प्रधान देश है। ऐसा नहीं कि मुझे इसकी ये बात पसंद नहीं, लेकिन इस गुण के अपने नुकसान हैं। डेढ़ साल की इमरजेंसी में त्राहिमाम करने वाले देश ने जब इंदिरा को जेल जाते देखा तो अगले चुनाव में उन पर इतना तरस बरसाया कि 189 सीटों से कांग्रेस 1980 में 374 सीटों पर जा पहुंची। फैक्टर और भी थे लेकिन शक्तिशाली इंदिरा को लाचार इंदिरा में तब्दील होने को जनता बर्दाश्त नहीं कर सकी।
ऐसा ही कुछ भाव दो दिनों से ट्रेन में बीमार लालू यादव की फोटो देखे जाने के बाद पैदा हुआ है। उन्हें भ्रष्टाचार के मामलों में जेल की सजा सुनाई गई है। लालू के अनुयायी इन सज़ाओं को दो प्रकार से काउंटर कर रहे हैं। एक तो ये कह कर कि लालू को उनकी जाति की वजह से फंसा दिया गया, दूसरा ये कह कर कि इससे बड़े मामलों में लोग आज़ाद घूम रहे हैं तो फिर लालू पर फैसले कैसे आ गए…
कोई इंसाफ की लाख दुहाई दे लेकिन अगर ये भाव जमता चला गया तो अगले चुनाव में नीतीश कुमार इन अदालती आदेशों की आंच में खूब झुलसेंगे।

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आंकड़ों की मान लें तो साल 2009 में लालू प्रसाद यादव की संपत्ति 3 करोड़ 21 लाख रुपए थी। राबड़ी देवी ने 2014 के चुनावी हलफनामे में अपनी संपत्ति खुद ही 7 करोड़ 53 लाख घोषित की थी। तेज़ प्रताप यादव ने 2015 के चुनाव में अपनी कुल संपत्ति 2 करोड़ 1 लाख और उसके बाद 2017 में 3 करोड़ बताई थी। सीधा सा मतलब निकाल लीजिए। दो साल में एक करोड़ रुपए की बढ़ोतरी। इसके अलावा उनके पास एक बीएमडब्लू कार और 15 लाख की एक मोटर बाइक भी है। उनके भाई तेजस्वी यादव ने भी 2015 में ही बताया था कि उनके पास कुल संपत्ति 2 करोड़ 32 लाख है लेकिन 2017 में वो घटकर डेढ़ करोड़ रुपए ही रह गई। बहन मीसा भारती ने 2016 के राज्यसभा चुनाव के दौरान घोषित किया था कि उनके पास 83 लाख की संपत्ति है। ये सारी संपत्ति वो है जिसे घोषित किया गया है। समाजसेवा में जुटे इस परिवार के करोड़पति बन जाने पर आप सवाल नहीं खड़ा कर सकते। आखिर उन्होंने कानूनन अपने करोड़पति बन जाने को सही साबित किया है। ये और बात है कि जिस बिहार पर राज करके उनका बेटा बेटी तक लखपति और करोड़पति हो गए उसी बिहार की आम जनता अभी भी रोज़गार के लिए पलायन करने को मजबूर है। खैर, इस बहस में नहीं जाते।

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हाल ही में लालू परिवार के ऊपर अवसरवादी राजनीति के नए अवतार सुशील कुमार मोदी ने ज़मीन की खऱीद फरोख्त में घपले के इल्ज़ाम लगाए। कोई भी अगर इस घपले की पेचीदगियां गंभीरता से समझने की कोशिश करे तो आसानी से यकीन हो जाता है कि ये सभी वैसे ही घपले हैं जैसे अक्सर इस देश में बड़े लोग करते ही रहते हैं। आप इन घपलों की बात कीजिए तो लालू समर्थक तुरंत कहेंगे कि ये सब झूठ है और मामला कोर्ट में है। यही समर्थक तब अदालती फैसलों पर सवाल खड़ा करेंगे जब आप उन्हें चारा घोटाले की सज़ा याद दिलाएंगे। प्रेम चंद गुप्ता की डिलाइट मार्केटिंग कंपनी, ओम प्रकाश कत्याल की एके इनफो सिस्टम प्राइवेट लिमिटेड, अशोक कुमार बंटिया की एबी एक्सपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड और फेयर ग्रो होल्डिंग प्राइवेट लिमिटेड जैसी कंपनियों ने दस साल में कोई कारोबार नहीं किया मगर इनके पास करोड़ों की ज़मीन है।

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असली प्रमोटर कंपनियों से बाहर हो चुके हैं पर अब इनके सौ प्रतिशत शेयर लालू के परिवार के पास हैं। कई व्यापारी अपनी करोड़ों की संपत्ति इस परिवार को गिफ्ट में दे रहे हैं और बाद में धड़ल्ले से मंत्री जा बनते हैं। सुशील कुमार मोदी ने जो कागज़ात पेश किए हैं वो झूठे तो नहीं ही लगते, भले इसके पीछे चुनावी रंज़िश ही हो। भारत का वोटर समय आने पर तय करेगा कि सेकुलरिज़्म का नैतिक छाता लगाए लालू उसके हीरो हैं या फिर भ्रष्टाचार की कालिख में पुते परिवार का मुखिया उनका विलेन है, मगर इस सबके बीच अफसोस ज़रूर कीजिए कि देश का सेकुलरिज़्म कैसे हाथों में है। लालू सेक्युलर भले हों मगर इसका मतलब ये नहीं कि वो बेईमान नहीं हो सकते, और बेइमानी की सज़ा तब भी मिल सकती है जब देश नफरत की आंधी में घिरा हो और सियासत को उन जैसों की सबसे ज्यादा ज़रूरत है। काश लालू ने धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के साथ ईमानदारी की राजनीति भी की होती।
(मुझे पिछड़े और दलितों का दुश्मन ठहराए जाने का स्वागत है। सेक्युलरिज़्म का शत्रु घोषित कीजिए। छिपा संघी या सवर्णवादी बताइए।)

(टीवी पत्रकार नितिन ठाकुर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)