राजनीति नहीं, सार्थक पहल हो, दलित आखिर खुद को अलग-थलग क्यों पाते हैं?- Upendra Rai

ये विरोध प्रदर्शन गुस्से का इजहार था, उन लोगों के खिलाफ, जो दलितों को दलित बनाए रखने के लिए जिम्मेदार रहे हैं। 

New Delhi, Apr 09 : असंतोष से उपजी दलित आंदोलन की आग अभी बुझी नहीं है। आग दब गई है, लेकिन सुलग रही है। अब राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए इसे हवा देकर भड़काया जा सकता है। 2 अप्रैल के बाद राजनीतिक गलियारों से उठता धुआं ऐसी ही आशंकाओं को जन्म दे रहा है। इसे ‘‘दलित हित’ का नाम दिया जा रहा है। पर, पहला सवाल तो यही है कि अगर सभी राजनीतिक दल दलितों के हित के लिए लड़ रहे हैं, तो एक दूसरे के खिलाफ तलवारें क्यों भांज रहे हैं? अगर सभी दल दलितों के मसीहा हैं, तो इस समाज को सड़कों पर उतरना ही क्यों पड़ा? ये सियासी मसीहाई दलितों को अब तक उनका हक क्यों नहीं दे सकी? सबसे बड़ा सवाल, कि क्या अब उनकी हालत में कोई फर्क आ जाएगा? हिन्दुस्तान में दलितों ने कभी बंद बुलाया हो, ऐसा पहली बार हुआ। उनके किसी विरोध ने हिंसा का रूप ले लिया हो, ऐसा भी पहली बार हुआ। यह बंद दलितों का, दलितों के लिए, दलितों द्वारा था। हालांकि, बंद सुप्रीम अदालत के एक फैसले के खिलाफ था, लेकिन वास्तव में इसमें केन्द्र सरकार के खिलाफ असंतोष का प्रदर्शन था। गुस्से का इजहार था, उन लोगों के खिलाफ, जो दलितों को दलित बनाए रखने के लिए जिम्मेदार रहे हैं।

Advertisement

20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया था, उसमें महज बेगुनाहों का उत्पीड़न न किए जाने की बात कही गई थी। कोर्ट ने कहा कि स्वत: एफआईआर और तत्काल गिरफ्तारी के बजाय प्राथमिक जांच के बाद ही गिरफ्तारी की जाए। अपने फैसले में अदालत ने अग्रिम जमानत का रास्ता भी साफ कर दिया, जो पहले नहीं था। गौरतलब है कि एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 के दुरु पयोग की शिकायत पर यह फैसला सुनाया गया था। लेकिन सोशल मीडिया पर फैसले की आलोचना शुरू हो गई। हालांकि, शुरु आती जांच रिपोर्ट से यह भी स्पष्ट हो गया कि इस आंदोलन के पीछे कोई राजनीतिक दल या संगठन नहीं था। लेकिन सोशल मीडिया पर आंदोलन आगे बढ़ता रहा और इसी मंच पर 2 अप्रैल का ‘‘भारत बंद’ तय हो गया। इसके बाद जो कुछ हुआ, वह चिंताजनक है।पूरे उत्तर भारत में हिंसा हुई। हिंसा में अरबों रु पये की संपत्ति का नुकसान हुआ। इन मामलों में करीब दर्जन भर लोग मारे गए और हजारों गिरफ्तार किए गए। मोबाइल इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गई। परीक्षाएं रद्द करनी पड़ीं। प्रतिक्रिया में दूसरे दिन राजस्थान के करौली में एक बीजेपी विधायक और एक पूर्व कांग्रेसी मंत्री के घर फूंक दिए गए।

Advertisement

मामला तूल पकड़ने के बाद केन्द्र सरकार ने पुनर्विचार याचिका डाली और आदेश वापस लेने की जरूरत बताई। अटॉर्नी जनरल ने अदालत में कहा कि सरकार इस मामले में अग्रिम जमानत के खिलाफ है। और यह भी, कि एफआईआर के बाद तत्काल गिरफ्तारी के लिए जांच की जरूरत नहीं है।लेकिन इससे पहले सरकार की तरफ से कोर्ट में कहा गया था कि इस एक्ट के तहत काफी मामले झूठे पाए जाते हैं, और अधिकांश में आरोप सिद्ध नहीं होते। सरकार ने इसके लिए आंकड़े दिए थे। यानी पुनर्विचार याचिका का मतलब था अपने ही स्टैंड से पीछे हटना। कोर्ट ने इस याचिका को नकार दिया, लेकिन एक अन्य याचिका पर विस्तार से सुनवाई के लिए अगले हफ्ते का समय तय कर दिया।बहरहाल, गलती सुधारी जाती है। केन्द्र सरकार ने यह पहल की। यह काबिले तारीफ है। मगर, दलितों को विास में लेते हुए अगर ये काम किया जाता तो बड़े नुकसान से बचा जा सकता था। इसका एक रास्ता अध्यादेश हो सकता था। तब शायद यह नौबत न आती, जिससे केंद्र और राज्य सरकारों को गुजरना पड़ा।जो भी हो, संकेत अच्छे नहीं हैं। क्योंकि शान्तिपूर्ण आंदोलनों पर सरकार ध्यान नहीं देती। जंतर-मंतर के धरने से लेकर मुंबई मार्च तक किसानों के आंदोलन इसके गवाह हैं। लेकिन जाटों के आक्रोश ने आंदोलन का रूप लिया, तो सरकारों ने कान खोल लिए। यानी, आंदोलन हिंसा का पर्याय बन जाए तो सरकार सक्रिय हो जाती है।

Advertisement

दलित आखिर खुद को अलग-थलग क्यों पाते हैं? उन्हें क्यों ऐसा लगा कि केन्द्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट उनके लिए सही नहीं सोच रहे हैं? इसकी तह में जाना होगा। दरअसल, देश में राजनीतिक सवालों को भी हल करने की जिम्मेदारी राजनीतिक दल अपने कंधों पर लेने को तैयार नहीं हैं। इसलिए अदालतों को ये काम भी करना पड़ रहा है। अदालत के लिए कोई पक्ष और विपक्ष नहीं होता है। लेकिन जब राजनीतिक मुदेदों को अदालत छुएगी तो अनचाहे ही पक्ष-विपक्ष भी तैयार होगा। अगर एक्ट का दुरु पयोग हो रहा है और व्यापक पैमाने पर हो रहा है, तो यह बात सरकार के संज्ञान में पहले आनी चाहिए और उसे कानून में खुद संशोधन करने चाहिए।दलितों का आंदोलन उनकी बेचैनी का एक उदाहरण है। जिस तरह पिछले कुछ वर्षो में दलितों पर अत्याचार की खबरें आई हैं, खास कर पिछले दिनों जिस तरह जगह-जगह अम्बेडकर की प्रतिमाएं तोड़ी गई हैं, उसने दलितों में असुरक्षा की भावना बढ़ाई है। यही असुरक्षा प्रतिक्रियात्मक रूप में आक्रोश में बदल गई। दलित उद्वेलित हो उठे।पंजाब को छोड़ दें, तो केंद्र से लेकर हिंसा प्रभावित सभी राज्यों में बीजेपी की सरकारें हैं। इसलिए इस क्रिया और प्रतिक्रिया का खमियाजा भी बीजेपी को ज्यादा भुगतना पड़ सकता है। गौर करने की बात ये भी है कि दलितों के इस आंदोलन में सरकार तो कठघरे में थी, लेकिन दलितों ने किसी विपक्षी राजनीतिक दल का साथ भी कबूल नहीं किया।यह बिजली तब गिरी है, जब 2019 को ध्यान में रखते हुए बीजेपी और आरएसएस दलितों के बीच पैठ बनाने की कोशिशों में व्यस्त थे। 14 अप्रैल से संघ का सामाजिक समरसता अभियान तय था। इसलिए सारे मामले ने बीजेपी खेमे में बेचैनी बढ़ा दी है। अब डैमेज कंट्रोल की कोशिशें शुरू हो गई हैं। एक तरफ कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अपने अपने धरने और उपवास घोषित कर दिए हैं, तो दूसरी तरफ, बीजेपी ने भी ज्योतिबा फुले जयंती मनाने और ग्राम स्वराज अभियान के तहत 20,000 दलित बहुल गांवों में डेरा डालने का ऐलान कर दिया है।प्रसंगवश, देश में करीब 24 प्रतिशत एससी-एसटी हैं, जिनकी तादाद करीब 25 करोड़ होती है। राजनीतिक रूप से 543 लोक सभा सीटों में से 150 से ज्यादा सीटों पर एससी-एसटी का प्रभाव है। इसलिए सत्ता और विपक्ष ने हिंसा के लिए एक दूसरे के सिर ठीकरा फोड़ने का प्रयास शुरू कर दिया है। विपक्ष कह रहा है कि बीजेपी सरकार एससी एसटी एक्ट को हल्का करना चाहती है और आरक्षण खत्म करना चाहती है। तो सरकार कह रही है कि उसने एक्ट भी सख्त किया है और आरक्षण भी खत्म नहीं किया जाएगा। दोनों ओर से दलितों का हिमायती होने का दावा किया जा रहा है। नजर 2019 पर है। इसीलिए आशंकाएं भी हैं। फूंक-फूंक कर आग बुझाई नहीं जा सकती, बल्कि वह भड़क सकती है। सरकार और समाज को सतर्क रहने की जरूरत है। ऐसे में राजनीति के बजाय सार्थक पहल की जरूरत है।

(वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र राय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)