विचारों से काटकर आंबेडकर को देवता बनाने की राजनीतिक साजिश !

राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया की चुनौतियों को संबोधित करने में आज आंबेडकर के विचार-दर्शन को अहमियत नहीं दी जा रही है।

New Delhi, Apr 18 : भारत के एक राष्ट्र बनने की प्रक्रिया की बड़ी मुश्किलों और चुनौतियों का जितना गहन अध्ययन किया, बाबा साहेब डा. भीमराव आंबेडकर ने किया है, उतना शायद और किसी ने नहीं किया! इसका बड़ा कारण है कि वह अपने समकालीन सभी बड़े भारतीय विचारकों और राजनीतिक नेताओं के बीच विचार के स्तर पर सबसे सुसंगत और अध्ययन की पद्धति के स्तर पर सर्वाधिक वैज्ञानिक हैं। वह समस्याओं को मनोगत ढंग से देखने की बजाय उन्हें ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। सन् 1930 से 47 के दौर में वह अकेले भारतीय विचारक नजर आते हैं, जो जाति-वर्ण को भारत के भावी राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया के लिए सबसे बड़ी बाधा मानता है। कांग्रेस और स्वाधीनता आंदोलन के अन्य बड़े नेताओं-गांधी, नेहरू या सुभाष बोस, किसी का भी ध्यान इस पहलू की तरफ नहीं जाता! तब आंबेडकर के उन विचारों को महत्व नहीं दिया गया। पर आजाद-भारत के सत्तर साल के दरम्यान अब यह साबित हो चुका है कि आंबेडकर बिल्कुल सही थे। बड़े समाजशास्त्री भी मान रहे हैं कि जाति-वर्ण ने किस तरह भारतीय राष्ट्र की विकास प्रक्रिया को प्रभावित किया है! यही कारण है कि आधुनिक भारतीय राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया के संदर्भ में आंबेडकर विचार-दर्शन आज सबसे अहम् बनकर उभरा है।

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दुखद है कि राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया की चुनौतियों को संबोधित करने में आज आंबेडकर के विचार-दर्शन को अहमियत नहीं दी जा रही है। उनके कहे और लिखे को बेमतलब बना दिया गया है। पर उन्हें ‘भगवान’ जरूर बनाया जा रहा है! उनकी जयंती 14 अप्रैल को सरकार के उच्च स्तर से बताया गया कि ‘आंबेडकर पंचतीर्थ योजना’ बन रही है, जिसके तहत बाबा साहेब के पांच प्रमुख स्मृति चिन्हों को जोड़ा जायेगा ताकि दर्शनार्थी वहां आसानी से पहुंच सकें! शासन डा. आंबेडकर के नाम पर’ पंचतीर्थ’ बना रहा है, कई बडे-बड़े भवन बने हैं लेकिन उनकी किताबों और विचारों को लोगों से दूर ही रखा जा रहा है। बाबा साहेब के 127वीं जयंती-वर्ष में भी आंबेडकर साहित्य को शासकीय स्तर पर नहीं छापा गया। आंबेडकर साहित्य के सभी सत्रह खंड इस वक्त ‘आउट आफ प्रिन्ट’ हैं। आंबेडकर फाउंडेशन के प्रशासन ने सिर्फ इतना सा किया है कि वे सभी खंड अब आनलाइन उपलब्ध हैं। मजे की बात है कि एक समय जिस धारा के प्रतिनिधियों ने आंबेडकर को ‘आत्म केंद्रित, गैर-देशभक्त और सत्ता-लोलुप राष्ट्रद्रोही’ कहा था, वही धारा आज उन पर सर्वाधिक फूल-माला चढा रही है!

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लोगों और समाज को आंबेडकर विचार-दर्शन से दूर रखने की एक बड़ी वजह है, उनके क्रांतिकारी विचार! आंबेडकर जाति और वर्ण के खात्मे के पक्ष मे थे। वह शिक्षा का सबको समान अधिकार चाहते थे। वह महिलाओं के व्यापक अधिकार के प्रवक्ता बने। पर उनके ‘हिन्दू कोड बिल’ को रोक दिया गया। वह उसी दौर में पिछड़ों के आरक्षण के प्रबल समर्थक थे। पर उस प्रक्रिया को शुरू नहीं किया गया, जिसकी संविधान के अनुच्छेद-340 के तहत पहल की जानी चाहिए थी। कानून मंत्री के रूप में उन्हें समाज में जरूरी कुछ बुनियादी सुधारों को भी आगे बढ़ाने नहीं दिया जा रहा था। इन्हीं वजहों से बाबा साहेब ने नेहरू कैबिनेट से इस्तीफा दे दिय़ा ।

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आज के दौर में जिस ‘हिन्दुत्वा’ का नाम बार-बार आता है, उसे वह देश के निर्माण और विकास में बहुत बड़ी बाधा मानते थे। उऩके मुताबिक हिन्दूवाद और कुछ भी नहीं है, यह जातियों का समुच्चय है, गैर-बराबरी और उत्पीड़न का विचार है। जब तक यह विचार रहेगा, भारत एक राष्ट्र के रूप में विकसित नहीं हो सकता। उन्होंने साफ शब्दों में कहा, ‘जाति यानी वर्ण व्यवस्था समाज-विरोधी है। वह राष्ट्र के निर्माँण में बाधक है। उसे जारी रखते हुए भारत को राष्ट्र के रूप में विकसित नहीं किया जा सकता।'(एनिहिलियेशन आफ कास्ट)। साथ में यह भी जोड़ा कि जब तक हिन्दूइज्म है, जाति है। जाति के बगैर हिन्दूइज्म कुछ भी नहीं! वह हिन्दू धर्म को ब्राह्मणवादी विचार पद्धति या ब्राह्नमण धर्म का नया नाम मानते थे। उन्होंने कई स्थानों पर लिखा है कि हिन्दू धर्म जैसा कोई धर्म नहीं है। यह शब्द बाद के दिनों में बाहर से आये लोगों ने दिया। ‘सिन्धु’ को ‘हिन्दू’ के रूप में उच्चरित करने की वजह से यह नामकरण सामने आया। वस्तुतः यह ब्राह्मण धर्म है। यही कारण है कि वेदों-उपनिषदों में कहीं भी हिन्दू जैसे धर्म की चर्चा नहीं आई है। इस धर्म में समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के लिए कोई जगह नहीं है। यही कारण है कि यह राष्ट्र और लोकतंत्र जैसी आधुनिक धारणा के ठीक उलट है। जाति-विभाजन इसका मुख्य आधार है।

उनके विचारों से सत्ता-संचालकों और नौकरशाही समेत पूरी व्यवस्था को परहेज है। पर किसी भी दल या सरकार के लिए आज उन्हें नजरंदाज करना संभव नहीं क्योंकि उनके नाम और काम के साथ दलित-बहुजन समाज की बड़ी आबादी जुड़ी हुई है। संभवतः इसीलिए आंबेडकर को आज शासक दल और चुनावी-राजनीति के अन्य प्रमुख दलों में आंबेडकर को ‘देवता’ बनाने की होड़ मची हुई है। वे ‘देवता-विरोधी’ आंबेडकर को ‘देवता’ बना रहे हैं पर उनके विचारों का प्रचार-प्रसार नहीं चाहते। उनके विचारों को काटकर सिर्फ उनकी मूर्ति या उनके नाम पर भव्य़ इमारतें बना रहे हैं, ठीक वैसे ही जैसे एक समय हमारे समाज में बुद्ध के साथ हुआ। उन्हें देवता बना दिया गया पर उनके विचारों और उनके ‘धम्म’ को दबा दिया गया।

(वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश के ब्लॉग से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)