गहरे संकट में है भारतीय न्यायपालिका की साखः बचाने के रास्ते भी हैं !

न्यायपालिका : चार वरिष्ठ न्यायाधीशों के उक्त पत्र से भी पता चलता है कि हमारी न्यायिक व्यवस्था का संकट कितना गहरा है।

New Delhi, Apr 30 : हमारी न्यायपालिका पर इस देश के करोड़ों लोगों का गहरा भरोसा रहा है। व्यवस्था के अन्य मंचों से जब उन्हें निराशा होती है या न्याय नहीं मिलता तो वे न्यायालयों का दरवाजा खटखटाते हैं। न्याय की प्रक्रिया चूंकि महंगी है, इसलिए सबके लिए न्यायालयों , खासकर शीर्ष अदालतों तक जाना आसान नहीं होता। पर आम आदमी भी जरूरत पड़ने पर न्याय के लिए शीर्ष अदालतों का दरवाजा खटखटाने से नहीं चूकता। इसके लिए लोग अपना खेत, जमीन-जायदाद, आभूषण तक बेच देते हैं। भारतीय गांवों में ऐसी अनेक कहानियां मिलेंगी, जब लोगों ने न्याय पाने के लिए अपनी जमीन-जायदाद बेच दी। ऐसे में अगर लोगों को न्यायालयों से भी न्याय न मिले या न्यायिक व्यवस्था की विश्वसनीयता लगातार गिरने लगे तो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के संकट की कल्पना की जा सकती है कि यह कितनी भयावह स्थिति है!

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आजादी के बाद भारत में यह दूसरा मौका है, जब न्यायपालिका के अंदर से ही न्याय का संकट दिख रहा है। पहली बार सन् 1975-77 के दौर में इमर्जेन्सी राज में दिखा था। वह 21 महीने का दौर था। उन दिनों मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्र था। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ए एन रे के कई फैसलों और कदमों से देश में न्यायिक व्यवस्था को लेकर गहरी निराशा छा गई थी। आज भी कुछ वैसा ही माहौल है। लेकिन तब और अब में एक बड़ा अंतर इतना भी है। आज आम जनता या सिविल सोसायटी की बात तो दूर रही, स्वयं न्यायालय के अंदर यानी माननीय न्यायाधीशों के स्तर से भी इस प्रवृत्ति के खिलाफ आवाजें उठ रही हैं। चार महीने पहले सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने जस्टिस जे चेलमेश्वर की अगुवाई में साझा प्रेस कांफ्रेंस करके न्यायिक व्यवस्था के गहराते संकट पर अपनी नाराजगी जाहिर की थी। तीन अन्य न्यायाधीश थे, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई, जस्टिस मदन बी लोकुर और जस्टिस के जोसेफ। उन्होने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा को इस बाबत लंबा पत्र भी भेजा, जिसमें दर्ज तथ्य मीडिया में सार्वजनिक हो गये।

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चार वरिष्ठ न्यायाधीशों के उक्त पत्र से भी पता चलता है कि हमारी न्यायिक व्यवस्था का संकट कितना गहरा है। लेकिन इस लेख में हम उन संकटों के ब्योरे में नहीं जायेंगे, यहां हम संकट के मूल कारणों को सामने लाने की कोशिश करेंगे। अभी ताजा विवाद उठा है, सुप्रीम कोर्ट में नये न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर। सु्प्रीम कोर्ट के कोलिजियम ने नये जजों की नियुक्ति के लिए सरकार के समक्ष दो नामों की सूची भेजी थी। इनमें एक नाम था उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के एम जोसेफ का नाम और दूसरा था सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता इंदु मल्होत्रा का नाम। सरकार ने एडवोकेट मल्होत्रा का नाम मंजूर कर लिया और वह अब सु्प्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के तौर पर बाकायदा काम कर रही हैं। लेकिन कोलिजियम द्वारा प्रस्तावित दूसरे नाम जस्टिस जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट में आने से रोकने पर मोदी सरकार आमादा है। कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद तो खुलेआम बयान दे चुके हैं कि जस्टिस जोसेफ का नाम सुप्रीम कोर्ट के लिए सरकार हरगिज मंजूर नहीं करेगी।

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कानून मंत्री के इस बयान का क्या मतलब है? मौजूदा कोलिजियम व्यवस्था से जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया में कोलिजियम का प्रस्ताव ही निर्णायक होता है। सरकार को उसे मंजूर करना होता है। सरकार चाहे तो कोलिजियम द्वारा प्रस्तावित नाम या नामों को अपनी आपत्ति जताते हुए फिर से वापस भेज सकती है। लेकिन कोलिजियम अगर दूसरी बार भी उसी या उन्हीं नामों को भेजता है तो सरकार के पास विकल्प नहीं बचता। सरकार को अपनी आपत्ति वापस लेनी पड़ती है और कोलिजियम के प्रस्ताव पर मंजूरी की मुहर लगानी पड़ती है। पर मौजूदा सरकार पहले ही कह चुकी है कि वह जस्टिस जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट में नहीं देखना चाहती! ऐसे में अगर कोलिजियम फिर से उनका नाम भेजता है तो सरकार सिर्फ यही कर सकती है कि वह जस्टिस जोसेफ की नियुक्ति सम्बन्धी फाइल पर बैठ जाय और उसे भेजे ही नहीं! जाहिर शासकीय प्रक्रिया में यह एक शर्मनाक स्थिति होगी। सरकार के हाल के अनेक फैसलों से एक बात आईने की तरह साफ है कि मौजूदा मोदी सरकार न्यायपालिका में ऐसे लोगों को उच्च पदों पर हरगिज नहीं आने देना चाहती जो स्वतंत्र सोच के हों, अतीत में उनके किसी फैसले से उसके नेता नाराज हुए हों या कोई व्यक्ति विशेष वैचारिक कारणों से उसे नापसंद हों!

जस्टिस जोसेफ से मोदी सरकार की नाराजगी जगजाहिर है। उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के तौर पर उन्हीं की अगुवाई वाली पीठ ने राज्य में तत्कालीन हरीश रावत सरकार को अपदस्थ कर राष्ट्रपति शासन लगाने के केंद्र के फैसले को असंवैधानिक करार दिया था। इससे तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से ज्यादा मोदी सरकार की भद्द पिटी थी। क्योंकि यह बात सबको मालूम थी कि राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए मोदी सरकार ने राष्ट्रपति भवन पर दबाव डाला। वैसे भी ऐसी स्थितियों में आम तौर पर राष्ट्रपति अपने मंत्रिमंडल की राय को अंततः मान लेता है। उसी समय से केंद्र की मौजूदा सरकार जस्टिस जोसेफ से खफा है। लेेकिन क्या जजों की नियुक्ति में किसी के निजी तौर पर नाराज होने या उक्त जज के किसी फैसले के राजनीतिक नफा-नुकसान को आधार बनाया जा सकता है? पर हमारी शासकीय संस्कृति में आज यह सब खुलेआम हो रहा है।

ऐसे में क्यों न समाज, सरकार, संसद, न्यायिक जगत और बड़े न्यायविद् उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को ज्यादा सुसंगत, पारदर्शी और वस्तुगत बनाने पर विचार करें! आखिर जजों की नियुक्ति कब तक जज करते रहेंगे? उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को क्यों न आम-हिस्सेदारी के लिए खोला जाय? इसके लिए उच्च न्यायिक प्रतियोगी परीक्षा जैसे तंत्र की स्थापना की जा सकती है। न्यायिक मामलों के वरिष्ठ जानकारों, जिला स्तरीय अदालतों के जजों और योग्य अधिवक्ताओं के लिए इससे अपनी योग्यता आजमाने और उच्च न्यायपालिका तक पहुंचने का अवसर मिलेगा। चूंकि भारत की उच्च न्यायपालिका में दलित-अदिवासी-ओबीसी नगण्य हैं, इसलिए ऐसी परीक्षा से जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में आरक्षण जैसी’सकारात्मक कार्रवाई’ के लिए भी प्रावधान किये जा सकते हैं। इससे न्यायपालिका में व्याप्त कई तरह के संकट का समाधान ही नहींं होगा, वह पहले से ज्यादा सुंसगत और स्वतंत्र होगी। न्याय-व्यवस्था पर लोगों का भरोसा बढ़ेगा। तब ये सवाल भी नहीं उठेंगे कि अमुक पार्टी ने अपने शासनकाल में अपनी पसंद या अपने नेताओं के परिजनों को न्यायाधीश बनवा दिया या कि किसी खास परिवार या खानदान से समय-समय पर इतने सारे लोग जज कैसे बन जाते हैं? क्या हमारे न्यायविद् और कानून बनाने वाले सांसद इस बारे में विचार करने के लिए तैयार हैं? अगर नहीं तो माफ कीजिये, भारत की उच्च न्यायपालिका में ऐसं संकट पैदा होते रहेंगे और हम सब उसे खामोश देखते रहने के लिए अभिशप्त होंगे!

(वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश के ब्लॉग से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)