बिगड़े सांड की प्रेम कथा

आजकल सांड शांत रहने लगा था। उसकी टोका-टाकी, टीका-टिप्पणी थोड़ी कम थी। अब कोई कुछ भी लेकर जाता हो वो ध्यान नहीं देता था।

New Delhi, May 07 : मुझे मालूम है आप लोग शीर्षक पढ़ कर मुझे पागल करार दे सकते हैं। पर मैं जोखिम उठाने को तैयार हूं। इसके अलावा कोई चारा नहीं है। न मेरे पास ना ही उस सांड के पास जिसकी पीड़ा ने मुझे ये लिखने को मजबूर कर दिया है। मेरे मुहल्ले में एक बिदकहा सांड़ अक्सर तफरी करता पाया जाता था। उसे जाने की कहीं मनाही न थी। जहां चाहो आओ, जहां चाहो जाओ, जहां मन अइंठ (ऐंठ) के बैठ जाओ…। कोई दिक्कत नहीं। अ दिक्कत हो गई तो भी क्या? रमई यादो को हो गई थी एक-आध पर पानी फेंके। बड़े दिलवाला सांड़ था माफ कर दिया, लेकिन एक और दिन जब ऐसे ही रमई यादो ने पानी फेंका तो सांड ने “भय बिनु होई न प्रीत” के मूल मंत्र को जपते फुंफकार मारते रमई यादो को लपेट दिया। वो दिन था और आज का दिन है रमई रोज गेंदे की माला खरीदते हैं। सांड जी महाराज को पहिले पहिनाते हैं फिर चाय की दुकान खोलते हैं।

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इसमें कोई दो राय नहीं कि हेकड़ी उस सांड में कहीं ज्यादा थी। बोरा देखते ही बमककर उसे तब तक सींग मारता जबतक उसके भीतर भरी सामग्री को सड़क पर, गली में तार-तार न कर देता। इसी चक्कर में बरसात के दिन में बोरा ओढ़कर भागते बुधराम भी सांड जी महोदय का आशीर्वाद प्राप्त कर कई दिनों तक शिव प्रसाद गुप्त अस्पताल में स्वास्थ्य लाभ किए। एक किस्सा और है छोटा सा, घाटिया गाइड बनारसी बनर्जी गंगा स्नान कर घर लौट रहे थे रास्ते में हिरमाना (तरबूज) खरीद सिर पे रख लिया। रिक्शे से उतर के पइसा को लेकर रिक्शेवाले से बकझक कर ही रहे थे कि कृपालु सांड जी का पदार्पण हुआ। बनर्जी और सांड की नज़रें टकराईं। रिक्शे वाला उछलकर किनारे खड़ा हुआ। अब बस बनर्जी बाबू थे, सांड था और पब्लिक थी। पैर लत्ते की तरह फड़फड़ा रहा था। न जाने हिरमाना (तरबूज) रो रहा था या कुछ और हो रहा था बंगाली बाबू के माथे से तड़-तड़ पानी गिर रहा था।

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सांड ताड़ चुका था। फुंफकार की हाहाकार मचा देगी। इधर सांड जी महाराज फुंफकारे और गम्हाए। उधर बंगाली बाबू उवाचे….”ओई साला जॉन गया…बाबा भोलानाथ रोक्षा कॉरुन…”
बाबू हिले, सिर हिला, हिरमाना हिला उधर सांड खिला…पब्लिक सांस रोके जस की तस खड़ी थी। सिर पर टिके रहना अब तरबूज के बूते की बात न थी। वो फिसल पड़ा। गर्दन, पीठ से सटते अधोगामी हुआ। बनर्जी बाबू युवराज की तरह लपकने की कोशिश करते रहे पर कमबख्त मारा सांड सामने डटा था। सो मर्यादा में रह कर कैच लपकना था। नतीजा ये रहा मर्यादा बनी रही पर तरबूज खेत रहा। सांड का ध्यान अब बनर्जी बाबू से हटकर शहीद हुए तरबूज पर लग चुका था। बनर्जी बाबू के सांड से सीधी टक्कर का किस्सा कई दिनों तक चर्चा में रहा। वो बतौर वीर पुरुष काशी के इतिहास में सम्मानीय रहते अगर सुक्खू धोबी ने उनके पैंट साफ करने का रहस्य पन्ना पानवाले को न बताया होता।

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आजकल सांड शांत रहने लगा था। उसकी टोका-टाकी, टीका-टिप्पणी थोड़ी कम थी। अब कोई कुछ भी लेकर जाता हो वो ध्यान नहीं देता था। भक्ति भाव से ओतप्रोत कई बार उसे विश्वनाथ मंदिर की गली में विचरते देखा गया। पंडित बिलावन तिवारी से पूछा गया – “गुरू एतना शांत काहें हउवन।” पंडित ने प्रश्न कुंडली बनाकर तत्काल शंका समाधान किया। “प्रेम योग बनत हौ।”
“अरे का बात कइला च्चा। अबहीं त ठाकुर साहब के गइया जेसे एनकर एक ठे बछड़ा भी हौ मरल है।”
“त का भया त्रिलोचन ? क्या विधुर को प्रेम करने की मनाही है? शास्त्र में तो ऐसा कहीं नहीं लिखा…और वैसे भी वीर पुरुष को सौ शादी क्षम्य है मूरख”

बात आई गई हो गई। Bull के मिजाज को देखते ज्यादातर लोगों ने कहा – “अब गुरू बानप्रस्थ प्रस्थान कै देनन”
अचानक एक दिन अखबार में फोटो छपी। सांड महोदय अपनी नई महिला मित्र  गइया के साथ गोदौलिया चौराहे पर घूम रहे थे। चूंकि मोहल्ले में फेमस थे। कौतूहल का विषय थे सो गांडीव में छपी फोटो और शीर्षक दिया “बिगड़े सांड की प्रेम कथा।” पंडित बिलावन तिवारी गांडीव हाथ में लेके पहिले चिहूंके (चौंके) फिर खिखियाए- वो मारा, कहा था हमने, बुढ़ौती में भी संडवा का प्रेम योग है लो बेट्टा त्रिलोचन। अब तो फोटू भी छाप दिया रज्जा।

(टीवी पत्रकार राकेश पाठक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)