जब नीतीश के अवसान की घोषणा हो रही है, तो करियर का सबसे ऊंचा दांव खेलने की तैयारी

एनडीए में उनकी कोई वकत नहीं रही और महागठबंधन की तरफ से ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि नाक रगड़ने पर भी नीतीश को वहां जगह नहीं मिलेगी।

New Delhi, Jun 03 : मैं जानता हूं, इस पोस्ट का शीर्षक थोड़ा अजीब है. सामान्य आकार से थोड़ा लंबा भी है और आज के दौर में किसी पत्रकार के लिए यह लिखना खतरनाक भी हो सकता है, क्योंकि वह बड़ी आसानी से नीतीश का पीआर एजेंट मान लिया जा सकता है. खास कर उस दौर में जब नीतीश की पार्टी जोकीहाट उप चुनाव हार चुकी है और उनके फेसबुक पेज की रेटिंग अभियान चलाकर एक पर पहुंचा दी गयी है. उनकी राजनीतिक ताकत लगभग शून्य पर पहुंच गयी है. एनडीए में उनकी कोई वकत नहीं रही और महागठबंधन की तरफ से ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि नाक रगड़ने पर भी नीतीश को वहां जगह नहीं मिलेगी. फिर भी…

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यह सच है कि जोकीहाट विधानसभा उप चुनाव को जीतने के लिए जदयू ने बहुत कुछ दांव पर लगा दिया था. राजधानी पटना में मुसलमानों की एक बड़ी रैली करवाई थी और एक जहीन मुसलमान नेता खालिद अनवर को विधान परिषद भेजा था. वहां एक बाहुबली मुसलिम नेता मुर्शीद आलम को टिकट दिया, जिस के खिलाफ हत्या और गैंगरेप के मामले चल रहे हैं. इसके बावजूद बड़े मार्जिन से हार गये. हारे तो कहने लगे कि वहां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो गया, केंद्र सरकार की विफलता का असर पड़ा. अपनी संगठनात्मक कमजोरी को स्वीकार नहीं किया.

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वे करेंगे भी नहीं. क्योंकि नीतीश जानते हैं, वोट बैंक, राजनीतिक ताकत या संगठन उनकी मजबूती नहीं है. वे इन मामलों में हमेशा से कमजोर रहे हैं. इसलिए जब भी अकेले मैदान में उतरते हैं, हाशिये पर चले जाते हैं. वे पिछले 13 साल के दौरान लगातार अलग-अलग तरीके से अपना वोट बैंक गढ़ने की कोशिश में जुटे रहे. कभी अति पिछड़ों, महादलितों और पसमंदाओं में राजनीतिक भविष्य तलाशा तो कभी शराबबंदी, दहेज प्रथा और बाल विवाह के खिलाफ अभियान चलाकर महिलाओं के बीच अपने दल की पैठ बनाने की कोशिश की और कर रहे हैं. मगर जिस तरह यादव और मुसलमानों के बीच राजद की मजबूत पैठ है, वैसी पैठ नीतीश की किसी समाज में नहीं है.

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उनकी ताकत उनकी छवि है, जिससे वे हर बार बारगेनिंग करते हैं और हर बारगेनिंग में सफल रहते हैं. कमजोर रहने के बावजूद लालू जैसा नेता उन्हें महागठबंधन का चेहरा बना लेता है, क्योंकि वे नीतीश के चेहरे के महत्व को समझते हैं और फिर जब वहां से वापस होते हैं तो भाजपा फिर उन्हें बिहार में अपना नेता कुबूल कर लेती है. पहले भी कमजोर समता पार्टी को भाजपा ने बिहार में अपना चेहरा बनाया, क्योंकि उसके पास राज्य में कोई ऐसा चेहरा नहीं है. राज्य तो राज्य, देश की राजनीति में भी तमाम विरोधाभासों के बावजूद जो नीतीश की एक छवि है, वह उन्हें बार-बार प्रेरित करती है कि वे पीएम का चेहरा बन जायें.

यही वजह है कि आज इतने कमजोर होने पर भी उन्हें पूरा भरोसा है कि वे अगर ठीक से गोटियां फिट करें तो बहुत आराम से संयुक्त विपक्ष के पीएम पद का चेहरा बन सकते हैं. तभी वे नोटबंदी पर सवाल खड़े कर रहे हैं, स्पेशल स्टेटस का पुराना हथियार निकालकर उसकी साफ-सफाई कर रहे हैं, हार के बाद उनके सिपहसालार पेट्रोल की बढ़ती कीमतों पर सवाल खड़े कर रहे हैं. क्योंकि नीतीश को मालूम है कि संयुक्त विपक्ष का सबसे बड़ा संकट ऐसे चेहरे का न होना है, जो मोदी को चुनौती दे सके.
तमाम कोशिशों के बावजूद राहुल गांधी वह चेहरा बन नहीं पा रहे. लालू-मुलायम अब रिटायरमेंट की कतार में हैं, ममता बनर्जी अपने रेडिकल रवैये की वजह से पूरे भारत को स्वीकार्य नहीं हो सकतीं, मायावती का चेहरा सभी समुदायों को स्वीकार्य होगा या नहीं कहना मुश्किल है. अखिलेश और तेजस्वी का चेहरा प्रभावी तो है, मगर अभी एमेच्योर है. अरविंद केजरीवाल अभी तक संयुक्त विपक्ष की राजनीति से दूर ही रहे हैं. ऐसे में उनका सर्वसमावेशी चेहरा और सुशासन का तमगा एक अलग पहचान दे सकता है.

हालांकि उनकी मौजूदा परिस्थितियां बहुत नाजुक हैं. दुबारा एनडीए में जाकर उन्होंने अपनी छवि का कबाड़ा कर लिया है. लोग उन्हें अब सुशासन बाबू के बदले अवसरवादी बाबू कहने लगे हैं. धर्मनिरपेक्षता, जो संयुक्त विपक्ष का सबसे बड़ा यूएसपी है, उसमें वे फेल्योर होते नजर आ रहे हैं. राजद हर हाल में उनसे दूर रहना चाहता है और आज बिहार में राजद एक ऐसी शक्ति के रूप में उभर चुका है कि संयुक्त विपक्ष उसे इग्नोर नहीं कर सकता. वे महज एक साल में एनडीए के साथ अपने अलगाव को कैसे डिफाइन करेंगे यह जटिल मसला है. फिर भी नीतीश यह जानते हैं कि 2019 का चुनाव उनके राजनीतिक जीवन का ऐसा मौका है, जो फिर दुबारा लौटकर नहीं आयेगा. पेट में दांत वाले नीतीश इसके लिए गोटियां फिट करने लगे हैं.

नीतीश जैसे नेता के लिए यह इतना मुश्किल भी नहीं है, क्योंकि कहा जा रहा है कि कांग्रेस इन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार है. अगर जदयू खुद आगे बढ़कर तेजस्वी को सीएम पद का ऑफर कर दे और नीतीश दिल्ली की राह पर निकल पड़ें तो राजद के लिए भी इस ऑफर को ठुकराना आसान नहीं होगा. हां, नीतीश के लिए जरूर यह मुश्किल मामला होगा कि जिस तेजस्वी पर भ्रष्टाचार के आरोप की वजह से वे महागठबंधन से अलग हुए उसे फिर कैसे सार्वजनिक रूप से स्वीकारेंगे.
मगर नीतीश इतने महत्वाकांक्षी हैं कि इसका रास्ता भी निकालेंगे और अपने चिर-परिचित अंदाज में निकालने की कोशिश करेंगे. धीरे-धीरे भाजपा पर हमला करेंगे और तेजस्वी पर हमला कम करेंगे, जैसे महागठबंधन से अलग होते वक्त किया था. जब माहौल बन जायेगा तो एक झटके में फैसला लेंगे. वे बहुत चतुर व्यक्ति हैं, उनके लिए यह सब बहुत मुश्किल नहीं.
मगर राजनीति हो या जिंदगी, हर बार चतुर व्यक्ति की चतुराई काम आ जाये यह मुमकिन नहीं. कई दफा होशियार व्यक्ति खुद अपने ही फंदे में उलझ जाता है. नीतीश यह भी समझ रहे होंगे. इसके बावजूद उन्होंने पीएम मटेरियल के अपने सबसे बड़े सपने को सच करने का आखिर दांव खेलना शुरू कर दिया है, इसमें मुझे कोई कंफ्यूजन नहीं.

(वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)