यह किसान आंदोलन नहीं है, कुछ और है

मुझे लगता है कि आंदोलन से जुड़े इन किसानों का भी यही हाल है । यह लोग किसान नहीं , सिर्फ राजनीतिक आंदोलनकारी लोग हैं ।

New Delhi, Jun 05 : बचपन में हमारी अम्मा , ममत्व की भूमिका पर एक किस्सा सुनाती थी । किस्सा थोड़ा बड़ा है पर सार कुल इतना था कि एक व्यक्ति अपनी बीवी के बहकावे में आ जाता है । बीवी कहती है कि अपनी मां का कलेजा लाओ तभी बात करूंगी । वह व्यक्ति बीवी की बातों में आ कर एक रात अपनी मां की हत्या कर उस का कलेजा ले कर घर की ओर चलता है तो रास्ते में कहीं उसे ठोकर लग जाती है तो मां का कलेजा भी बोल पड़ता है कि बेटा तुम्हें कहीं चोट तो नहीं लगी ?

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तब उस मूर्ख व्यक्ति को अपनी मूर्खता पर तरस आता है कि अरे , मैं ने ऐसी मां को मार डाला जिस का कलेजा भी मेरी तकलीफ नहीं बर्दाश्त कर पा रहा । वह पश्चाताप में डूब जाता है । इन दिनों न्यूज चैनलों पर जब जगह-जगह किसानों द्वारा फल सब्जी या फिर दूध वालों को सड़क पर दूध बहाने वाले दृश्य देखे तो अम्मा का वह किस्सा याद आ गया । फिर पूछने को मन हुआ कि यह किसान हैं या राजनीतिज्ञों के दलाल । क्यों कि कोई असल किसान या दूध वाला अपनी मेहनत को , अपनी उपज को इस तरह सड़क पर अकारथ नहीं बहा सकता । अपने बच्चे को इस तरह नहीं बलिदान कर सकता ।

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देखिए अम्मा का सुनाया एक और किस्सा याद आ गया है । दो स्त्रियों के बीच एक बच्चे को ले कर झगड़ा हो गया । दोनों स्त्रियों का दावा था कि बच्चा उन का है । लोग किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पा रहे थे । अंततः तय हुआ कि बच्चे के दो हिस्से कर के आधा-आधा दोनों को दे दिया जाए । एक स्त्री इस बात पर राजी हो गई । लेकिन दूसरी स्त्री इस बात पर राजी नहीं हुई । इस स्त्री ने कहा कि कोई बात नहीं बच्चे को बिना काटे दूसरी औरत को दे दिया जाए । क्यों कि यह बच्चा इसी स्त्री का था । वह नहीं चाहती थी कि उस के बच्चे को काटा जाए । वह हर हाल में बच्चे को जीतने के बजाय बचा लेना चाहती थी । जब कि दूसरी औरत को सिर्फ लड़ना और जीतना था सो बच्चे को काटने के लिए भी सहर्ष राजी हो गई । ममत्व से उस का कुछ लेना , देना ही नहीं था ।

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मुझे लगता है कि आंदोलन से जुड़े इन किसानों का भी यही हाल है । यह लोग किसान नहीं , सिर्फ राजनीतिक आंदोलनकारी लोग हैं । इन का किसानों की उपज या उस के ममत्व से कुछ लेना-देना नहीं है । सिर्फ आंदोलन और उस की सफलता से मतलब है । आंदोलन का मतलब यह हरगिज नहीं है कि आप सड़क पर दूध बहा दें , सब्जी और फल फ़ेंक दें । आंदोलन के और भी तौर तरीके हैं । विरोध के और भी तरीके हैं । लेकिन विरोध और आंदोलन का मतलब सड़क पर दूध बहाना नहीं है । यह और लोग हैं । किसान और दूध उत्पादक यानी ग्वाला नहीं । जो होते हैं , वह तो दूध की पूजा करते हैं । अन्नदाता तो अन्न की पूजा करते हैं । सड़क पर या नाली में बहाते नहीं । यह बहुत ही संकट और मुश्किल का समय है । अपने बच्चे को मारने का समय है । ममत्व विरोधी समय है । आंदोलन और आंदोलन के भी बाज़ार का समय है । घृणा और नफ़रत का समय है । कृपया मुझे क्षमा कीजिए और कहने दीजिए कि यह किसान आंदोलन नहीं है , कुछ और है ।

(दयानंद पांडेय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)