तो इसलिये संघ के आयोजन में प्रवीण तोगड़िया के बदले प्रणब मुखर्जी को बुलाया गया है

मेरे लिये सवाल यह नहीं है कि प्रणब मुखर्जी संघ के आयोजन में क्यों गये, मेरे लिए सवाल यह है कि संघ ने उन्हें क्यों अपना सिर मुकुट बनाया।

New Delhi, Jun 08 : पिछले कई दिनों से मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक हर तरफ प्रणब दा छाए हुए हैं. उन्होंने संघ के आयोजन में शिरकत की तो कांग्रेसियों के साथ-साथ मोदी विरोधियों के भी मत्थे पर बल पड़ने लगे. माहौल ऐसा बना कि उनकी बेटी शमिष्ठा भी लाइम लाइट में आ गयी. हालांकि प्रणब दा संघ की महफ़िल में कुछ ऐसा कह कर आ गये कि संघी भी ताली पीट रहे हैं और मुसंघी भी. वे एक सीजंड पोलिटीशयन हैं. सोनिया गांधी की अनिच्छा के बावजूद वे लंबे समय तक सत्ता के केंद्र में रहे और राष्ट्रपति भी बने. इसलिये अगर वे इस पोलराइज्ड होते राजनीतिक माहौल में खुद को प्रासंगिक बनाये रखने के लिए संघ की महफिल में चले जाते हैं तो इसमें कोई हैरत की बात नहीं हो सकती. क्योंकि अब यह सर्वविदित है कि कांग्रेस से उन्हें कुछ हासिल नहीं होने वाला है.

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इसलिए मेरे लिये सवाल यह नहीं है कि प्रणब मुखर्जी संघ के आयोजन में क्यों गये, मेरे लिए सवाल यह है कि संघ ने उन्हें क्यों अपना सिर मुकुट बनाया. क्यों आयोजन में बुलाया और बड़े धैर्य से धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में उनकी दलीलें भी सुनीं, अपने कार्यकर्ताओं को भी सुनायी और दुनिया को भी कहने का मौका दिया कि प्रणब दा संघ प्रमुख के सामने उनकी नीतियों पर सवाल खड़े कर आये. आखिर इसकी वजह क्या था? क्या स्वीकार्यता, जैसा मुझे पहले लगा था. क्योंकि संघ से जुड़ी संस्थाओं को हमेशा से अपनी हीनताबोध से बाहर आने के लिए अपनी स्वीकार्यता साबित करने के लिए मध्यममार्गी कांग्रेसी नेताओं की जरूरत होती है. फिर चाहे वह गांधी हों, पटेल हों या आज के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी.

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मगर फिर लगा कि मैं गलत हूं. क्योंकि आज संघ अपने अस्तित्व के सबसे दमदार दौर से गुजर रहा है और जब अपनी स्थापना के सौ साल के जश्न मनाने की तैयारी कर रहा है, तब उसकी विचार को मानने वाले भारत के तीन चौथाई राज्यों में और केंद्र में सत्ताशीन हैं. उन्हें स्वीकार्यता की जरूरत तब थी, जब गांधी की हत्या के बाद उन पर प्रतिबंध लग गया था और बाबरी मसजिद गिराये जाने के बाद जब उनकी स्वीकार्यता न्यूनतम स्तर पर पहुंच गयी थी. अपनी कट्टर हिंदुत्व वाली विचारधारा और दागदार इतिहास की वजह से संघ को हमेशा से भारतीय राजनीति में अछूत की तरह ट्रीट किया जाता रहा है. इनसे सार्वजनिक रूप से जुड़ने में गणमान्य लोग परहेज करते हैं. जो इनका सहयोग लेते भी हैं वे पर्दे के पीछे से लेते हैं. मगर संघ के मंच पर कोई गांधीवादी, समाजवादी या वामपंथी जाने से पहले सौ बार सोचता है. जबकि ये तीनों वैचारिक संगठनों के लोग सहज भाव से एक दूसरे के मंच पर जाते-आते रहते हैं. इसलिए प्रणब दा के संघ के आयोजन में जाने पर सवाल भी उठे और विरोध भी हुआ.

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मगर वह बात अब नहीं है. पहले संघ के मंच पर जब कोई बड़ा गैर संघी नेता पहुंचता था तो संघी उसे सर्टिफिकेट की तरह भुनाते थे. मगर अब तो संघ खुद इफ्तार का आयोजन कर रहा है. इसलिए लगता है मसला कुछ और है.
मसला कुछ और इसलिए भी लग रहा है, क्योंकि इसी दौरान गृह मंत्री राजनाथ ने रमजान महीने का ख्याल रखते हुए आतंकियों के खिलाफ सशस्त्र कार्रवाई पर रोक लगा था, पीएम मोदी को हजरत मोहम्मद से लेकर हमीद का चिमटा तक याद आ गया. और वे अपनी विदेश यात्रा के दौरान एक मसजिद में घूम भी आये. तब उनका हरा रंग उनके विरोधियों के लिए हैरत और उनके समर्थकों के लिए चिढ़ का सबब बन गया. फिर अचानक सोशल मीडिया पर संदेश तैरने लगे, भक्तों के लिए कि मोदी को समझो. वह पीएम है, इसलिए ऐसा करना उसकी मजबूरी है. वह बड़े दाव की तैयारी कर रहा है. फिर उपचुनाव की करारी हार और उसके बाद राजनाथ सिंह ने फिर कह दिया कि लंबी छलांग लगाने के लिए कई दफा पीछे हटना पड़ता है.

सोशल मीडिया पर घूमिये तो पता चलेगा कि जो मूर्ख और कट्टर किस्म के मोदी भक्त हैं वे सख्त नाराज हैं और कह रहे हैं कि कितनी भी कोशिश कर लो, मुसलमान आपको वोट नहीं देगा. इसलिए हे मोदी अपनी कोर पॉलिटिक्स की तरफ लौट आओ. और जो चतुर सुजान किस्म के भक्त हैं, वे अलग-अलग तरीके से इन भक्तों की नाराजगी दूर करने और मोदी के प्रति निष्ठा बरकरार रखने की अपील कर रहे हैं.
तो मसला क्या है? क्या संघ और भाजपा को यह बात समझ में आ गयी है कि कट्टर और उग्र हिंदुत्व की वजह से उनका कोर वोटर तो उनके साथ आ गया, मगर फ्लोटिंग वोटरों की बड़ी जमात उससे दूर जा रही है. 2014 की जीत इसी फ्लोटिंग वोटरों की मदद से हुई और 2019 भी इनके बगैर मुमकिन नहीं. ये जिधर जायेंगे उसी का पलड़ा भारी होगा. मोदी भक्तों और मोदी विरोधियों का तो स्टैंड क्लीयर है. इसलिए, अगर मोदी को हमीद का चिमटा याद आता है, तो वह मुसलमानों के लिए नहीं होता है, क्योंकि उन्हें भी मालूम है कि मुसलमान किसी भी सूरत में उन्हें वोट नहीं देगा. यह अपील उस गंगा-जमुनी तहजीब वाले सामान्य हिंदुओं के लिए होती है, जो शांति और सौहार्द को पसंद करता है. वह समाज में अशांति फैलाने वालों को पसंद नहीं करता.

इसलिए पिछले कुछ दिनों से यह पूरा राजनीतिक कुनबा अपने लिए धर्मनिरपेक्षता तो नहीं मगर सॉफ्ट हिंदुत्व की पहचान हासिल करने की कोशिश में जुटा है और इसलिए संघ के आयोजन में प्रवीण तोगड़िया के बदले प्रणब मुखर्जी को बुलाया गया है.
क्योंकि, आने वाले दिन टफ हैं. राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में एंटी इंकंबेंसी का खतरा है. और इस बात को जदयू और शिवसेना जैसे दल समझ रहे हैं और बारगेन कर रहे हैं. पिछले दिनों आरबीआई ने भी एक सर्वे किया, जिसका मजमून यह है कि आम भारतीय आर्थिक रूप से खुद को काफी असुरक्षित महसूस कर रहा है, 2014 के मुकाबले कहीं अधिक. कट्टर हिंदुत्व की एक लिमिट है और मोदी की विकल्पहीनता का दावा भी एक भरम ही है, जो कभी भरभरा कर गिर सकता है.
तो क्या संघ और उसका कुनबा हार्डकोर हिंदुत्व से पीछा छुड़ाकर सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ बढ़ रहा है? यह लाख टके का सवाल है जो संघ के आयोजन में प्रणब मुखर्जी की रहनुमाई से उभरा है, मगर अभी इस सवाल पर लोगों की नजर नहीं है. बहस कुछ और है….

(वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)