जब जब महंगाई को गंभीरता से नहीं लिया गया तब तब सरकारें बदल दी गयी हैं

आम तौर पर सरकारें महंगाई पर बात करने से बचती हैं . मौजूदा सरकार भी महंगाई को गंभीरता से नहीं ले रही है. जो सरकारें गरीब आदमी की मजबूरियों को दरकिनार करती हैं ,वे चुक जाती हैं।

New Delhi, Jun 22 : जब राजनीतिक दल विपक्ष में होते हैं तो उनको चारों तरफ महंगाई ही दिखती है लेकिन सत्ता में आने के बाद जब उनके नेता सरकार बन जाते हैं तो महंगाई की बात अकादमिक तरीकों से करने लगते हैं . यह नियम अपने देश में हमेशा से ही लागू है. जब आज की सरकारी पार्टी को संसद में मुख्य विपक्षी पार्टी होने का रूतबा हासिल था तो इसके नेताओं के महंगाई को फोकस में रखकर दिए गए भाषण बहुत ही आकर्षक शब्दावली और बहुत ही सही आंकड़ों से भरपूर होते थे . लेकिन सरकार में आने के बाद वे नेता महंगाई की बात नहीं करते. उन नेताओं की कृपा से दिल्ली के जीवन को सुर्खरू बना रहे पत्रकार भी आजकल महंगाई की बात उस तरह से नहीं करते जैसे उस समय किया करते थे. अब अगर किसी कारण से सरकारी पार्टी के नेताओं को पत्रकार वार्ता या संसद में महंगाई पर बात करने के लिए मजबूर होना पड़ा तो वे महंगाई के अर्थशास्त्र की व्याख्या करने लगते हैं और यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि पिछली सरकार में भी महंगाई थी और कुछ अति उत्साही नेता और उनके समर्थक पत्रकार तो यहाँ तक साबित करने की कोशिश करते हैं कि मंहगाई के मूल कारण को तलाशने के लिए जवाहरलाल नेहरू की गलत नीतियों को ज़िम्मेदार ठहराना पडेगा . यह देश और समाज का दुर्भाग्य है कि राजनेता गरीब और साधारण वर्ग के लोगों की परेशानी को तर्क की शक्ति से रफा दफा करने की विलासिता करते रहते हैं .

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आम तौर पर सरकारें महंगाई पर बात करने से बचती हैं . मौजूदा सरकार भी महंगाई को गंभीरता से नहीं ले रही है. जो सरकारें गरीब आदमी की मजबूरियों को दरकिनार करती हैं ,वे चुक जाती हैं . यह गलती पिछले ज़माने में कई सरकारें कर चुकी हैं और नतीजा भोग चुकी हैं . जनता पार्टी १९७७ में सत्ता में आई थी . पार्टी क्या थी ,पूरी शंकर जी की बारात थी. भांति भांति के नेता शामिल हुए थे उसमें. इसमें दो राय नहीं कि इंदिरा गाँधी के कुशासन के खिलाफ जनता पार्टी को चुनकर आम आदमी ने अपना राजनीतिक जवाब दिया था . लोकशाही पर मंडरा रहे खतरे को जनता ने उस वक़्त तो निर्णायक शिकस्त दी थी लेकिन सरकार से और भी बहुत सारी उम्मीदें की जाती हैं . जनता पार्टी के मंत्री लोग यह मान कर चल रहे थे कि अब इंदिरा गाँधी की दुबारा वापसी नहीं होने वाली है इसलिए वे आपसी झगड़ों में तल्लीन हो गए. उसमें शामिल समाजवादियों ने सोचा कि जनता पार्टी में भर्ती हुए जनसंघ( आज की भारतीय जनता पार्टी ) के नेताओं को मजबूर किया जाए कि वे आर एस एस से अलग हो जाएँ जबकि जनसंघ वाले सोच रहे थे कि गाँधी हत्या में फंस जाने के कारण लगे कलंक को साफ़ कर लिया जाए . हालांकि सरकारी जाँच और बाद की अदालती कार्यवाही के बाद साफ हो गया था कि महात्मा गांधी की हत्या में आर एस एस का डाइरेक्ट इन्वाल्वमेंट नहीं था लेकिन उसके सबसे बड़े नेता, एम एस गोलवलकर की गिरफ्तारी तो हुयी ही थी और उसके चलते देश की अवाम में उस संगठन के पार्टी एक राय तो बन ही चुकी थी. जनसंघ को आर एस एस की राजनीतिक शाखा माना जाता था . बताते हैं कि उस दौर के आर एस एस और जनसंघ के नेताओं की इच्छा थी कि जनता पार्टी की जनमानस में स्वीकार्यता के सहारे अपने को फिर से मुख्यधारा में लाया जाए. उस वक़्त के प्रधानमंत्री , मोरारजी देसाई ने ऐलान कर दिया था कि इंदिरा राज के कूड़े को साफ़ करने के लिए उन्हें १० साल चाहिए और समाजवादी नेता लोग अपनी स्टाइल में लड़ने झगड़ने लगे थे . व्यापारी वर्ग बेलगाम हो गया . दिल्ली में तो ज्यादातर व्यापारी जनसंघ के समर्थक होते थे और कहते हैं कि उसकी सत्ता में भागीदारी की वजह से वे खुद ही सरकार बन गए थे और खूब मुनाफ़ा कमा रहे थे . महंगाई आसमान पर पंहुच गयी . इंदिरा गाँधी के सलाहकारों ने माहौल को ताड़ लिया और १९७९ में जब जनता पार्टी टूटी तो महंगाई को ही मुद्दा बना दिया . उस साल प्याज की कीमतें बहुत बढ़ गयी थीं और इंदिरा गांधी के चुनाव प्रबंधकों ने १९७७ के फरवरी माह और १९७९ के नवम्बर माह के प्याज के दामों को एक चार्ट में डालकर पोस्टर बनाया और चुनाव में झोंक दिया . महंगाई जनता की दुखती रग थी और उसने नौकर बदल दिया . जनता पार्टी वाले निकाल बाहर किये गए और इंदिरा गाँधी की सत्ता में वापसी हो गयी. १९८० में चुनाव हार कर लौटे जनता पार्टी के नेता कहते पाए जाते थे कि नयी कांग्रेसी सरकार प्याज के छिलकों के सहारे बनी है और प्याज के छिलकों जैसे ही ख़त्म हो जायेगी. ऐसा कुछ नहीं हुआ और सरकार चलती रही जबकि जनता पार्टी के नेता लोग तरह तरह की पार्टियां बनाते रहे और सब जीरो होने के कगार पर पंहुच गए.

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उसके बाद की सरकारों ने भी महंगाई को सही तरीके से हल करने की कोशिश नहीं की. जब इंदिरा गांधी की वापसी के बाद सरकार ने काम सम्भाला तो उनके कुछ मूर्ख मंत्री और नेता कहते पाए जाते थे कि महंगाई अच्छी बात है. इससे पता लगता है कि देश तरक्की कर रहा है. बाद की ज़्यादातर सरकारें महंगाई को तर्कशक्ति से ठीक करने पर ही अमादा रहीं और आम जन बढ़ती कीमतों की चक्की के नीचे पिसता रहा ,पिसता रहा .
डॉ मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यू पी ए सरकारें भी महंगाई को काबू करने में नाकाम रही हैं .लेकिन एक फर्क है . जनता पार्टी के वक़्त में महंगाई इसलिए बढ़ी थी कि सरकार में आला दर्जे पर बैठे नेता लोग गैरजिम्मेदार थे.उनकी बेवकूफी की नीतियों की वजह से महंगाई बढ़ी थी लेकिन यू पी एम के दौर में मामला बहुत गंभीर था. उस सरकार में बहुत सारे ऐसे मंत्री थे जिनपर महंगाई बढाने वाले औद्योगिक घरानों के लिए काम करने का आरोप लगता रहता था. महंगाई के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार ईंधन की कीमतों में हो रही वृद्धि होती है . आम आदमी के लिए सबसे दुखद बात यह है कि पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में वृद्धि से जिन वर्गों को सबसे ज्यादा लाभ होता है उनके खिलाफ बोलने की हिम्मत न तो कांग्रेस के किसी मंत्री में थी और न ही उस वक़्त की मुख्य विपक्षी पार्टी के किसी नेता में . आज भी स्थिति वही है . राहुल गांधी तो ऐलानियाँ आरोप लगाते हैं कि कुछ औद्योगिक समूहों को लाभ पंहुचाने के लिए सरकार की हर नीति को बनाया जा रहा है . हालांकि यह भी सच है कि उनकी पार्टी की अगुवाई वाली सरकारों के समय भी उन्हीं औद्योगिक घरानों को लाभ पंहुचाने के लिए सारे उपक्रम किये जाते थे लेकिन आज की सरकार के सामने उस इतिहास के पीछे छुपने का विकल्प नहीं है .महंगाई को कम करने के लिए फ़ौरन से पेशतर कोशिश करनी पड़ेगी वर्ना देश के गरीब और मध्य वर्ग की त्योरियों में बल साफ़ नज़र आने लगे हैं . अगर आज के सत्ताधीशों को सत्ता में २०१९ के बाद भी आना है तो महंगाई को काबू करने की ईमानदार कोशिश करनी पड़ेगी .
आज की स्थिति यह है कि महंगाई कमरतोड़ है और उस से निजात दिलाना सरकार की ज़िम्मेदारी है . अगर ऐसा तुरंत न किया गया तो मौजूदा सरकार का भी वही हाल होगा जो १९७९ में जनता पार्टी की सरकार का हुआ था.देश का दुर्भाग्य यह भी है कि निजी लाभ के चक्कर में रहने वाले नेताओं से ठुंसे हुए राजनीतिक स्पेस में जनता की पक्षधर कोई जमात नहीं है . महंगाई के खिलाफ राजनीतिक आन्दोलन ही नहीं है . २००९ से लेकर २०१४ तक महंगाई के खिलाफ आन्दोलन की अगुवाई कर रही बी जे पी के लगभग सभी बड़े नेता आज सरकार में हैं. बीजेपी के नेताओं को चाहिए वे उन्हीं पूंजीपतियों की हित साधना न करें हीं जिनकी हित साधना में लगकर कांग्रेस ने अपनी राजनीतिक हैसियत गँवा दी है . गैर बीजेपी और गैर कांग्रेस राजनीति के नाम पर १९८९ से तीसरे मोर्चे के नाम पर गाहे ब गाहे संगठित होकर क्षेत्रीय पार्टियों के नेता भी केंद्र की सत्ता में आते रहे हैं . उनके बारे में तो आम धारणा यह है कि वे शुद्ध रूप से लूट मचाने की नीयत से ही दिल्ली आते हैं . वे कभी कांग्रेस के साथ होते हैं तो कभी बी जे पी के साथ लेकिन एजेंडा वही लूट खसोट का ही होता है . स्पेक्ट्रम वाली लूट जिस पार्टी के नेता ने की थी उसकी पार्टी उन दिनों कांग्रेस के साथ थी लेकिन कभी यही लोग बी जे पी के ख़ासम ख़ास हुआ करते थे. अभी कुछ साल पहले जिन नेताओं के पास रोटी के पैसे नहीं होते थे वे आज अरबों के मालिक हैं . अफ़सोस की बात यह है कि इन बे-ईमान नेताओं के बारे में कोई निजी बातचीत में भी दुःख नहीं जताता . इस तरह के नेता दिल्ली के लुटियन बंगलो ज़ोन की हर सड़क पर विराजते हैं. नरेंद्र मोदी ने केंद्र की सत्ता संभालने के बाद कहा था कि वे दिल्ली को नहीं जानते थे . क्या वे इन लोगों को जान पाए हैं कि नहीं और अगर जान पाए हैं तो इनकी लालच भरी हित साधना पर काबू करके आम जनता को मुंह बाए खडी महंगाई से कब मुक्ति दिलाएंगे. महंगाई पर काबू करना बहुत ही ज़रूरी है .

(वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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