कश्मीर की सियासत में नेशन फर्स्ट का सिद्धांत लागू किया जाना चाहिए , सियासी तिकड़म से बाज आना चाहिए

कश्मीर के मामले में सारे देश की राजनीतिक पार्टियों की आम राय से ही बातें बनती हैं . कश्मीर की समस्या भी कोई नई समस्या नहीं है।

New Delhi, Jun 24 : जम्मू और कश्मीर की गिर गयी है . महबूबा मुफ्ती अब पूर्व मुख्यमंत्री हो गयी हैं . इस सरकार को वहां होना ही नहीं चाहिए था क्योंकि भारत के संविधान की क़सम खाकर मुख्यमंत्री बनी महबूबा मुफ्ती वास्तव में एक अलगवावादी नेता है और उनकी सहानुभूतियाँ ऐलानियाँ पाकिस्तान के साथ हैं . इस सरकार को स्थापित करने के लिए सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार बीजेपी के नेता ,राम माधव हैं . जब नरेंद्र मोदी और अमित शाह के हुकुम के बाद जम्मू-कश्मीर के बीजेपी विधायकों ने समर्थन वापसी का फैसला लिया तो इन्हीं राम माधव को प्रेस के सामने पेश किया गया . उन्होंने जो भी तर्क दिए वे सारे देश को मालूम हैं . मुफ्ती सरकार फेल हो गयी है ,यह सबको पता है लेकिन लेकिन उस असफलता के लिए जितना महबूबा मुफ्ती ज़िम्मेदार हैं उतना ही राम माधव भी ज़िम्मेदार हैं.

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दर असल कश्मीर एक ऐसा मसला है जिसमें किसी एक पार्टी की मनमानी नहीं चलती .जब भी मनमानी होती है ,मामला बिगड़ जाता है . कश्मीर के मामले में सारे देश की राजनीतिक पार्टियों की आम राय से ही बातें बनती हैं . कश्मीर की समस्या भी कोई नई समस्या नहीं है . कश्मीर में आज़ादी के मायने भी बाकी दुनिया की आज़ादी से अलग हैं . कश्मीरी अवाम ने अपने आपको तब गुलाम माना था जब मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में कश्मीर को अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और गाहे बगाहे आज़ादी की बात होती रहती थी. जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानों, सिखों और डोगरा राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे. शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया.इस आन्दोलन को पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैरख्वाह थे . जब सरदार पटेल ने राजा को साफ़ बता दिया कि जब तक विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत नहीं कर देंगे तब तक भारतीय सेना तुम्हारी मदद नहीं करेगी. कबायलियों के पोशाक में आई पाकिस्तानी सेना से सरदार पटेल ने कश्मीर को बचा लिया था . और शेख अब्दुल्ला को देश की एक राय से वहां का वजीरे-आज़म बना दिया गया था.

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तब से ही कश्मीर में देश की आम राय चलती है .जब भी कोई अरुण नेहरू या कोई जगमोहन या कोई राम माधव अपनी मर्जी चलाने की कोशिश करता है ,गड़बड़ होती है . जम्मू-कश्मीर की जब भी बात होगी , जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला को भारत के पक्षधर के रूप में याद किया जाएगा .लेकिन देश में नेताओं और बुद्धिजीवियों का एक वर्ग जवाहरलाल नेहरू को बिलकुल गैर ज़िम्मेदार राजनेता मानता है . मौजूदा सरकार में इस तरह के लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है . नेहरु की नीतियों की हर स्तर पर निंदा की जा रही है . जवाहरलाल ने तय कर रखा था कि कश्मीर को भारत से अलग कभी नहीं होने देगें लेकिन अदूरदर्शी नेताओं को नेहरू अच्छे नहीं लगते थे . जम्मू-कश्मीर की अभी अभी गिरी सरकार में भी ऐसे लोग थे जो भारत के संविधान की बात तो करते हैं लेकिन भारत की एकता और अखण्डता के नेहरूवादी ढांचे को नामंजूर कर देते थे . मुख्यमंत्री ऐसी थीं जो पाकिस्तान परस्त अलगाव वादियों से दोस्ती के रिश्ते रखती थीं. उस सरकार में कुछ ऐसे लोग भी थे जो १९४६-४७ में कश्मीर के राजा हरि सिंह के समर्थकों के राजनीतिक वारिस हैं . इस सरकार ने थोक में गलतियाँ कीं और जब मामला हाथ से निकल गया तो केंद्र सरकार से फ़रियाद की कि जम्मू-कश्मीर के मामलों में दख़ल दो. लेकिन केंद्रीय हस्तक्षेप तभी कारगर होता है जब मुकामी नेता मज़बूत हो. हमने देखा है जब भी जम्मू-कश्मीर में मुख्यमंत्री कमज़ोर रहा है और केंद्रीय हस्तक्षेप से सहारे राज करने की कोशिश करता है तो नतीजे भयानक हुए हैं . शेख अब्दुल्ला की १९५३ की सरकार हो या फारूक अब्दुल्ला को हटाकर गुल शाह को मुख्यमंत्री बनाने की बेवकूफी, केंद्र की गैर ज़रूरी दखलंदाजी के बाद कश्मीर में हालात खराब होते रहे हैं . कश्मीर में केन्द्रीय दखल के नतीजों के इतिहास पर नज़र डालने से तस्वीर और साफ़ हो जायेगी. सच्ची बात यह है कि जम्मू-कश्मीर की जनता हमेशा से ही बाहरी दखल को गैरज़रूरी मानती रही है .

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यह भी समझने की कोशिश की जानी चाहिए कि जिस कश्मीरी अवाम ने कभी पाकिस्तान और उसके नेता मुहम्मद अली जिन्ना को धता बता दी थी और जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राजा की पाकिस्तान के साथ मिलने की कोशिशों को फटकार दिया था, और भारत के साथ विलय के लिए चल रही शेख अब्दुल्ला की कोशिश को अहमियत दी थी , आज वह भारतीय नेताओं से इतना नाराज़ क्यों है. कश्मीर में पिछले २५ साल से चल रहे आतंक के खेल में लोग भूलने लगे हैं कि जम्मू-कश्मीर की मुस्लिम बहुमत वाली जनता ने पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय नेताओं, महात्मा गाँधी , जवाहर लाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण को अपना रहनुमा माना था. पिछले ७० साल के इतिहास पर एक नज़र डाल लेने से तस्वीर पूरी तरह साफ़ हो जायेगी.
देश के बँटवारे के वक़्त अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की आज़ादी दी थी. बहुत ही पेचीदा मामला था . ज़्यादातर देशी राजा तो भारत के साथ मिल गए लेकिन जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर का मामला विवादों के घेरे में बना रहा . कश्मीर में ज़्यादातर लोग तो आज़ादी के पक्ष में थे . कुछ लोग चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ मिल जाएँ लेकिन अपनी स्वायत्तता को सुरक्षित रखें. इस बीच महाराजा हरि सिंह के प्रधान मंत्री ने पाकिस्तान की सरकार के सामने एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . १५ अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया.”पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की .” नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इस लिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे . बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाली कपडे, पेट्रोल और राशन की सप्प्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी.. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर १९४६ में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा.

उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयी, और शेख अब्दुल्ला को ९ अगस्त १९५३ के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था. ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया .उन्होंने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे.. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . लेकिन और २७ मई १९६४ के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थे, जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई.और कोशिश स्थगित कर दी गयी

कश्मीर की समस्या में इंदिरा गाँधी ने एक बार फिर हस्तक्षेप किया , शेख साहेब को रिहा किया और उन्हें सत्ता दी. . उसके बाद जब १९७७ का चुनाव हुआ तो शेख अब्दुला फिर मुख्य मंत्री बने . उनकी मौत के बाद उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला को मुख्य मंत्री बनाया गया. लेकिन अब तक इंदिरा गाँधी बहुत कमज़ोर हो गयी थीं ,. अपने परिवार के करीबी , अरुण नेहरू पर वे बहुत भरोसा करने लगी थीं, . अरुण नेहरू ने जितना नुकसान कश्मीरी मसले का किया शायद ही किसी ने नहीं किया हो . उन्होंने डॉ फारूक अब्दुल्ला से निजी खुन्नस में उनकी सरकार गिराकर उनके बहनोई गुल शाह को मुख्यमंत्री बनवा दिया . यह कश्मीर में केंद्रीय दखल का सबसे बड़ा उदाहरण माना जाता है . हुआ यह था कि फारूक अब्दुल्ला ने श्रीनगर में कांग्रेस के विरोधी नेताओं का एक सम्मलेन कर दिया .और अरुण नेहरू नाराज़ हो गए . अगर अरुण नेहरू को मामले की मामूली समझ भी होती तो वे खुश होते कि चलो कश्मीर में बाकी देश भी इन्वाल्व हो रहा है लेकिन उन्होंने पुलिस के थानेदार की तरह का आचरण किया और सब कुछ खराब कर दिया .
ऐसा बार बार हुआ है लेकिन आज बात बहुत ही संजीदा है.आज फिर कश्मीर का मामला एक दोराहे पर आ गया है . केंद्र सरकार पर ज़िम्मा है कि मामले को संभाले . इस मामले पर किसी को राजनीतिक तिकड़म नहीं करना चाहिए और कश्मीर में भारत की शान को बनाये रखने के लिए कोशिश की जानी चाहिए .

(वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)