जयंती पर विशेष : जब नरसिम्हा राव के पार्थिव शरीर को कांग्रेस मुख्यालय में घुसने नहीं दिया गया

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज उन्हें याद करते हुए श्रद्धांजलि दी। कांग्रेस पार्टी ने भी उन्हें याद किया, लेकिन बहुत ही हलके तरीके से।

New Delhi, Jun 28 : पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की आज जयंती है। वे कांग्रेस संसदीय दल के नेता के रूप में पीएम बने थे। भारत की बंद अर्थ व्यवस्था को उदार बनाने का श्रेय उन्हें ही है। उन्हीं के नेतृत्व में नयी आर्थिक नीति लागू की गई थी। संकट में घिरी अर्थव्यवस्था को बचाने के लिये उन्होंने आर्थिक उदारीकरण का साहसिक फैसला लिया था। 6 दिसंबर 1992 को जब विवादित बाबरी मस्जिद का ढांचा टूटा था तब राव ही प्रधानमंत्री थे। वे 21 जून 1991 से 16 जून 1996 तक पीएम रहे। यह उथल -पुथल वाला दौर था। खरीद -फरोख्त से ही सही पर अल्पमत की सरकार को उन्होंने पूरे पांच साल तक चलाया था। पंजाब में आतंकवाद का खात्मा और विषम परिस्थिति में जम्मू -कश्मीर में चुनाव कराना राव की कुशल रणनीति का ही परिणाम माना जाता है।

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज उन्हें याद करते हुए श्रद्धांजलि दी। कांग्रेस पार्टी ने भी उन्हें याद किया, लेकिन बहुत ही हलके तरीके से। यह स्वाभाविक भी है। सच तो यह है कि पार्टी को उन्हें मज़बूरी में प्रधानमंत्री बनाना पड़ा था। वे कांग्रेस के लिए एक ‘एक्सीडेंटल प्रधानमंत्री’ थे। गाँधी परिवार से उनके रिश्ते बेहद तल्ख़ थे। क्योंकि वे सोनिया गांधी के ‘रबर स्टम्प’ नहीं बने। प्रधानमंत्री के साथ -साथ वे पार्टी के अध्यक्ष भी थे। लेकिन गांधी परिवार के वफादार इस कोशिश में लगे रहे कि राव अध्यक्ष पद सोनिया गांधी के लिए छोड़ दें। राव ने हमेशा इसका विरोध किया। पार्टी मंच पर दिया उनका एक बयान उस समय काफी चर्चा में भी रहा। राव का कहना था, ‘जैसे इंजन ट्रेन की बोगियों को खींचता है वैसे ही कांग्रेस के लिए यह जरूरी क्यों है कि वह गांधी-नेहरू परिवार के पीछे-पीछे ही चले?’ जबतक वे प्रधानमंत्री रहे सोनिया गांधी को सक्रिय राजनीति में नहीं आने दिया। शायद इसी का खुन्नस निकालते हुए सोनिया गांधी ने राजीव गांधी की हत्या की जांच में कोताही का आरोप अपनी ही सरकार पर लगाया था।

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1996 के चुनाव में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई। इसके बाद गांधी कोटरी ने उन्हें पार्टी में किनारे कर दिया। हद तो तब हो गई जब 1998 के चुनाव में उन्हें टिकट से भी वंचित कर दिया गया। भारतीय राजनीति की यह एक ऐतिहासिक घटना थी। लेकिन गांधी परिवार की नाराजगी इतने से भी कम नहीं हुई थी। राजनीति से किनारे कर दिए जाने के बाद राव दिल्ली में ही रह रहे थे। 23 दिसंबर 2004 को दिल्ली में ही उनका निधन हुआ।

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लोगों को उम्मीद थी कि शायद मृत्यु के बाद पार्टी उनके प्रति सम्मान दिखाएगी। लेकिन कांग्रेस मुख्यालय में राव के लिए कोई श्रद्धांजलि सभा तक आयोजित नहीं होने दी गई। उनके पार्थिव शरीर को भी पार्टी मुख्यालय में नहीं घुसने दिया गया। 24 अकबर रोड के गेट में ताला बंद कर दिया गया था। कहा जाता है कि केंद्र की यूपीए सरकार ने तुरत-फुरत यह इंतजाम कर दिया कि राव का अंतिम संस्कार दिल्ली की बजाय हैदराबाद में किया जाए। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार संजय बारू ने अपनी किताब – द एक्सीडंटल प्राइममिनिस्टर – में लिखा है कि राव के बेटे और बेटी उनका अंतिम संस्कार दिल्ली में ही करना चाहते थे। लेकिन सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल ने बारू से, जो कि खुद भी आंध्र प्रदेश से ही हैं, उन्हें ऐसा न करने के लिए समझाने के लिए कहा था। बाद में इस काम में शिवराज पाटिल और आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वाइ एस राजशेखर रेड्डी को भी लगाया गया। एक प्रकार से जबरन उनके शव को हैदराबाद भेजा गया। वहां उनके अंतिम संस्कार में भी तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी शामिल नहीं हुई। अपनी ही पार्टी के नेता से शायद ही किसी ने इतनी नफरत दिखाई होगी ! भारतीय राजनीति में ऐसा उदाहरण शायद ही देखने को मिले।

(वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)