भाजपा रोके चुनावी भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार के बिना आज चुनावी राजनीति हो ही नहीं सकती। इस पर रोक लगाने की मांग पिछले दिनों हुई सर्वदलीय बैठक में की गई।

New Delhi, Aug 31 : भारत की लोकसभा और विधानसभाओं के लिए नियमित चुनाव होते हैं, यह भारतीय लोकतंत्र की बड़ी उपलब्धि है लेकिन इनमें जो अनाप-शनाप खर्च होता है, वह ही भ्रष्टाचार की असली जड़ है। चुनाव लड़ने के नाम पर नेता लोग बेशुमार पैसा जुटाते हैं। इतना जुटा लेते हैं कि यदि वे चुनाव हार जाएं तो भी पांच साल तक उनका ठाट-बाट बना रहता है।

Advertisement

कई नेता एक ही चुनाव में अपनी कई पीढ़ियों का इंतजाम कर लेते हैं। यदि वे चुनाव जीतकर सरकार बना लेते हैं तो वे अपने मालदाताओं पर मेहरबानियां करते हैं। उनके लिए सारे कानून-कायदे ताक पर रखकर उन्हें जमकर पैसा कमवाते हैं। बड़े पैसे वालों के लिए वे विदेशी कंपनियों से सांठ-गांठ करते हैं ताकि उस भ्रष्टाचार का सुराग भी न लगे। जैसे स्वीडन से बोफोर्स, जर्मनी से पनडुब्बियों और फ्रांस से रेफल विमानों के सौदे हुए हैं। ऐसे सौदों में जब नेता पैसे खाते हैं तो अफसर पीछे क्यों रहें और फौजी अपना कमीशन क्यों छोड़ें ? जब नौकरशाही और फौज के बड़े पदों पर बैठे लोग भ्रष्टाचार करते हैं तो चपरासी स्तर तक के सभी कर्मचारियों को रिश्वतखोरी का लाइसेंस मिल जाता है।

Advertisement

भ्रष्टाचार के बिना आज चुनावी राजनीति हो ही नहीं सकती। इस पर रोक लगाने की मांग पिछले दिनों हुई सर्वदलीय बैठक में की गई। भाजपा के अलावा चुनाव आयोग से भी दलों ने कहा कि आपने उम्मीदवारों के खर्च पर तो रोक लगाई है लेकिन पार्टियों के खर्च पर भी रोक लगाइए। लोकसभा उम्मीदवार 40 लाख से 70 लाख रु. और विधानसभा उम्मीदवार 22 से 54 लाख रु. तक खर्च कर सकता है लेकिन पार्टियां चाहे तो एक-एक उम्मीदवार पर करोड़ों रु. खर्च कर सकती हैं। सभी पार्टियां करती हैं, अरबों रु. खर्च। औसत उम्मीदवार लोग चुनाव आयोग को जो रपट देते हैं, उसमें वे अपना खर्च सीमा से आधा ही दिखाते हैं। सब महात्मा गांधी बने रहते हैं।

Advertisement

1971 में दिल्ली के लिए लोकसभा का चुनाव हारे हुए जनसंघी उम्मीदवार कंवरलाल गुप्त ने जीते हुए कांग्रेसी उम्मीदवार अमरनाथ चावला के खिलाफ ज्यादा खर्च का मुकदमा चलाया था। गुप्ता जीत गए, तब इंदिरा गांधी ने चुनावी कानून में संशोधन करवाकर यह प्रावधान कर दिया था कि कोई पार्टी, या कोई संगठन या कोई मित्र किसी उम्मीदवार पर कितना ही खर्च करे, वह चुनाव-खर्च नहीं माना जाएगा। यह खर्च ही भारत में भ्रष्टाचार का वट-वृक्ष बन गया है। क्या भाजपा भी इस वट-वृक्ष को सींचने में लगी हुई है ? उसने 20-20 हजार रु. तक के बेनामी बाॅंड क्यों निकाले हैं ?

(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)