जीतने के लिए वह किस स्तर पर उतर आए हैं, जरा रुकिए और मंथन कीजिए

हर हार जीत में कुछ संदेश छिपे होते हैं, जो उन्हें पढ़कर गलतियां सुधार लेता है और जीतने पर विनम्र होकर जन सेवा में जुट जाता है, उसे लोग आगे भी मौका देते हैं।

New Delhi, Dec 14 : चुनाव तो आते-जाते रहेंगे। सरकारें भी बनती बिगड़ती रहेंगी। कौन कितने कम अंतर से जीता। कितने बड़े अंतर से हारा। यह विश्लेषण भी होते रहेंगे परंतु चुनाव जीतने के लिए यदि बड़े-बड़े झूठों का सहारा लिया जाएगा और प्रहार करते हुए शब्दों के साथ-साथ पदों और व्यक्तियों की गरिमा को तार-तार किया जाएगा तो सोचिए कि यह लोकतंत्र और देश किस दिशा जाएगा।

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पुरानी कहावत है, जो जीता वो सिकंदर। लोकतंत्र में जनादेश ही सर्वोपरि है। वह बहुत सोच-समझकर फैसला करती है। उसकी समझ पर सवाल उठाना मूर्खता है। किसकी जय हुई और किसकी पराजय। कौन कितने मत प्रतिशत से आगे-पीछे रहा। किसको पिछले चुनाव में कैसी जीत और कैसी हार मिली थी, ऐसे मौकों पर इन सबका विश्लेषण कोई नहीं करना चाहता जबकि इस पर मंथन जरूरी है। कुछ चुनाव बहुत करीबी मुकाबले के साथ किसी एक के पक्ष में चले जाते हैं और दूसरे को सत्ता से दूर कर देते हैं। जैसे कर्नाटक के चुनाव में हुआ। वहां भाजपा जादुई आंकड़े से बस चार कदम की दूरी खड़ी रह गई। ऐसा ही हाल मध्य प्रदेश में हुआ है। राजस्थान में वह हारी है परंतु वैसे नहीं, जैसे पिछले चुनाव में कांग्रेस हारी थी, लेकिन भाजपा नेतृत्व को यह स्वीकार करना होगा कि राजस्थान और मध्य प्रदेश में उसकी बहुत बड़ी तादाद में सीटें घटी हैं। यानी जनता ने उसे नकारा है। कारण चाहे जो रहे हों। छत्तीसगढ़ में तो भाजपा को बहुत बड़ी पराजय का सामना करना पड़ा है। भाजपा कह सकती है कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पंद्रह साल की एंटी इकंबैंसी की कीमत उसे चुकानी पड़ी और राजस्थान में हर पांच साल में सरकार बदल जाने की परिपाटी चली आ रही है परंतु उसे यह स्वीकार करना होगा कि प्रयासों में कहीं कुछ कमी रही है और कुछ ऐसे मुद्दे थे, जिनके चलते मतदाता नाराज हैं।

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जहां तक कांग्रेस और राहुल गांधी की कामयाबी का प्रश्न है, यह मानना होगा कि मोदी शाह की जोड़ी के सामने पराजय का सामना करते आ रहे राहुल गांधी को आखिर इन तीन हिंदी पट्टी के राज्यों में भाजपा को सत्ता से बाहर करने की बड़ी कामयाबी मिली है। वह भी लोकसभा चुनाव से मात्र चार महीने पहले। यह सही है कि प्रदेशों के और लोकसभा के चुनाव में मुद्दे बिल्कुल अलग होते हैं परंतु अगर आप ध्यान से देखें तो इन विधानसभा चुनाव में भी विपक्ष और राहुल गांधी के निशाने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार की नीतियां ही ज्यादा रही हैं। हालांकि भाजपा कह सकती है और विश्लेषक भी मानते हैं कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में भले ही भाजपा हारी है परंतु अपमानजनक तरीके से नहीं। कर्नाटक की तरह इन दोनों प्रदेशों में भी उसे बहुत अच्छे वोट और सीटें हासिल हुई हैं। हां, छत्तीसगढ़ में उसे जरूर अप्रत्याशित हार का सामना करना पड़ा है। बहुत से विश्लेषकों का यह मानना था कि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में कड़ी टक्कर होने जा रही है परंतु छत्तीसगढ़ के मामले में यह आकलन गलत साबित हुए। इस सबके बावजूद यह मानना ही होगा कि तीन राज्यों में कांग्रेस की वापसी ने लोकसभा चुनाव को काफी दिलचस्प बना है। हिंदी पट्टी के इन तीनों प्रदेशों की लोकसभा सीटों पर अब कड़ा मुकाबला होगा और नरेन्द्र मोदी व अमित शाह को दोगुनी ऊर्जा के साथ मेहनत करनी पड़ेगी।
तीन राज्य गंवाने के बावजूद भाजपा शासित राज्यों की संख्या अब भी बारह है। सहयोगी दलों को भी मिला लें तो यह संख्या डेढ़ दर्जन के पार पहुंचती है। कांग्रेस की बात करें तो उसने इन चुनावों में मिजोरम को गवां दिया है। कर्नाटक में वह सहयोगी दल के तौर पर सत्ता में है और पंजाब के अलावा एक छोटे से राज्य पुंडुचेरी में ही उसकी सरकार बची थी। अब उसके शासन वाले राज्यों की संख्या बढ़कर छह होने जा रही है परंतु मिजोरम में उसका जैसा सफाया हुआ है और तेलंगाना में चंद्रबाबू नायडु के साथ उसके महागठबंधन को जिस तरह लोगों ने ठुकराया है, उससे उसकी लोकसभा चुनाव में महागठबंधन बनाने की राह और मुश्किल होती दिखने लगी है। कांग्रेस नेतृत्व यदि यह सोचकर आगे बढ़ेगा कि तीन राज्यों की यह जीत भाजपा के खिलाफ एंटी इंकंबैंसी का परिणाम है तो उसके हित में रहेगा परंतु यदि उसके नेताओं ने राहुल गांधी के जयकारे लगाने शुरू कर दिए तो वह फिर जमीनी हकीकत से कोसों दूर चली जाएगी। वास्तव में राहुल गांधी का नेतृत्व इतना ही करिश्माई होता तो तेलंगाना और मिजोरम में इतना बुरा हाल नहीं होता।

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हमेशा के लिए न किसी की जीत शाश्वत होती है और न पराजय। लोकतांत्रिक व्यवस्था में हार जीत संवाभाविक है। हर हार जीत में कुछ संदेश छिपे होते हैं, जो उन्हें पढ़कर गलतियां सुधार लेता है और जीतने पर विनम्र होकर जन सेवा में जुट जाता है, उसे लोग आगे भी मौका देते हैं। कहीं किसी तरह की हठधर्मी अथवा अहंकार के भाव आते हैं तो वही जनता उसे सीख भी दे डालती है, जिसने पांच साल पहले सिर आंखों पर बैठाया होता है। पांच राज्यों के इन परिणामों में जीतने और हारने वालों के लिए संदेश हैं, जिन्हें समझना जरूरी है। छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना से अलग तरह के संदेश आए हैं, जबकि दो बड़े राज्यों राजस्थान और मध्य प्रदेश के संदेश बिल्कुल अलहदा किस्म के संकेत और संदेश मिले हैं। जाहिर है, इन परिणामों ने कांग्रेस के लिए संजीवनी बूंटी का काम किया है। वह निराशा के अंतहीन दौर से बाहर निकल सकेगी। तेईस चौबीस चुनावी हार के बाद मीडिया के एक अंग के द्वारा राहुल गांधी को पूरी तरह विफल नेता मान लिया गया था परंतु इन परिणामों के बाद उनके प्रति मीडिया के रुख में भी बदलाव आएगा और उन विपक्षी दलों के नजरिए भी बदल सकते हैं, जो उन पर भरोसा नहीं कर पा रहे थे।

लेकिन जरा रुकिए। थोड़ा सा मंथन भी करिए। बात इस हार-जीत। पुरानी सरकार के गिरने और नई के बनने तक सीमित नहीं है। इन चुनावों ने कुछ और सबक भी दिए हैं। कुछ ऐसे सवाल भी छोड़े हैं, जिनके जवाब तलाशने बहुत जरूरी हैं। सरकारें बनती-बिगड़ती रहेंगी। यह लोकतांत्रिक प्रणाली और प्रक्रिया की सतत धारा है, जो बहती रहेगी परंतु चुनाव प्रचार के दौरान पक्ष-विपक्ष की ओर से एक-दूसरे पर जिस तरह से अमर्यादित ढंग से शब्द बाण छोड़े गए हैं, उन्होंने सारी सीमाएं तोड़ डाली हैं। जीतने के लिए अगर बड़े-बड़े झूठों का सहारा लिया जाएगा तो आप अनुमान लगाइए कि हमारा लोकतंत्र किस दिशा में जा रहा है और इसके नतीजे कितने खतरनाक होने वाले हैं। चौकीदार नहीं, चोर है। खून की दलाली करते हैं। पागल हैं। नपुंसक है। रावण है। भस्मासुर है। बंदर है। अनपढ़ आदमी है। इन शब्दों का प्रयोग किसी और के लिए नहीं, स्वयं देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए किया गया। इन चुनावों से पहले भी उनके बारे में कांग्रेस के बड़े नेताओं ने सांप, बिच्छू, लहू पुरुष, पागल कुत्ता, औरंगजेब, मानसिक रूप से बीमार, नीच आदमी, मौत के सौदागर जैसे अस्वीकार्य आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग किया जा चुका था। इसी तरह भाजपा से जुड़े नेताओं ने राहुल गांधी पर अटैक करते हुए हाईब्रिड बछड़ा, पप्पू, बुद्धू, पागल, छोटा भीम, मसखरा, जूते मारो, मनोरोगी, रावण और मंदबुद्धि बालक जैसे आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग किया गया। चुनाव निपट गए हैं। लोकसभा चुनाव में अभी वक्त है। सभी पक्षों के पास थोड़ा सा वक्त है, यह सोचने-विचारने के लिए कि जीतने के लिए वह किस स्तर पर उतर आए हैं। दूसरों की छवि खराब करने के लिए कैसे-कैसे झूठों का सहारा लेने लगे हैं।

(वरिष्ठ पत्रकार ओमकार चौधरी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)