भारत में चुनाव से ठीक पहले आतंकवादी हमले के पीछे क्या है पाकिस्तान की मंशा?

यह अकारण नहीं है कि भारत में जब भी पुलवामा जैसा कोई आतंकवादी हमला होता है, तो आतंकवाद और आतंकवादियों की कड़ी निंदा तो की जाती है, लेकिन बहुत सारे किंतु-परंतु लगाते हुए।

New Delhi, Feb 21 : बड़ा औपचारिक सा लगने लगा है और थोड़ा-थोड़ा फ़र्ज़ी भी, जब एक आतंकवादी हमला होता है और हम अपना गुस्सा प्रकट करने के लिए ज़ोर-ज़ोर से बहुत कुछ बोलना शुरू कर देते हैं। लेकिन सच यह है कि ऐसे आतंकवादी हमले झेलना भारत की नियति है। इसके साथ ऐसा होता रहा है और आगे भी होता रहेगा।
मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं, ज़रा ठंडे दिमाग से सोचिएगा और समझिएगा। हमारा देश एक ऐसा लोकतांत्रिक देश है, जिसे फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम वाली चुनाव प्रणाली के ज़रिए चुने गए जनप्रतिनिधियों द्वारा बहुमत से बनाई गई सरकार चलाती है।

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सबसे पहले समझिए कि फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम क्या है? फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम यह है कि चुनाव में जिस भी उम्मीदवार को सबसे अधिक वोट मिलेंगे, वह निर्वाचित हो जाएगा, भले ही वह बहुमत यानी आधे से अधिक लोगों द्वारा नापसंद किया गया हो।
नतीजा यह है कि वे लोग चुनकर आ रहे हैं, जिन्हें सौ में केवल 30-35-40 वोट मिल रहे हैं। यानी अगर इसे सौ अंकों की परीक्षा मानें, तो अधिकांश जनप्रतिनिधि सामान्य पास मार्क्स (30%) या इससे कुछ ही ऊपर-नीचे प्राप्त कर रहे हैं।
परीक्षा में इतने मार्क्स पाने वाले विद्यार्थी भोंदू कहलाते हैं और इतने मार्क्स लाने के लिए अक्सर वे गेस पेपर का सहारा लेते हैं। हमारे यहां चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल और उनके उम्मीदवार भी बिल्कुल इसी गेस पेपर वाले पैटर्न पर काम करते हैं।

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जैसे भोंदू विद्यार्थी को पता होता है कि अमुक-अमुक सवालों के जवाब रट लेने से उसे 100 में 30 नंबर आ जाएंगे, ठीक वैसे ही राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों को पता है कि इन-इन समुदायों और जातियों के इतने-इतने वोट आ जाएं, तो 100 में 30-35-40 वोटों का मार्क प्राप्त हो जाएगा।
कुल मिलाकर, नीति और नीयत नहीं, गणित प्रधान है। इसी गणित के चलते पुष्टीकरण की बजाय तुष्टीकरण का प्रादुर्भाव होता है। अलग-अलग राजनीतिक दल और उम्मीदवार अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार अलग-अलग समुदायों और जातियों का तुष्टीकरण करते हैं, लेकिन कोई किसी का पुष्टीकरण नहीं करता।
पुष्टीकरण करना सालों या दशकों का मामला है, जबकि तुष्टीकरण पल भर में हो जाता है। केवल एक विशेष टोपी पहन लेने या तिलक लगा लेने से भी तुष्टीकरण हो जाता है। केवल एक ईद-मिलन या होली मिलन के आयोजन भर से भी तुष्टीकरण हो जाता है। कहीं किसी की मूर्ति लगवा दें, किसी सड़क का नाम बदल दें, किसी मंदिर या मस्जिद में घूम आएं, कभी कोई जनेऊ दिखा दें, कहीं कोई बयान दे दें, इतने भर से भी तुष्टीकरण हो जाता है।

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तो फर्स्ट पार्स्ट द पोस्ट सिस्टम वाले इस चुनावी लोकतंत्र में तुष्टीकरण और येन-केन-प्रकारेण सत्ता महत्वपूर्ण हो गई है। नतीजा यह है कि हम जान-बूझकर बहुत सारी सच्चाइयों की अनदेखी करते हैं।
आतंकवाद एक ऐसा ही मसला है। भारत में आतंकवाद मूलतः इस्लाम का बाय-प्रोडक्ट है, जो पड़ोसी देश पाकिस्तान से आता है। लेकिन फर्स्ट पास्ट द पोस्ट वाले चुनावी लोकतंत्र के चलते भारत में यह बोलना ख़तरनाक है। जो यह बात बोलेगा, उसका 18 प्रतिशत वोट गया। हालांकि यह नहीं बोलने से भी किसी का पुष्टीकरण नहीं होने वाला, क्योंकि जब आप यह सच नहीं बोलते हैं, तो आप कुछ लोगों की सांप्रदायिक कट्टरता और आतंकवाद-परस्त सोच पर पर्दा डाल रहे होते हैं। यानी आप उनकी सांप्रदायिक कट्टरता और आतंकवाद परस्त सोच को बढ़ावा दे रहे होते हैं। यानी आप उनके भीतर तरक्कीपसंद सोच को हतोत्साहित कर रहे होते हैं। यानी आप उनका तुष्टीकरण तो कर रहे होते हैं, लेकिन पुष्टीकरण नहीं कर रहे होते हैं।

इसलिए, यह अकारण नहीं है कि भारत में जब भी पुलवामा जैसा कोई आतंकवादी हमला होता है, तो आतंकवाद और आतंकवादियों की कड़ी निंदा तो की जाती है, लेकिन बहुत सारे किंतु-परंतु लगाते हुए। ये किंतु-परंतु इस देश के पुरुषार्थ, स्वाभिमान और अपने नागरिकों व सैनिकों की सुरक्षा करने के संकल्प को लगातार ठेस पहुंचा रहे हैं। इन्हीं किंतुओं-परंतुओं की वजह से भारत कभी भी आतंकवाद और पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कोई ठोस कदम नहीं उठा पाता।
जैसे मेरे देश की सेना आतंकवादियों का हमला झेल रही हो, लेकिन चारों तरफ से पत्थरबाज़ी कर उसे परेशान कर रहे भाड़े के लोगों पर वह गोली नहीं चला सकती। अगर वह गोली चलाएगी तो यह मानवाधिकार का हनन हो जाएगा।
जैसे मेरे देश के सैनिक को चारों तरफ से उन्मादियों की भीड़ घेर ले और अगर अपने बचाव के लिए उसने उनमें से एक आदमी को पकड़कर जीप की बोनट पर बांध दिया, तो यह भी मानवाधिकार का हनन हो जाएगा।

जैसे मेरे देश की संसद पर हमला हो और उसके गुनहगारों में से एक को सुप्रीम कोर्ट द्वारा फांसी दे दी गई हो, इसके बावजूद अगर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में उसकी कथित शहादत की बरसी मनाई जा रही हो और घर-घर में उसे पैदा करने की धमकी दी जा रही हो, तो इसपर उंगली नहीं उठाई जा सकती, क्योंकि देश के अनेक बड़े नेताओं की नज़र में यह भी अभिव्यक्ति की आज़ादी कुचलना हो जाएगा।
जैसे बाटला हाउस एनकाउंटर में मेरे देश की पुलिस का एक बहादुर जवान शहीद हो जाए, लेकिन रात-रात भर कोई उस जवान के लिए नहीं, बल्कि मारे गए आतंकवादियों के लिए रोए, तो इसपर भी एतराज नहीं जताया जा सकता, क्योंकि ऐसा करना सांप्रदायिकता हो जाएगी।

दरअसल, पाकिस्तान को ताकत पाकिस्तान की सेना या इस्लाम के नाम पर मरने-मारने को तैयार हो जाने वाले आत्मघाती आतंकवादियों से नहीं, बल्कि हमारे यहां के फर्स्ट पास्ट द पोस्ट वाली चुनावी प्रणाली में पास मार्क्स पाने के लिए गुणा-गणित लगाते रहने वाले भोंदू छात्रों जैसे सत्ता-लोलुप राजनीतिक धडों और नेताओं से मिलती है। इनकी वजह से ही भारत कभी भी आतंकवाद जैसे गंभीर मुद्दे पर तुष्टीकरण के दायरे से बाहर निकलकर कार्रवाई नहीं कर पाता।
क्या इसे हल्के में लिया जाना चाहिए कि हमारे देश के कुछ संदिग्ध नेता नियमित रूप से पाकिस्तान जाते रहते हैं, वहां जाकर भारत को ही बातचीत न करने का कसूरवार ठहराते हैं, वहां के मीडिया में इंटरव्यू देते हुए भारत की चुनी हुई सरकार को हटाने में सहयोग करने की अपील करते हैं, वहां के सेनाध्यक्ष से गले मिलते हुए फोटो खिंचवाते हैं और सवाल उठाए जाने पर अपने कदमों की तुलना भारत सरकार के शांति-प्रयासों से करते हैं?

पुलवामा के आतंकवादी हमले पर हम ज़रूर आंसू बहाएं, लेकिन यह न भूलें कि यह हमला तब हुआ है, जब महज दो-तीन हफ्ते बाद देश में आम चुनावों का एलान होने वाला है। ऐसे में,
(1) क्या इसे एक सामान्य आतंकवादी हमला माना जाए या फिर इसे भारत में चुनावों को प्रभावित करने की साज़िश के तौर पर भी देखा जाना चाहिए?
(2) अगर यह साज़िश है, तो इसके मास्टरमाइंड केवल पाकिस्तान में ही बैठे हैं या भारत में भी बैठे हैं?
(3) चुनाव से ऐन पहले भारत में ऐसा आतंकवादी हमला करके पाकिस्तान ने क्या संदेश देना और किसे फायदा पहुंचाना चाहा है?
(4) क्या पाकिस्तान ने यह जताना चाहा है कि 56 इंच की छाती भी उसके दम के आगे बेदम है?
(5) क्या भारत के आम चुनावों में पाकिस्तान और आतंकवाद बड़े मुद्दे बनने वाले हैं?
(6) क्या आम चुनावों से ठीक पहले भारत की सरकार एक तगड़ी जवाबी कार्रवाई करने या फिर सीमित युद्ध लड़ने का जोखिम उठा सकती है?
(7) भारत की सरकार अगर घाटी में आतंकवाद के ख़िलाफ़ दबिश और कार्रवाई तेज़ करती है, तो आज आतंकवाद की निंदा करने वाले सभी दल उसके साथ खड़े रहेंगे या चुनावी लाभ के लिए सांप्रदायिक भावनाएं भड़काना शुरू कर देंगे?

इन सवालों के जवाब में तुरंत पक्के तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता, लेकिन हमले की टाइमिंग देखते हुए इतना तय है कि इसके पीछे विशुद्ध राजनीतिक कारण भी हो सकते हैं।
कुछ उंगलियां सरकार और जम्मू कश्मीर प्रशासन की तरफ भी है। राज्यपाल ने खुलकर माना है कि इंटेलीजेंस इनपुट होने के बावजूद चूक हुई है। भारत ऐसी चूकें कब तक करता रहेगा? क्या देश की सरकारें चूक पर चूक करती रहेंगी और देश की जनता बस मारे गए लोगों के लिए मोमबत्तियां जलाती रहने के लिए अभिशप्त है?

बहरहाल, कुछ बातें स्पष्ट हैं-

(1) पाकिस्तान कुत्ते की वह दुम है, जो कभी सीधी नहीं हो सकती।
(2) भारत के पड़ोस में जब तक पाकिस्तान का अस्तित्व है, तब तक भारत चैन की नींद नहीं सो सकता।
(3) भारत जब तक अपनी सरहद के भीतर पाकिस्तान से लड़ाई लड़ता रहेगा, तब तक वह पाकिस्तान का बाल भी बांका नहीं कर सकता।
(4) भारत जब तक सिंध, बलूचिस्तान और पीओके पर आक्रामक रुख़ अख्तियार नहीं करता, तब तक उसे कश्मीर पर रक्षात्मक मुद्रा में ही रहना पड़ेगा।
(5) भारत जब तक उन अलगाववादियों का अस्तित्व नहीं मिटाता, जो भारत की खाते हैं, पाकिस्तान की गाते हैं, तब तक कश्मीर में शांति कायम नहीं हो सकती।
(6) भारत जब तक 1990 में घाटी से विस्थापित हुए साढ़े तीन लाख पंडितों, जिनकी संख्या आज 7-8 लाख से भी ज्यादा होती और अन्य भारतीय नागरिकों को वहां नहीं बसाता, तब तक कश्मीर को आग के ढेर से नहीं निकाला जा सकता।
(7) जब तक देश के प्रमुख राजनीतिक दल भी कश्मीर में महबूबा मुफ्ती जैसी अलगाववादी-परस्त ताकतों को समर्थन दे-देकर शक्ति देते रहेंगे, तब तक कश्मीर में अमन कायम नहीं हो सकता।

मुझे लगता है कि जब भी हमारा कोई जवान शहीद होता है, तो उसे सच्ची श्रद्धांजलि केवल आंसू बहाकर या मोमबत्ती जलाकर नहीं, कड़ी निंदा या बदला लेने जैसे बयान देकर नहीं, बल्कि उस नासूर को ख़त्म करके ही दी जा सकती है, जो भारत को पिछले 72 साल से पीड़ा दे रहा है। क्या हममें ऐसा करने की सोच, शक्ति और सख्ती है?

(वरिष्ठ पत्रकार अभिरंजन कुमार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)