1971 में इंदिरा गांधी ने युद्ध को खूब भुनाया, अब मोदी को लाभ मिल रहा है, तो इतनी बेचैनी क्यों
ऐसा दोहरा मापदंड क्यों भई ? अब भला बताइए कि यदि नरेंद्र मोदी कल से यह प्रचार भी करने लगें कि आपलोग वोट देते समय हाल में पाक के साथ हुए द्वंद्व को तनिक भी ध्यान में न रखें तो भी क्या मतदाता उनकी बात मान लेंगे ?
New Delhi, Mar 12 : इंदिरा गांधी 15 वीं सदी की फ्रांसीसी वीरांगना जाॅन आॅफ आर्क को अपना आदर्श मानती थीं। झांसी की रानी की तरह जाॅन आॅफ आर्क ने भी अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई लड़ीं थीं । पर जब इंदिरा गांधी ने 1971 में बंगला देश का युद्ध जीता तो खुद को ‘दुर्गा’ कहलाना पसंद किया न कि जाॅन आफ आर्क। पाक ने भी अपनी मिसाइल के नाम गोरी व गजनी रखे हंै ताकि धार्मिक भावनाओं का दोहन किया जा सके।
1972 के विधान सभाओं के चुनावों में ‘दुर्गा’ और ‘राष्ट्रभक्ति’ की मिलीजुली भावनाओं ने भी कांग्रेस को जितवाने में मदद की थी। इसके अलावा इंदिरा जी ने तब मतदाताओं के नाम व्यक्तिगत पत्र लिख कर उनसे अपील की थी कि जिस तरह हमने युद्ध जीता है,उसी लगन से हमें गरीबी हटानी है। इसलिए हमें प्रदेशों में अनुकूल सरकारें चाहिए। कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र में भी कहा गया कि इंदिरा गांधी के सफल नेतृत्व के कारण हमने युद्ध जीता। इंदिरा जी ने यह सब नहीं भी किया होता तौभी उन्हें चुनावों में बंगला देश युद्ध में जीत का लाभ मिलता। अब जब कि बालाकोट हमले तथा इस तरह के कई अन्य पाक विरोधी उपायों का लाभ अगले चुनाव में राजग को मिलने वाला है तो कांग्रेस तथा उसके हमसफर बुद्धिजीवी फतवा दे रहे हैं कि बालाकोट हमले का राजनीतिकरण या चुनावीकरण नहीं होना चाहिए।
ऐसा दोहरा मापदंड क्यों भई ? अब भला बताइए कि यदि नरेंद्र मोदी कल से यह प्रचार भी करने लगें कि आपलोग वोट देते समय हाल में पाक के साथ हुए द्वंद्व को तनिक भी ध्यान में न रखें तो भी क्या मतदाता उनकी बात मान लेंगे ? मोदी सरकार ने इस बार पाक को जितना झुका कर पूरी दुनिया में उसे अलग -थलग कर दिया है,उसे आम जनता नहीं देख रही है ? सबसे अधिक जानकारियां तो गांव -गांव व घर -घर में मौजूद स्मार्ट फोन दे रह हैं।एक कहावत है-सूचना में शक्ति होती है। बंगला देश युद्ध में इंदिरा गांधी की हिम्मत की कहानी भी घर -घर फैल गई थी।तभी तो उन्हें चुनावों में भारी लाभ मिल गया था। अब उसी तरह का लाभ मोदी को मिलने की उम्मीद बन रही है तो इतनी घबराहट क्यांे ?
(वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)