बम धमाकों में हर बार इस्लाम के ही चीथड़े उड़ाते हैं आतंकवादी!

इस्लामिक आतंकवादियों द्वारा दुनिया भर में अंजाम दी जा रही वारदात की क्रोनोलॉजी याद रखना बेहद मुश्किल है, क्योंकि आए दिन कहीं न कहीं वे बेगुनाह लोगों को मार रहे हैं।

New Delhi, May 09 : रमज़ान का महीना शुरू हो गया है। प्रार्थना करता हूं कि दुनिया में शांति कायम रहे, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से यह चलन देखा जा रहा है कि रमज़ान के महीने में इस्लामिक आतंकवादियों की हिंसा काफी बढ़ जाती है। मेरी नज़र में सबसे भयावह घटना तीन साल पहले बांग्लादेश में हुई थी, जब कुरान की आयतें न पढ़ पाने पर कई लोगों की हत्या कर दी गई थी।

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इस्लामिक आतंकवादियों द्वारा दुनिया भर में अंजाम दी जा रही वारदात की क्रोनोलॉजी याद रखना बेहद मुश्किल है, क्योंकि आए दिन कहीं न कहीं वे बेगुनाह लोगों को मार रहे हैं। कुछ दिन पहले श्रीलंका में हुए धमाकों में सैकड़ों लोग मारे गए थे। बुधवार, 8 मई को फिर पाकिस्तान के लाहौर में एक सूफी दरगाह के बाहर धमाका हुआ है और कई लोग मारे गए हैं।
कई लोगों को यह बात कड़वी लगेगी, लेकिन इस्लामिक आतंकवादी जब भी कहीं कोई धमाका करते हैं, हवाओं में ख़ुद इस्लाम के ही चीथड़े उड़ते हैं। हर बार इस्लाम थोड़ा और क्षरित हो जाता है। दुनिया भर में इस्लाम के प्रति नफ़रत थोड़ी और बढ़ जाती है। चीन, श्रीलंका, म्यांमार, फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका, भारत हर देश में इस्लामिकों के प्रति शंका थोड़ी और गहरी हो जाती है।

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अगर ऐसे ही चलता रहा, तो एक दिन ऐसा आएगा, जब इस्लाम के अनुयायी शांति से न इस्लामिक देशों में रह पाएंगे, न गैर-इस्लामिक देशों में, क्योंकि अपने अनुयायियों को जन्नत का सपना दिखाने वाले इस्लाम के नाम पर इस धरती पर हर रोज़ नए-नए नरक पैदा हो रहे हैं। अधिकांश इस्लामिक देश जहां पहले ही नरक बन चुके हैं, वहीं गैर-इस्लामिक देशों में भी इस्लाम के अनुयायियों के प्रति अविश्वास और विरोध बढ़ता ही जा रहा है।
दुर्भाग्य यह है कि इस्लाम में कट्टरता इतनी अधिक है, इस्लामिक धर्मगुरुओं की ज्ञान से दुश्मनी इतनी भयावह है, इस्लाम के अनुयायी धर्म को लेकर इतने अधिक सेंसिटिव हैं, एक ही किताब पर उनकी निर्भरता इस हद तक ज्यादा है, कि उनके बीच धार्मिक-सुधारों और हिंसा-मुक्त दुनिया के विचार पर चर्चा शुरू हो पाना तक संभव दिखाई नहीं देता।

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मैं महसूस करता हूं कि हमारे अनेक पढ़े-लिखे और प्रोग्रेसिव समझे जाने वाले मुस्लिम मित्र भी हमारी चिंताओँ को नहीं समझ पाते। अक्सर वे कहते हैं कि हम कुरान पढ़ें, क्योंकि इस्लाम वैसा नहीं है, जैसा हम समझ रहे हैं। जबकि हम उनसे कहना चाहते हैं कि इस्लाम हमें न समझाएं, बल्कि उन लोगों को समझाएं, जो इसके नाम पर हिंसा कर रहे हैं। क्या कुरान पढ़कर इस्लाम को मेरे क्लीन चिट दे देने से इस्लाम के नाम पर जो हिंसा हो रही है, वह रुक जाएगी?
कई लोग जब तथ्यों और तर्कों से मेरी बात को नहीं काट पाएंगे, तो उनके लिए सबसे आसान होगा यह आरोप लगा देना कि मैं आरएसएस और बीजेपी के विचारों से प्रभावित हूं, लेकिन इससे देश और दुनिया के वे सवाल हल नहीं होंगे, जो हालिया इतिहास और वर्तमान की कोख से पैदा हुए हैं –

1. आखिर दुनिया के अधिकांश इस्लामिक देशों में इतनी अधिक हिंसा और अशांति क्यों है?
2. जिन्ना जैसे सेक्युलर समझे जाने वाले मुसलमान ने भी अंत में धर्म के नाम पर देश कैसे बांट लिया? “सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा” गाने वाला शायर इकबाल भी एक दिन कैसे धर्म के नाम पर अलग देश का हिमायती बन गया?
3. पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दुओं और अन्य धर्मावलंबियों की आबादी घटते-घटते नगण्य क्यों हो गई, जबकि भारत में आज पाकिस्तान से भी अधिक मुस्लिम हैं?
4. भारत में भी जम्मू-कश्मीर से साढ़े तीन लाख पंडितों को विस्थापित क्यों होना पड़ा? एक-एक मुस्लिम के दर्द से लाखों हिन्दू रोए हैं इस देश में, लेकिन लाखों हिन्दुओं के दर्द से कितने मुस्लिम रोए हैं?
5. भारत के अन्य इलाकों या बस्तियों में भी जहां मुस्लिम आबादी अधिक है, वहां दूसरे धर्मों के अनुयायी शांति से क्यों नहीं रह पाते?
6. केवल अन्य धर्मों के अनुयायियों को ही नहीं, इस्लाम में शिया और सूफी जैसी उदारवादी कौमों को भी आए दिन कट्टरपथियों की हिंसा का सामना क्यों करना पड़ता है?
7. इस्लामिक आतंकवाद जैसी गंभीर और विश्वव्यापी समस्या के ख़िलाफ़ भी इस्लाम के भीतर से कोई पुख्ता और भरोसेमंद आवाज़ क्यों नहीं उठती?

ये सभी सवाल एक मानवतावादी के हैं, जो हर इंसान को बराबर समझता है और दुनिया में अहिंसा और भाईचारे का बोलबाला देखना चाहता है, जो कहता है कि हिन्दू और मुसलमान भारत माता की दो आंखें हैं, जो न सिर्फ़ इंसानों के लिए बल्कि धरती के अन्य जीव-जंतुओं के लिए भी मानवीय दृष्टि रखता है।

जैसे हिन्दुत्व की बुराइयों पर बड़ी संख्या में हिन्दुओं के भीतर से ही लिखने-बोलने की संस्कृति रही है, वैसे ही अगर ये बातें बड़ी संख्या में हमारे मुस्लिम दोस्त लिख रहे होते, तो हमें न लिखना पड़ता। मैं नहीं कहता कि कट्टरपंथी ताकतें दो-चार दिन में राह पर आ सकती हैं, लेकिन दो-चार दशकों में भी वे राह पर आ सकती हैं, जब इसकी गारंटी कहीं से आती दिखाई नहीं देती, तभी निराशा भी पैदा होती है और आने वाली पीढ़ियों के लिए आशंका भी गहराती है।

है कोई समाधान? क्या रुक पाएगी हिंसा? क्या मिट पाएगी कट्टरता? क्या बंद हो सकेगा बेगुनाहों का मारा जाना? या फिर पूरी दुनिया को कट्टरपंथी इस्लाम में तब्दील करने की यह हवस अभी और गुल खिलाती रहेगी?

(वरिष्ठ पत्रकार अभिरंजन कुमार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)