Opinion- अब बीजेपी सिर्फ मिडिल क्लास और अप्पर मिडिल क्लास की पार्टी नहीं रही

ऐसा भ्रम है कि कोई सत्ताधारी पार्टी अगले चुनावों में थोड़ा कमज़ोर होकर आती है. 2009 में जब कांग्रेस जीती तो 2004 के मुक़ाबले और मज़बूत होकर आई।

New Delhi, May 27 : मोदी वाराणसी में कह रहे हैं कि कैमिस्ट्री ने गणित को हरा दिया. इस पर बहुत लोग यकीन भी कर लेंगे लेकिन जो मोदी कह रहे हैं वो पहली बार नहीं हुआ है और सच बात यही है कि कैमिस्ट्री के बिना नंबर नहीं आते.
2009 लोकसभा के नतीजों से ही ऐसा लगना शुरू हो गया था कि भारत की जनता का वोट फिर से राष्ट्रीयकरण की ओर बढ़ रहा है. यहां राष्ट्रीयकरण से मेरा मतलब है कि एक पार्टी को बहुमत देने की ओर ना कि क्षेत्रिय पार्टियों की मिली-जुली सरकार बनाने की ओर.

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ऐसा भ्रम है कि कोई सत्ताधारी पार्टी अगले चुनावों में थोड़ा कमज़ोर होकर आती है. 2009 में जब कांग्रेस जीती तो 2004 के मुक़ाबले और मज़बूत होकर आई. पार्टी को 61 सीटें ज़्यादा मिली थीं. 1991 के बाद पार्टी का ये सबसे बेहतर प्रदर्शन था. वहीं बीजेपी 1991 के बाद सबसे कम सीटें जीती थी – 116. वोट शेयर भी घटकर 19% पर आ गया था. कांग्रेस की ऐसी जीत के बारे में किसी ने नहीं सोचा था और नतीजों के बाद कहा जाने लगा कि कांग्रेस के पुराने अच्छे दिन लौट आए हैं.
जवाहर लाल नेहरू के बाद पहले कोई प्रधानमंत्री थे जो पूरे 5 साल राज करने के बाद दोबारा चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बने और वो थे मनमोहन सिंह. उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस को 21 सीटें मिली थीं जो कि बड़ी बात थी. 2004 के मुक़ाबले पार्टी ने 16 राज़्यों में अपना प्रदर्शन बेहतर किया था.

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सबसे बड़ी समस्या वोटरों को तब थी कि उनके पास विकल्प नहीं था. लाल कृष्ण आडवाणी में उन्हें विकल्प नज़र नहीं आ रहा था. तब भी वोटरों के बीच कोई सेलिब्रेशन नहीं था क्योंकि कांग्रेस उम्मीद के तौर पर नहीं, विकल्प के अभाव में जीतकर आई थी.
यही चुनाव इस बार भी था. इस चुनाव के नतीजों में आपको आस-पास सेलिब्रेशन नज़र नहीं आएगा. नरेंद्र मोदी ने अपने बहुत से वादे पूरे नहीं किए. अन्ना आंदोलन में भ्रष्टाचार विरोधी लहर को उन्होंने अपने हक़ में तो कर लिया लेकिन सत्ता में आने के बाद इस मुद्दे पर क्या किया, इस पर उनका कोई समर्थक भी शायद ही कोई दलील दे पाए.

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2009 में कांग्रेस को उसकी कुछ योजनाओं की वजह से भी फ़ायदा हुआ. जैसे नरेगा, विश्वविद्यालयों में 27% ओबीसी कोटा लागू होना, अमरीका के साथ न्यूक्लियर डील. यहां तक कि लोगों ने महंगाई को भी नज़रअंदाज़ कर दिया. जीडीपी की घटती दर से लोगों के वोट पर फर्क नहीं पड़ा. कांग्रेस ने समाज के हर सेक्शन के वोट बटोरे.
साथ ही बीजेपी ने जो गलतियां 2004 और 2009 में की थी, वो उसने 2019 तक सही कर लीं. अब पार्टी सिर्फ मिडल क्लास और अप्पर मिडल क्लास की पार्टी नहीं रही. उनकी योजनाओं ने ज़मीन पर उनके लिए सभी सेक्शन से समर्थन जुटाया. पश्चिम बंगाल में पारंपरिक लेफ्ट वोटरों ने कहा कि वे बीजेपी को वोट देंगे क्योंकि पक्के घर के लिए उनके खाते में पैसा आने लगा है. 2014 में जब हम कवरेज कर रहे थे तो कोई नहीं कहता था कि उन्हें शौचालय चाहिए. इस बार लोग मांग रहे हैं. उन लोगों को देखकर मांग रहे हैं जिन्हें मिला है और वोट इस उम्मीद में कर रहे हैं कि अगली सरकार में उन्हें भी मिल जाएगा. यानी कि 2009 की तरह ही गरीबों के लिए योजना, गैर-यादव गैर-जाटव वोट बैंक और राष्ट्रवाद की कैमिस्ट्री पर बीजेपी ने पहले से बेहतर प्रदर्शन कर दिखाया. हिंदुत्व का जो रसायन बीजेपी ने मिलाया है, उसकी काट कांग्रेस का सॉफ़्ट हिंदुत्व नहीं बन पाया.

2009 के चुनाव से पहले बीजेपी के बहुत से सहयोगी दल उनका साथ छोड़ गए, जैसे टीडीपी, एआईएडीएमके और बीजू जनता दल. इस बार कांग्रेस के साथ भी यही हुआ कि पार्टी कई दलों के साथ गठबंधन नहीं कर पाई और जिन दलों ने उन्हें समर्थन दिया, उन्होंने खुलकर राहुल गांधी को अपना राष्ट्रीय नेता कहा ही नहीं. 2009 में भी यूपी में 21 सीट लाने का सेहरा राहुल गांधी के सिर बांधा गया जबकि उस वक्त भी सीएसडीएस की एक पोल में पता चला कि यूपी में सिर्फ 4 फीसदी लोग ही उन्हें लोकप्रिय नेता मानते हैं.

आडवाणी ने तो हार के बाद इस्तीफ़ा दे दिया था लेकिन राहुल गांधी का इस्तीफ़ा ‘रिजेक्ट’ हो गया है. मुझे नहीं पता कि उन्हें इस्तीफ़ा देना चाहिए या नहीं लेकिन सवाल तो अब कांग्रेस पार्टी में भी शुरू हो गया है कि गांधी नहीं तो कौन?
राहुल गांधी की भाषा वगैरह बहुत अच्छा रहा, उनके व्यक्तित्व में बहुत सुधार भी दिखा लेकिन फिर भी वे सोनिया गांधी नहीं बन पाए हैं. नरसिम्हा राव के वक्त कांग्रेस में जितने धड़े बन गए थे, सोनिया गांधी के नेतृत्व ने उन्हें एक रखा. लेकिन अभी कांग्रेस उस स्थिति में नहीं है. कांग्रेस हर राज्य में अलग सी नज़र आती है. जबकि बीजेपी की भाषा, शैली, तरीके, नेता सब एक से नज़र आते हैं. सब उम्मीदवारों ने मोदी और बालाकोट पर वोट मांगा. लेकिन क्या कांग्रेस उम्मीदवारों ने राहुल गांधी और न्याय योजना पर वोट मांगा?
किसी के बुरे वक्त में नसीहत देने वाले बहुत होते हैं जबकि उन्होंने कभी एक चुनाव भी ठीक से ऑब्ज़र्व नहीं किया होता है. लेकिन ये सबके लिए नसीहत है कि आप किसी पार्टी को चुनाव हरा नहीं सकते और ना जीता सकते हैं. इसलिए किसी जीत या हार को निजी तौर पर ना लें. विकल्प नेता ही बन पाएगा, आप उसे ज़बरदस्ती करोड़ों लोगों का विकल्प बना नहीं सकते.

(वरिष्ठ पत्रकार सर्वप्रिया सांगवान के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)