Opinion – खय्याम में बहुत विविधता नहीं है लेकिन गुणवत्ता का वैभव है

सत्तर के दशक और बाद के खय्याम का यह सांगीतिक चरित्र स्थायी है । संगीत का प्रेमी और समझदार उस नोट को पकड़ता है ।

New Delhi, Aug 20 : उनके संगीत को अगर कोई एक शब्द रचता है तो वह शब्द भव्य ही होना चाहिए ! भव्यता की ध्वनि महान स्थापत्यों से आती है और खय्याम के संगीत के स्वरों से भी आती है । खय्याम साठ और उससे पूर्व तक हिन्दी सिनेमा के मास्टर संगीतकारों की पांत में कहीं बैठे से दीखते हैं । वे अग्रणी नहीं हैं लेकिन आभायुक्त हैं । वो सुबह कभी तो आएगी, शाम ए ग़म की क़सम, जानें क्या ढूंढ़ती रहती हैं ये आंखें मुझमें !

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इस गीत में मुझे प्यासा के अमर गीत का गुणधर्म सुनाई देता है, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ! जैसे यहां स्वर धीरे-धीरे उठता है वैसे ही वहां एक उठान है । दुख दोनों का प्रधान स्वर है । गायक रफ़ी हैं इसलिए दूसरे में पहले का प्रभाव लाते हैं ।
बहारों मेरा जीवन भी संवारो, इसे मैं खय्याम के संगीत का उत्तर प्रस्थान मानता हूं । एक विशिष्ट तरह का आर्क्रेस्ट्राइजेशन ! जो धीरे-धीरे सितार, सारंगी, वायलिन और बांसुरी से दूर होता है और सिंथेसाइजर या पाश्चात्य वाद्य के चमत्कारिक प्रयोग से पुष्ट होता है । इस गीत में बांसुरी और सितार उतने सघन रूप से अंतिम बार सुनाई पड़ते हैं ।

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सत्तर के दशक और बाद के खय्याम का यह सांगीतिक चरित्र स्थायी है । संगीत का प्रेमी और समझदार उस नोट को पकड़ता है । खय्याम यहां से अपूर्वानुमेय नहीं रह जाते हैं । समझ में आ जाते हैं । जैसे कि कई साल पहले एक गाने को सुनकर मैंने झटके में कह दिया था कि यह तो खय्याम का संगीत है ! लोग इंटरनेट खंगाल रहे थे ।
खय्याम अपने ग्रैंज्योर के लाक्षणिक लोक से पहचाने जाते हैं । यह कोई महानता तो नहीं कि आप अपनी संगीत रचना के साथ फौरन समझ में आ जाएं परंतु खय्याम अपने माधुर्य की निरंतरता और एक विशिष्ट ध्वनिमोह के साथ ही आगे बढ़ते हैं ।

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कभी-कभी, त्रिशूल, थोड़ी सी बेवफ़ाई, दर्द के गाने इसके प्रमाण हैं । यह प्रभाव उनके गीतों में कहीं सूक्ष्म कहीं स्पष्ट है । बाज़ार, उमराव जान और रज़िया सुल्तान उनके संगीत का तीसरा युग है । बाज़ार में भी उस सिंफ़नी का मोह है । वह सुनाई भी पड़ता है परंतु खय्याम परिवेश में घुसकर कुछ लखनवी सा रचते हैं । उमराव जान बाजार से जरा अलग है ! यहां खय्याम पाक़ीज़ा के विलक्षण संगीत को ध्यान में रखते हैं । पाक़ीज़ा ग़ुलाम मुहम्मद और लता का है तो उमराव जान खय्याम और आशा का ! मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है !! ये क्या जगह है दोस्तो, इस फिल्म का श्रेष्ठ गीत है ।

रज़िया सुल्तान मील का पत्थर है । ऐ दिल ए नादां उनकी भव्यता का उत्कर्ष है । यहां वो अपने प्रिय आर्केस्ट्रा और उस विशिष्ट ध्वनिमोह को अपूर्व रूप से धारण करते हैं । तेरा हिज्र मेरा नसीब है और खुदा खैर करे में भी वही धुन बजती है । कब्बन मिर्ज़ा की अपरिष्कृत आवाज़ में भी गाना मधुर लगता है क्योंकि उसमें खय्याम का खून पसीना मिला हुआ है ।
जैसा कि पहले लिखा है, खय्याम अपने संगीत से पहचाने जाते हैं । यानी, पकड़ में आते हैं । उनमें बहुत विविधता नहीं है लेकिन गुणवत्ता का वैभव है । वे अपने स्तर से नीचे नहीं गिरते । हर संगीतकार की अपनी शैली होती है । खय्याम की भी अपनी शैली थी । खय्याम उस शैली से मुक्त होने की सबसे कम स्वतंत्रता ले सके । यह उनकी सीमा है । असीम कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता तो विरले लोगों में होती है ।
हमारे समय में खय्याम की भव्यता का वहन एक हद तक ए आर रहमान करते हैं । उनमें भी अननुमेय कुछ है नहीं । माधुर्य है । उनके कई गीत गानों के इस अल्पायु काल में मरे नहीं हैं। रहमान अपनी धुनों की पुनरावृत्ति के साथ भी मधुरता का निर्वाह करते हैं । यह बात और है कि उनमें खय्याम जैसा परिष्कृत स्वर सौष्ठव नहीं है ।

(टीवी पत्रकार दीभांशु झा के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)