Opinion – सरदार पटेल पर भ्रांतियाँ

सरदार पटेल को हिन्दूपरस्त करार देनेवाले विभाजन के वक्त दंगाग्रस्त दिल्ली में गृहमंत्री पटेल की भूमिका का खासकर उल्लेख करते हैं।

New Delhi, Oct 31 : यदि बल्लभभाई पटेल गृहमंत्री के बजाय कोई अन्य विभाग सँभालते तो मानसरोवर और कश्मीर की जैसी दशा उन छः सौ रियासतों की भी हो जाती, जो आज भारत संघ कहलाता है| तब दिल्ली में निर्मित जोधपुर हाउस, त्रावनकोर हाउस, बड़ौदा हाउस, सिंधिया हाउस आदि उन रजवाड़ों के दूतावास बन जाते| निजाम ने तो हैदराबाद को इस्लामी राज्य बना ही डाला था| अर्थात् जम्बू द्वीप स्वयं देशों का राष्ट्रकुल हो जाता| आपने ही वतन में वीजा लेकर यात्रा करनी पड़ती|

Advertisement

एक हकीकत थी 1947 के इतिहास की। इस्लामी पाकिस्तान के बनते ही यदि खण्डित भारत एक हिन्दु राष्ट्र घोषित हो जाता, तो उन्माद के उस दौर में शायद ही कोई उसका सबल विरोध कर पाता। मगर सरदार वल्लभभाई झवेरदास पटेल ने इसका पुरजोर प्रतिरोध किया। सांप्रदायिक जुनून को रोका। भारत पंथनिरपेक्ष रहा। अयोध्या विवाद पर लखनऊ हाईकोर्ट के निर्णय के अनुमोदन में कांग्रेसी नेता राशिद अल्वी ने एक गंभीर बात कही थी। उनका आकलन था कि भारत को धर्मप्रधान गणराज्य बनने से रोकने की हिम्मत एक भी मुसलमान तब न कर पाता। अल्वी ने बताया कि रातोंरात अपनी छत पर से मुस्लिम लीगियों ने चान्दसितारे वाला हरा परचम उतार लिया था और तिरंगा फहरा दिया था। अल्वी की राय थी कि हिन्दुओं के रहनुमाओं की हमें कद्र करनी चाहिए कि उन सब ने पाकिस्तानियों जैसी जिद नहीं ठानी।

Advertisement

आजादी के ठीक दो महीने दस दिन पूर्व (5 जून 1947) बी.एम.बिड़ला ने सरदार पटेल को लिखा था: ‘‘क्या अब सोचने का यह समय नहीं आ गया है कि भारत को हिन्दु राज्य तथा राज्यधर्म के रूप में हिन्दुत्व पर विचार करें ?’’ (सरदार पटेल: मुसलमान और शरणार्थी’’, स्व.पी.एन. चोपड़ा और डा.प्रभा चोपड़ा, प्रभात प्रकाशन,: 2006)। पढ़कर सरदार पटेल आक्रेाशित हुए और जवाब में लिखा, ‘‘मैं यह नहीं सोचता कि हिन्दुस्तान के राजधर्म के रूप में हिन्दुत्व और एक हिन्दुवादी देश जैसा देखना संभव होगा। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे भी अन्य अल्पसंख्यक वर्ग हैं जिनकी रक्षा हमारी प्रमुख जिम्मेदारी है। जाति अथवा धर्म पर ध्यान दिए बिना, देश या राज्य का अस्तित्व सभी के लिए होना चाहिए।’’

Advertisement

फिर भी जब जवाहरलाल नेहरू की सेक्युलर सोच से तुलना के समय लोग सरदार पटेल की मुस्लिम-विरोधी छवि विरूपित् करते है तो इतिहास-बोध से अपनी अनभिज्ञता वे दर्शाते हैं, अथवा सोचसमझकर अपनी दृष्टि एंेची करते हैं। स्वभावतः पटेल में किसानमार्का अक्खड़पन था। बेबाकी उनकी फितरत रही। लखनऊ की एक आम सभा (6 जनवरी 1948) में पटेल ने कहा था, ‘‘भारतीय मुसलमानों को सोचना होगा कि अब वे दो घोडों पर सवारी नहीं कर सकते।’’ इसे भारत में रह गये मुसलमानों ने हिन्दुओं द्वारा ऐलाने जंग कहा था। पटेल की इस उक्ति की भौगोलिक पृष्टभूमि रही थी। अवध के अधिकांश मुसलमान जिन्ना के पाकिस्तानी आन्दोलन के हरावल दस्ते में रहे। उनके पुरोधा थे चैधरी खलिकुज्जमां। मुसलमानों की बाबत पटेल के कड़वे मगर स्पष्टवादी उद्गार का अनुमान इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि अनन्य गांधीवादी होने के बावजूद वे सियासत तथा मजहब के घालमेल के कट्टर विरोधी थे। उनके निधन के दो वर्ष बाद से भारत में संसदीय तथा विधान मंडलीय प्रत्यक्ष मतदान प्रणाली शुरू हुई थी। तभी से सोच पर वोट का असर हो चला था। अतः जवाहरलाल नेहरू के लिए तुष्टिकरण एक चुनावी विवशता तथा सियासी अपरिहार्यता बन गई थी।

मुसलमानों के प्रति अनुराग, उनकी खैरख्वाही सरदार पटेल में 1931 से ही बढ़ी थी, जब वे राष्ट्रीय कांगे्रस के कराची अधिवेशन के लिए सभापति निर्वाचित हुए थे। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में पटेल ने संकल्प किया था कि स्वाधीन भारत कं संविधान का आधार समस्त समुदायों की समता पर होगा। हर अल्पसंख्यक के लिए कानूनी सुरक्षायें समाहित होंगी। सीमान्त गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान, जिन्हें पटेल आदर्श मुसलमान मानते थे, ने पटेल की घोषणा की प्रशंसा की थी। पटेल ने सार्वजनिक मंच से तब कहा कि वे कोरे कागज पर अपनी स्वीकृति लिख देंगे कि जो भी कानूनी गारन्टी आजाद हिन्द में मुसलमान चाहते हैं, उन्हें कांग्रेस सरकार पूरा करेगी।

पटेल को हिन्दूपरस्त करार देनेवाले विभाजन के वक्त दंगाग्रस्त दिल्ली में गृहमंत्री पटेल की भूमिका का खासकर उल्लेख करते हैं। तब पटेल से बढ़कर शायद ही कोई मुसलमानों की हिफाजत का इतना बड़ा अलमबरदार रहा हो। दिल्ली के प्रथम चीफ कमिश्नर के पद पर पटेल ने मुसलमान प्रशासनिक अधिकारी को नियुक्त किया। उच्च न्यायालय (मद्रास) में बशीर अहमद को भेजा हालांकि प्रधान न्यायाधीश कानिया ने इसका विरोध किया था। उन्हीं दिनों उमरी बैंक को हिन्दू दंगाइयों ने लूटने की कोशिश की। इसमें अधिकतर मुसलिम जमाकर्ताओं की पूँजी लगी थी। पटेल ने विशेष टुकड़ी तैनात की थी। बैंक बचा रहा। मुसलमानों का एक विशाल जत्था भारत छोड़कर पंजाब सीमा पार कर पाकिस्तान जा रहा था। अमृतसर में सिक्खों ने उन्हें घेर लिया। भारत का गृहमंत्री अमृतसर खुद गया। सिक्खों को मनाया। सभी पाक शरणार्थी वाघा सीमा पार चले गये। अजमेर दरगाह हर आस्थावान का पूज्य रहा। चैबीस वर्षों बाद (1923 में) 20 दिसम्बर 1947 को दंगे भड़के। महावीर सेना के आक्रमणकारियों ने विस्फोट कर डाला। पटेल ने सशस्त्र बल भेजा। दरगाह बच गई, मगर पुलिस की गोली से 55 दंगाई मारे गए और 87 घायल हो गये।

मुसलमानों से हार्दिक सरोकार रखनेवाले पटेल का नायाब उदाहरण मिलता है जब 30 जनवरी 1948 को सूचना व प्रसारण मंत्री के नाते पटेल ने आकाशवाणी से बार-बार घोषणा कराई की बापू का हत्यारा हिन्दु था। पुणे का चित्पावन विप्र नाथूराम गोड्से हिन्दु महासभा का सक्रिय सदस्य था। हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग की महती भूमिका रही महात्मा गांधी पर आक्रामता में। यदि पटेल हिन्दू हत्यारे का नाम घोषित न कराते, तो मुसलमानों की वही दुर्दशा होती जो इन्दिरा गांधी की सरदार बेअन्त सिंह द्वारा हत्या (31 अक्टूबर 1984) के बाद सिख समुदाय की हुई। प्रचार कुछ दंगाइयों ने कर भी दिया था कि गांधी का हत्यारा इस्लाम मतावलम्बी था।

(वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)