Opinion – शिवसेना ने दांव तो सही खेला था, लेकिन यहां हो गई चूक

अब इसमें शिवसेना को ये विश्लेषण करना जरूरी है कि चूक कहा हुई और क्या वाकई एनसीपी और कॉंग्रेस उसका समर्थन कर रही थी ?

New Delhi, Nov 17 : बीजेपी-जो सबसे बड़ी पार्टी थी उसको उसके साथ गठबंधन में चुनाव लड़ी शिवसेना ने मझधार में छोड़ दिया –मुद्दा मुख्यमंत्री पद का था लेकिन रणनीति दबाव की थी—जाहिर है जिस धारा में इन दिनों बीजेपी बह रही है वो काफी तेज धार है और इसमे कोई दबाव सहयोगी पार्टीयो का बीजेपी कतई बर्दाश नही कर सकती भले नीतीश कुमार के पार्टी के ज्यादा सांसदों को केंद्र में मंत्री बनाने की बात हो या ममता बनर्जी के आक्रामकता को झेलने की बात हो बीजेपी के आलाकमान अब हर बाधा को तोड़ने की रणनीति समझ चुके है और पीएम नरेंद्र मोदी जी के रूप में बीजेपी के पास अति शक्तिशाली, जन नेता के रूप में ऐसा नेता है जो आज के पहले बीजेपी पार्टी ने नही पाया था

Advertisement

अब बात शिवसेना की–शिवसेना के रणनीतिकारों को ये बात समझ नही आई कि मोदी जी और अमित शाह पर उनके दबाव की ये रणनीति बिल्कुल काम नही आएगी( स्वर्गीय बालासाहेब ठाकरे के ज़माना कुछ और था)
शिवसेना ने दांव तो सही खेला लेकिन एक अदद दबाव के बाद उपमुख्यमंत्री पद और 4-5 एक्स्ट्रा केबिनेट पद पर शिवसेना को मान जाना चाहिए था—शिवसेना को बीजेपी को साथ लेकर चलना चाहिए था क्योंकि 1995 मैं बालासाहेब ने बीजेपी को बहुत कुछ दिया और ये बात जगजाहिर है कि इसी काल में सत्ता पर काबिज होकर महाराष्ट्र में बीजेपी का प्रभाव भी बढ़ा और लगातार बढ़ता चला गया

Advertisement

2002 के गुजरात दंगे में जब अटलजी ,आडवाणी सब मोदीजी से नाराज़ हुए थे तब बालासाहेब ने खुलकर मोदीजी का समर्थन किया था जिसके बाद गुजरात में मोदी जी की लोकप्रियता बढ़ी और वो धीरे धीरे राष्ट्रीय नेता बन गए–2013 मकीन तत्कालीन बीजेपी राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह जी ने खुलकर मोदीजी के पीएम पद पर मुहर लगाई और मोदीजी को पार्टी का पीएम उम्मीदवार बनाया और 2014 में मोदीजी की बम्पर जीत भी हुई।
2014 में भी शिवसेना लोकसभा का चुनाव बीजेपी के साथ मिलकर लड़ी लेकिन शिवसेना को केंद्र में बीजेपी ने वो सम्मान नही दिया जिसकी वो हकदार थी ( बीजेपी की सबसे पुरानी सहयोगी थी और सहयोगी पार्टीयो में सबसे ज्यादा सांसद शिवसेना के थे)

Advertisement

इसका दुख स्वाभाविक है शिवसेना नेताओ को हुआ और 2014 का विधानसभा चुनाव वो अकेले लड़ गई–सीटे भी शिवसेना को अपेक्षाकृत ठीकठाक ही मिली लेकिन बीजेपी ने महाराष्ट्र में भी शिवसेना को दुय्यम दर्जे का ट्रीटमेंट ही दिया
अब जब 2019 मैं शिवसेना को दोबारा केंद्र में सम्मान नही मिला तो मौके की नजाकत को देखते हुए शिवसेना ने 50-50 फॉर्मूले पर सरकार बनाने की जिद पकड़ ली
इस जिद को बीजेपी ने तो नही माना लेकिन शरद पवार और कॉंग्रेस जरूर शिवसेना का साथ देती नज़र आई

लेकिन शिवसेना की चूक इन दोनों पार्टियों के समर्थन जुटाने में हो गई–जब तक खुद उद्धव ठाकरे मैदान में उतर के कमान संभालते तब तक देर हो चुकी थी और गेंद राज्यपाल के हाथ में चली गई और राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुशंषा जाहिर कर दी जिसे राष्ट्रपति ने मान भी लिया
अब इसमें शिवसेना को ये विश्लेषण करना जरूरी है कि चूक कहा हुई और क्या वाकई एनसीपी और कॉंग्रेस उसका समर्थन कर रही थी ?
क्या कोई बाहरी डर था जिसके चलते एनसीपी खुलकर शिवसेना के साथ सरकार बनाने में नही खड़ी हुई–क्या राज्यपाल से एनसीपी नेताओ का मिलना सिर्फ औपचारिकता भर थी ,क्या थी कॉंग्रेस पार्टी की मजबूरी जो उसके आलाकमान खुलकर शिवसेना के समर्थन में बयान तक नही दे पाए जबकि दोनो पार्टियां एनसीपी और कॉंग्रेस यही कहते रहे कि वो बीजेपी को महाराष्ट्र में सत्ता से दूर रखना चाहते है

क्या कॉंग्रेस के सभी विधायकों को जयपुर ले जाना और एनसीपी के सभी विधायकों का समर्थन पत्र राज्यपाल को सौंपना ये भी औपचारिकता ही थी तो इस औपचारिकता के खेल के पीछे की राजनीति क्या थी इसका भी विश्लेषण अब शिवसेना को करना होगा
और लाख टके का सवाल ये की क्या महाराष्ट्र की 15 करोड़ जनता 2 महीने के टैक्स पेयर के करोड़ो रूपये चुनाव में लगाये जाने के बाद एक बार फिर मध्यवती चुनाव के लिए मजबूर हो गई है ?
इसका जवाब वक़्त आने पर मिल ही जायेगा

(वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश सिंह के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)