राजीव गांधी को कभी माफ नहीं करेंगी गज़ाला की आंखें!

कांग्रेस का ये पाप भी कहीं इतिहास के पन्नों में दर्ज होने से न बच जाए, इसके लिए आपको 1984 के भोपाल गैस कांड का काला सच जानना ज़रुरी है।

New Delhi, Dec 04 : कुछ त्रासदियों के बारे में आप सिर्फ पढ़ते हैं और कुछ त्रासदियां आपके जीवन का हिस्सा होती हैं, आज से ठीक 35 साल पहले 1984 की 2 और 3 दिसंबर की दरमियानी रात हुआ भोपाल गैस कांड मेरे जीवन का एक भयानक हिस्सा है। उस रात मैं भी हज़ारो बच्चों की तरह अपने पिता को खो सकता था, जो यूनियन कार्बाइड से महज़ 2 किलोमीटर की दूरी पर थे। मैं खुशकिस्मत था, मेरे पिता उस दिन बच गए लेकिन गज़ाला मेरी तरह खुशकिस्मत नहीं थी। उसकी किस्मत तो उसी रात उससे रूठ गई, जब मैं भोपाल में स्कूल में पढ़ता था तब मैंने गज़ाला को देखा था, और उसकी आंखें तो जैसे मेरे बचपन की वो दर्दनाक याद बन गईं जिसे मैं आज तक नहीं भूला हूं। आप भी गज़ाला की तस्वीर कमेंट बॉक्स में देख सकते हैं।

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गज़ाला का हिंदी में मतलब होता है “खूबसूरत आंखें”, शायद गज़ाला की खूबसूरत आंखों को देखकर ही उसके अम्मी-अब्बू ने उसका नाम गज़ाला रखा होगा। लेकिन 84 की उस रात गज़ाला की आंखों को भोपाल गैस कांड की नज़र लग गई। ज़हरीली गैस ने गज़ाला की आंखों की ना केवल रौशनी छीनी बल्कि उन्हे बदनुमा भी बना दिया। गज़ाला का गम उसके अम्मी-अब्बू देख नहीं सके और कुछ सालों में वो भी गुज़र गए, आज गज़ाला अकेली है, और जानते हैं गज़ाला को अपनी आंखों की क्या कीमत मिली ? सिर्फ 3 लाख रुपये, वो भी किस्तों में, क्या 3 लाख रुपये में एक अकेली अंधी औरत अपनी पूरी ज़िंदगी गुजार सकती है ? क्या गज़ाला कभी राजीव गांधी को माफ कर पाएगी ? अब आप सोच रहे होंगे गज़ाला की इस दर्दनाक कहानी के बीच में राजीव गांधी कहां से आ गए ? वो इसलिए क्योंकि गज़ाला की खूबसूरत आंखों की ये मामूली कीमत लगाई थी राजीव गांधी की सरकार ने।

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कांग्रेस का ये पाप भी कहीं इतिहास के पन्नों में दर्ज होने से न बच जाए, इसके लिए आपको 1984 के भोपाल गैस कांड का काला सच जानना ज़रुरी है। भोपाल गैस कांड के बाद हज़ारो पीड़ितों ने मुआवज़े के लिए अलग-अलग दावे ठोके थे, केस अमेरिकी कंपनी के यूनियन कार्बाइड के खिलाफ था इसीलिए राजीव गांधी सरकार ने गैस पीड़ितों को संसद के ज़रिए एक भरोसा दिलाया। राजीव गांधी की सरकार ने कहा कि इतने सारे केस सब लोग अलग-अलग अकेले लड़ें, इससे कोई फायदा नहीं होगा। बेहतर होगा कि सरकार एक एक्ट बनाकर कानूनी लड़ाई के सारे अधिकार खुद ले लें और सभी गैस पीड़ितों की तरफ से अदालती लड़ाई लड़ी जाए। लिहाज़ा राजीव गांधी ने संसद में अपने प्रचंड संख्याबल की दम पर एक्ट पारित करवाया जिसका नाम था – “भोपाल गैस लीक डिजास्टर प्रोसेसिंग ऑफ क्लेम्स एक्ट, 1985”, गैस पीड़ितों को लगा कि राजीव गांधी तो देवता हैं, देखो, उनकी सरकार कितनी मदद कर रही है। बेचारे हम सब अकेले-अकेले यूनियन कार्बाइड जैसी बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी से कैसे लड़ेंगे ? लेकिन अगर भारत सरकार हमारी ओर से अदालत में लड़ेगी, तो उसकी ताकत के आगे यूनियन कार्बाइड की हार तय है।

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खैर, सुप्रीम कोर्ट में केस शुरु हुआ, गैस पीड़ितों की तरफ से राजीव गांधी की सरकार ने यूनियन कार्बाइड पर 3900 करोड़ रुपये का दावा ठोका। कई लोगों के मुताबिक ये रकम भी कम थी और मुआवज़ा इससे कहीं ज्यादा बनता था लेकिन लोगों को लगा कि चलो ठीक है, इतना ही मिल जाए, लेकिन तभी इस केस में आया एक मोड़, 1989 के आते-आते राजीव गांधी को ये अहसास हो गया कि इसी साल होने वाले चुनावों में उनकी सत्ता जाने वाली है तो जाते-जाते उन्होने कर दिया एक खेल, खेल क्या था जनाब 20000 लाशो का सौदा था, और साथ ही सौदा था गज़ाला की आंखों का।

14 फरवरी 1989 में सुप्रीम कोर्ट के बाहर अचानक राजीव गांधी की सरकार ने यूनियन कार्बाइड से एक समझौता कर लिया, और जानते हैं इस समझौते की कीमत क्या थी। सिर्फ 715 करोड़ रूपये, सोचिए राजीव गांधी की सरकार ने कार्बाइड से कहां तो 3900 करोड़ रूपये मांगे थे और डील कर डाली 715 करोड़ रूपये की। अब देखिए सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने क्या किया। ठीक अगले दिन यानि 15 फरवरी को राजीव सरकार और कार्बाइड के इस समझौते को सही मानते हुए टर्म ऑफ सैटिलमेंट पर अपनी मुहर लगा दी। इस एक टर्म ऑफ सैटिलमेंट के मुताबिक यूनियन कर्बाइड न सिर्फ 715 करोड़ रुपये की मामूली रकम देकर बच गई बल्कि उस पर से लोगों की जान लेने वाले अपराधिक मुकदमें भी हटा दिए गए।

कानूनी भाषा के बजाए आसान शब्दों में कहा जाए तो, यूनियन कार्बाइड ने गैस पीड़ितों के मुंह पर 715 करोड़ रूपये मारते हुए कहा कि भिखारियों ये पकड़ों भीख और दफा हो जाओ। अब किसी कोर्ट, कचहरी, अदालत में मत दिखना। आज से हमारी सारी जिम्मेदारी खत्म, अब जाओ और जाकर तिल-तिल कर मरो। तुम अब हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते क्योंकि हमने तुम्हारे आका राजीव गांधी से समझौता कर लिया है। राजीव गांधी की सरकार का ये घिनौना पाप यहीं खत्म नहीं होता है। भोपाल गैस कांड में उस रात और बाद के कई महीनों में उस गैस के प्रभाव से करीब 20 हज़ार लोग मारे गए थे। लेकिन राजीव सरकार ने सिर्फ 5265 लोगों की मौत मानी, गैस पीड़ित होने का दावा 10 लाख लोगों ने किया था लेकिन सरकार ने सिर्फ 5.74 लाख लोगों को ही गैस पीड़ित माना। फिर भी सोचिए क्या 715 करोड़ रुपये की रकम इन करीब 6 लाख लोगों के लिए काफी थी ?

किसका क्या बिगड़ा ? इस समझौते पर मुहर लगाने वाले सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस आर एस पाठक रिटायर होने के बाद राजीव गांधी सरकार की अनुशंसा पर इंटरनेशनल कोर्ट के जज बन गए। एक और जस्टिस रंगनाथ मिश्रा (पिछले चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के चाचा) रिटायर होने के बाद 1998 में कांग्रेस की तरफ से राज्यसभा मेंबर बन गए, और भोपाल का कातिल वारन एंडरसन जिसे ताउम्र सलाखों के पीछे होना चाहिए था लेकिन राजीव गांधी की मेहरबानी से वो चंद घंटों में ही आजाद होकर अमेरिका उड़ गया, और कईं सालों बाद अपने आलीशान फार्महाउस में चैन की मौत मर गया। बस जिंदा होकर भी तिल-तिल कर मरने के लिए मजबूर हैं तो सिर्फ गज़ाला जैसे लाखों लोग, अब आप ही बताइये क्या गज़ाला की आंखें कभी राजीव गांधी को माफ कर पाएंगी ?

सोचिए अगर कोई भारतीय कंपनी अमेरिका में यूनियन कार्बाइड जैसा हादसा करती तो क्या अमेरिकी सरकार सिर्फ 715 करोड़ रुपये लेकर उसे छोड़ देती ? नहीं, कभी नहीं, 2010 में अमेरिका की मैक्सिको की खाड़ी में ब्रिटिश पेट्रोलियम के तेल के कुएं में हुए रिसाव से 11 अमेरिकी कर्मचारियों की मौत हो गई थी और 87 दिनों में मैक्सिको की खाड़ी में लाखों बैरल तेल समुद्र में फैल गया था। जानते हैं अमेरिका ने 11 जिंदगियों और पर्यावरण को हुए नुकसान की कीमत क्या लगाई। 90 हज़ार करोड़ रूपये, जी हां पूरे 90 हज़ार करोड़ रुपये ब्रिटिश पेट्रोलियम को भरने पड़े, वो इसलिए क्योंकि उस वक्त अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा थे, राजीव गांधी नहीं।
नोट – भोपाल गैस कांड के पापियों का सिर्फ यही एक पाप नहीं था… कैसे भागा था वारन एंडरसन… उसका राज़ भी खोला जाएगा…

(वरिष्ठ पत्रकार प्रखर श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)