Opinion: आखिर महिलाओं से अन्याय और हिंसा के पीछे कौन सा मनोविज्ञान काम करता है? ‘सोच बदलने से बदलेगी सूरत’

कुछ साल पहले संयुक्त राष्ट्र का एक सर्वेक्षण सामने आया था जिसमें एशिया प्रशांत क्षेत्र के देशों में हर चौथे पुरूष ने कम से कम एक महिला से दुष्कर्म की बात मानी थी…

New Delhi, Dec 09: भारत के प्राचीन ग्रंथों से लेकर आधुनिक विमर्श तक जहां भी देवी का वर्णन है, वहां शक्ति उसके पर्याय स्वरूप उपस्थित है। जब कभी राक्षसों से देवता परेशान हुए, तो उन्होंने अपनी अपनी शक्तियों से एक बलवान देवी को जन्म दिया। आशय ये कि शक्ति का ये रूप बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान बना जो कालांतर में औरतों को देवी का दर्जा देने का आधार बना। लेकिन फिर काल के चक्र में शक्ति की ये भक्ति छलावा साबित हुई। जिस औरत को भगवान कहा गया उसका इंसान बने रहना भी मुश्किल हो गया। अन्याय के इस अंतहीन सिलसिले के बीच ऐसी अनगिनत दास्तान हैं, जिन्होंने आधी आबादी का चैन ही नहीं छीना, समाज की हर संवेदनशील सोच को भी बैचेन किया है।

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हैदराबाद में लेडी वेटेनरी डॉक्टर के साथ गैंगरेप और फिर उसे जिंदा जलाकर मार देने के वहशी कृत्य से देश एक बार फिर बेचैन हुआ है। जगह-जगह गुस्सा प्रदर्शन बनकर सामने आया। सड़क से संसद तक देश एक साथ खड़ा दिखा। उन्नाव में हुई वारदात भी रौंगटे खड़े कर देने वाली है। खुद पर हुए जुल्म के खिलाफ पीड़िता का अदालती लड़ाई के लिए घर से निकलना बलात्कारियों को इतना नागवार गुजरा कि उन्होंने उसे जिंदा जलाने की हिमाकत कर डाली। 95 फीसदी तक जली पीड़िता ने दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में इलाज के दौरान दम तोड़ दिया।
हैदराबाद और उन्नाव की इन वारदातों में समानता यह है कि दोनों घटनाओं को दिन-दहाड़े अंजाम दिया गया। एक में बलात्कार के सबूत मिटाने के मकसद से पीड़िता को ज़िन्दा जलाया गया, जबकि दूसरे मामले में ऐसा पीड़िता को ‘सबक’ सिखाने की नीयत से किया गया।
दोनों घटनाएं क्रूर हैं, अपराधियों के बेखौफ होने का सबूत हैं। उन्नाव की घटना इस मायने में अधिक गम्भीर है क्योंकि इसमें अपने हक के लिए न्याय की लड़ाई के रास्ते को भी बंद कर देने का दुस्साहस दिखता है। हैदराबाद केस में तो राज्य के मुख्यमंत्री एन चंद्रशेखर राव घटना के दूसरे दिन ही शादी की दावत उड़ाने हैदराबाद से सैकड़ों किलोमीटर दूर दिल्ली पहुंच गए, लेकिन उन्हें उससे कई गुना कम फासला तय कर पीड़िता के घऱ जाकर मातमपुर्सी की ज़रूरत महसूस नहीं हुई।

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गुस्से में उबल रहे देश ने इसके बाद जो देखा वो भी कम हैरान करने वाला नहीं है। एक संगीन घटनाक्रम में चारों आरोपी ठीक उसी जगह एनकाउंटर का शिकार हुए, जहां उन्होंने वारदात को अंजाम दिया था। हैदराबाद पुलिस की थ्योरी पर भले ही प्रश्न उठें, लेकिन पुलिस के इस एक्शन पर पूरे देश में जश्न मना। एनकाउंटर में शामिल पुलिसवालों पर भीड़ ने फूल बरसाए, तो महिलाओं ने उन्हें रक्षा सूत्र बांधे। हैदराबाद के जिस पुलिस कमिशनर को दिन-दहाड़े हुई जघन्य वारदात के बाद जीरो बताया जा रहा था, वही इस कार्रवाई के बाद रातों-रात हीरो बन गए। फैसला ऑन द स्पॉट वाली ये कार्रवाई भले ही गैर-कानूनी लगे लेकिन देश की जनता को यह रास आई है। हमारे लीगल सिस्टम के लिए इसका संदेश बेहद खतरनाक है। जनता अब फैसले के लिए लंबा इंतजार और तारीख पर तारीख की मार झेलने को तैयार नहीं है।

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बलात्कार जैसी घटना से पहले और बाद में अपराधियों के लिए समाज का बर्ताव महत्वपूर्ण हो जाता है। इसी पर अपराधियों का व्यवहार भी निर्भर करता है। उन्नाव के मामले में बलात्कार पीड़िता लगातार आरोपियों से धमकी मिलने की शिकायत करती रही, मगर पुलिस लापरवाह बनी रही। हैदराबाद की घटना के बाद भी राज्य के गृह और शिक्षा मंत्री के ऐसे बयान सामने आए जिसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि महिला डॉक्टर के साथ घटी घटना के लिए खुद वही जिम्मेदार थी।
इन घटनाओं पर लगाम के लिए कानून को सख्त बनाने के हिमायती सुर फिर सुनाई देने लगे हैं। लेकिन ये काम तो हम सात साल पहले ही कर चुके हैं। निर्भया को इंसाफ दिलाने के लिए कानून सख्त तो किए गए थे, नतीजा क्या निकला? दुष्कर्म कम तो नहीं हुए, उल्टे गैंगरेप की तादाद बढ़ गई।

2004 में धनंजय चटर्जी को बलात्कार और हत्या के मामले में फांसी दी गई थी। उसके बाद से बीते 15 साल में किसी बलात्कारी को फांसी नहीं दी गई। साल 2016 में प्रकाशित एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार 10 साल में 2 लाख 78 हज़ार 886 महिलाओं के साथ बलात्कार हुए जबकि सजा की दर केवल 25 फीसदी के करीब रही। अकेले साल 2016 में 38,947 महिलाओं के साथ बलात्कार हुए जिनमें 2167 महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना सामने आई।
आखिर महिलाओं से अन्याय और हिंसा के पीछे कौन सा मनोविज्ञान काम करता है? कुछ साल पहले संयुक्त राष्ट्र का एक सर्वेक्षण सामने आया था जिसमें एशिया प्रशांत क्षेत्र के देशों में हर चौथे पुरूष ने कम से कम एक महिला से दुष्कर्म की बात मानी थी।
लैंसेट ग्लोबल हेल्थ में छपी इस स्टडी का सार ये निकला कि 70 फीसदी दुष्कर्मी बलात्कार को अपना अधिकार मानते हैं। 60 फीसदी ने तो केवल अपनी ऊब मिटाने के लिए इस ‘अधिकार’ का इस्तेमाल किया। सर्वेक्षण में शामिल केवल 23 फीसदी लोगों को अपने किए की सजा मिली।

मोबाइल और इंटरनेट के दौर में इस मानसिकता के तार पोर्न फिल्में, एमएमएस जैसी बुरी आदतें से भी जुड़ते हैं। बलात्कार और उसका वीडियो बनाना अब अपराधियों का शगल बन चुका है। समाज में जो ‘अपराधी’ शराफत का लबादा ओढ़े बैठे हैं, वो ऐसे वीडियो के तलबगार होते हैं। यू-ट्यूब के सर्च रिजल्ट में हैदराबाद केस का ट्रेंड करना हमारे आस-पास के समाज की ही तो मानसिकता है। इससे पहले कठुआ में बच्ची से बलात्कार के केस में भी बलात्कार का वीडियो ढूंढने की इस विद्रूप सोच ने हमें शर्मसार किया था।
तो फिर रास्ता क्या होना चाहिए? एक स्त्री का सम्मान नहीं कर पाना यह बताता है कि समाज में परवरिश की समस्या है। बच्चे की पहली पाठशाला उसका घर है और माता-पिता उसके पहले शिक्षक। बच्चा जब घर में ही अपने पिता के हाथों मां का अपमान होते देखता है तो यही सोचता है कि जब इनका मान नहीं तो फिर किसका सम्मान होना चाहिए। औरत की यह दशा चाक पर गीली मिट्टी की तरह बाल मन पर ताउम्र अपनी छवि बना लेती है।
समस्या वहीं से शुरू हो जाती है जहां लड़के-लड़कियों में भेदभाव होता है जो आगे चलकर स्त्रियों के दोयम दर्जे में बदल जाता है। समय से आगे की सोच को लेकर विवादास्पद रहे आचार्य रजनीश के दर्शन से भी समाज की इस रूढ़िवादी मानसिकता का पता चलता है। रजनीश के मुताबिक औरत को परतंत्र बनाने में सामाजिक व्यवस्था का बड़ा हाथ है जबकि मानसिक रूप से कोई भी महिला परतंत्र नहीं होती। अगर महिला की जिंदगी के एक हिस्से को मुक्त कर उसे निर्णय लेने की आजादी दी जाए, तो न केवल महिलाओं की दशा बल्कि समाज की दशा भी सुधारी जा सकती है।

रजनीश के दर्शन की भले ही व्यापक स्वीकृति न हो, मगर महिलाओं की दशा सुधारने वाली इस सोच से भला कौन इनकार करेगा। जब तक माता-पिता, परिवार, धर्मगुरु, शिक्षक और तमाम सामाजिक संगठन नई क्रांति लाने के भाव से काम नहीं करते, यह मर्ज फैलता ही जाएगा।
इसके लिए प्रशासन को चुस्त-दुरूस्त रखना भी बहुत जरूरी है। पुलिस के भ्रष्ट होने का असर अपराध पर ही पड़ता है। इसलिए समय-समय पर लापरवाह पुलिसकर्मियों को सज़ा भी देते रहना होगा। न्याय की प्रक्रिया को तेज बनाए बगैर उम्मीद पैदा नहीं की जा सकेगी क्योंकि न्याय में देरी न्याय नकारने से कम नहीं। इस दिशा में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का पॉक्सो एक्ट में दया याचिका के प्रावधान को खत्म करने का सुझाव काफी महत्वपूर्ण है। इससे यौन अपराध के शिकार नाबालिग बच्चों को तेजी से इंसाफ मिल सकेगा।
इसी तरह राजनीतिक नेतृत्व को भी यह इच्छाशक्ति दिखानी होगी कि बलात्कार जैसे अपराध से किसी भी तरह से जुड़े व्यक्ति की उनकी पार्टी में कोई जगह नहीं है। ऐसी शिकायत मात्र आते ही राजनीतिक दलों को उन्हें निकाल बाहर करना होगा।
एहतियात और कार्रवाई दोनों जरूरी हैं। इनके जरिए ही अपराधियों में खौफ और सभ्य समाज में न्यायिक प्रक्रिया में भरोसा जगाया जा सकता है। हैदराबाद एनकाउंटर के बाद तो ये और भी जरूरी हो गया है क्योंकि फिलहाल तो जनसमर्थन आरोपियों के ऐसे ही अंजाम को देश का विधान बनाए जाने के पक्ष में खड़ा दिख रहा है।

(वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र राय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)