चाह बर्बाद करेगी हमें मालूम न था!

1932 में पहली फिल्म ‘मुहब्बत के आंसू’ से अपनी अभिनय यात्रा शुरू करने वाले सहगल को उनके सहज, भावपूर्ण अभिनय, गंभीर अदाओं और संजीदा गायिकी के कारण लोगों ने हाथोहाथ लिया।

New Delhi, Jan 18 : स्व. कुंदन लाल सहगल हिंदी ही नहीं,भारतीय सिनेमा के पहले महानायक रहे हैं जिनसे आधुनिक हिन्दी सिनेमा की यात्रा शुरू हुई थी। सिनेमा की अति नाटकीयता के उस दौर में वे पहले अभिनेता थे जिन्होंने स्वाभाविक अभिनय के नए-नए मुहाबरे गढ़े, जिसका अनुकरण उनके बाद के अभिनेताओं ने किया। बोलते सिनेमा की शुरुआत के बाद पिछली सदी के तीसरे और चौथे दशक में दिलीप कुमार और राज कपूर के उदय के पहले वे सिनेमा के एकमात्र सुपर स्टार थे। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि उनका नाम सुनते ही लोग सिनेमा घरों की ओर खिंचे चले आते थे। यह वह समय था जब हिंदी फ़िल्म उद्योग मुंबई में नहीं, बल्कि कलकत्ता में केंद्रित था। जम्मू में जन्मे सहगल ने अभिनय या संगीत की कोई विधिवत शिक्षा नहीं ली थी। आर्थिक अभाव में अपनी पढ़ाई छोड़ने वाले सहगल की रेलवे में टाईमकीपर की मामूली नौकरी से हिंदी सिनेमा के सुपरस्टार तक की यात्रा किसी परीकथा से कम रोमांचक नहीं है।

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1932 में पहली फिल्म ‘मुहब्बत के आंसू’ से अपनी अभिनय यात्रा शुरू करने वाले सहगल को उनके सहज, भावपूर्ण अभिनय, गंभीर अदाओं और संजीदा गायिकी के कारण लोगों ने हाथोहाथ लिया। उन्हें बेपनाह सफलता मिली 1933 में प्रदर्शित फिल्मों ‘यहूदी की लड़की’, ‘चंडीदास’ और ‘रूपलेखा’ से। उसके बाद जो हुआ वह इतिहास है। उन्होंने अगले पंद्रह वर्षों में छत्तीस हिन्दी फिल्मों में नायक की भूमिकाएं निभाई, जिनमें प्रमुख थीं – सुबह का सितारा, यहूदी की लड़की, राजरानी मीरा, चंडीदास, देवदास, स्ट्रीट सिंगर, बड़ी बहन, दुश्मन, ज़िन्दगी, परिचय, लगन, तानसेन, भक्त सूरदास, भंवर, शाहज़हां, कुरूक्षेत्र, परवाना और उमर खैयाम। वे रूपहले परदे के पहले देवदास थे। उनकी ज्यादातर फिल्मों ने सफलता का इतिहास रचा। कहते हैं कि सहगल के सिर पर बाल नहीं थे। वे विग लगाकर फिल्मों में अभिनय करते थे। अभिनेत्री कानन देवी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है – फिल्म ‘साथी’ की शूटिंग के दौरान हवा के झोंके से उनकी विग उड़ गई और उनका गंजा सिर दिखने लगा। लेकिन सहगल अपनी धुन में मगन शॉट देते रहे। इस पर दर्शक हंस पड़े। सहगल को पता चला तो वे झेंपने की जगह लोगों के ठहाकों में शामिल हो गए।’ हिंदी फ़िल्मों के अलावा उन्होंने कुछ बंगला और तमिल फिल्मों में भी अभिनय किया था।

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अभिनय के अलावा सहगल भारतीय सिनेमा के पहले सुरीले गायक भी रहे हैं। उस दौर में उनकी गायन शैली का अनुकरण नए गायकों के लिए सफलता की कुंजी मानी जाती थी। मुकेश और किशोर कुमार ने अपने कैरियर के आरंभ में सहगल साहब की गायन-शैली का अनुकरण किया था। अपनी आवाज़ की गहराई, सुरों की बारीक़ समझ और लफ़्ज़ों की संजीदा अदायगी के बल पर फिल्म गायिकी को ऊंचाई और गहराई देने का उन्हें श्रेय दिया जाता है। पाकिस्तानी शायर अफ़ज़ाल अहमद सैयद ने उनकी गायिकी के बारे में लिखा था – ‘जैसे काग़ज़ मरा‍कशियों ने ईजाद किया था, हुरूफ़ फिनिशियों ने, सुर गंधर्वों ने, उसी तरह सिनेमा का संगीत सहगल ने ईजाद किया। फ़क़ीरों-सा बैराग, साधुओं-सी उदारता, मौनियों-सी आवाज़, हज़ार भाषाओं का इल्म रखने वाली आंखें, रात के पिछले पहर गूंजने वाली सिसकी जैसी ख़ामोशी, और पुराने वक़्तों के रिकॉर्ड की तरह पूरे माहौल में हाहाकार मचाती एक सरसराहट ! बता दो एक बार, ये सब क्या है ? वह कौन-सी गंगोत्री है, जहां से निकल कर आती है सहगल की आवाज़ ?’ बालम आय बसो मेरे मन में, दुख के दिन अब बीतत नाहीं, एक बंगला बने न्यारा, बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय, करूं क्या आस निरास भई, जब दिल ही टूट गया, गम दिये मुस्तकिल, चाह बर्बाद करेगी हमें मालूम न था जैसे उनके गीतों के मुरीद आज भी लाखों की संख्या में हैं। अपने करियर में उन्होंने लगभग 185 गीत गाए थे जिनमें 142 फिल्मी और 43 गैर-फिल्मी गीत शामिल हैं। सहगल पहले गायक थे जिन्हें उस दौर में प्रचार-प्रसार की बेहद दिक्कतों के बावजूद देश के बाहर श्रीलंका, ईरान, इराक़, इंडोनेशिया, अफ़ग़ानिस्तान और फिजी जैसे देशों में लोग चाव से में सुनते थे। वे पहले गायक थे जिन्होंने गानों पर रॉयल्टी की शुरूआत की थी। सहगल को ग़ज़ल गायिकी सबसे ज्यादा पसंद थी। उनकी ग़ज़ल गायकी की बड़ी ख़ासियत यह थी कि वे ग़ज़ल को एक अनूठी तीव्रता से गाते थे। बेहतरीन मीटर, सिमेट्री तथा रूह से निकलने वाली संजीदा आवाज के साथ।

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मिर्ज़ा ग़ालिब सहगल के सबसे प्रिय शायर थे। उन्होंने ग़ालिब की बीस ग़ज़लों को अपनी आवाज दी थी। जब भी किसी सिलसिले में दिल्ली आना होता था, वे घंटो-घंटों ग़ालिब की मज़ार के पास बैठकर उनकी ग़ज़लें गुनगुनाया करते थे। कहते हैं कि एक बार उन्होंने ग़ालिब की टूटी-फूटी मज़ार की मरम्मत भी करवाई थी। अपने व्यक्तिगत जीवन में सहगल की सबसे बड़ी कमजोरी शराब थी। बिना शराब पिए न तो वे रियाज़ करते थे, न रिकॉर्डिंग स्टूडियो में गाते थे। पहली बार संगीतकार नौशाद ने उनसे ज़िद की कि वे बगैर शराब पिए उनका एक गीत गाकर देखें। फिल्म थी ‘शाहजहां’ और गीत था ‘जब दिल ही टूट गया हम जीकर क्या करेंगे। यह गीत उन्होंने सहगल से पहले बिना शराब पिए गवाया। सहगल की जिद पर नौशाद ने वही गीत उनसे शराब पिलाने के बाद भी गवाया। स्टूडियो में उपस्थित लोगों ने माना कि उन्होंने बिना पिए गीत को ज्यादा अच्छा गाया है। सहगल ने तब नौशाद का हाथ पकड़कर लगभग रोते हुए कहा था – ‘आप मेरी ज़िंदगी में पहले क्यों नहीं आए ? अब तो शायद बहुत देर हो गई है।’

अपनी जज़्बाती अदाकारी और रूहानी आवाज़ से सिने प्रेमियों के दिल पर राज करने वाले सहगल का अंतिम समय अच्छा नहीं बीता। अत्यधिक शराबखोरी की वज़ह से उनकी देह के कई अंग ही नहीं, उनकी आवाज़ भी उनका साथ छोड़ने लगी थी। अपनी शारीरिक दशा देख कर उन्हें अपनी मौत का अहसास शायद पहले ही हो गया था। अंतरंग मित्रों से उन्होंने मरने के पहले आज़ाद भारत को देखने की इच्छा जताई थी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। महज़ 42 साल की उम्र में 18 जनवरी, 1947 को वे संसार को अलविदा कह गए। नौशाद ने सहगल की मृत्यु के बाद उनकी बरसी पर लिखा था — ‘संगीत के माहिर तो बहुत आए हैं, लेकिन दुनिया में कोई दूसरा सहगल नहीं आया’।
कुंदन लाल सहगल की पुण्यतिथि (18 जनवरी) पर उन्हें भावभीनी श्रधांजलि !

(आईपीएस अधिकारी ध्रुव गुप्त के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)