जन्मदिन विशेष- आर्थिक विपन्नता ने कभी बाबा नागार्जुन की सोच को कहीं से भी प्रभावित नहीं किया

दिव्य भारतीय परंपराओं के अनुसार नागार्जुन भौतिक सुखों से वंचित ही नहीं हैं बल्कि अपनी आवश्यक आवश्यकताओं के साधन जुटा पाने में भी वे बुरी तरह असफल हैं। 

New Delhi, Jun 30 : नागार्जुन उन चंद लोगों में हैं जिन्हें कोई भी सरकारी या गैर सरकारी प्रलोभन लुभा नहीं सका। अतः दिव्य भारतीय परंपराओं के अनुसार नागार्जुन भौतिक सुखों से वंचित ही ंनहीं हैं बल्कि अपनी आवश्यक आवश्यकताओं के साधन जुटा पाने में भी वे
बुरी तरह असफल हैं। पर आर्थिक विपन्नता ने उनकी सोच को कहीं से भी प्रभावित नहीं किया है।
छात्र आंदोलन के प्रारंभिक चरण से ही वे अपनी कविताओं ंसे युवजनों का हौसला बुलंद करते आये हैं।

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बुढ़ापा और दमे से जर्जर शरीर को ढोते हुए वे पटना में कई सौ नुक्कड़ कवि गोष्ठियां कर चुके हैं।
छात्र संघर्ष समिति के किसी भी सभा, जुलूस ,प्रदर्शन या समारोह में आधी धोती को लुंगी की तरह पहने हुए छोटी सी खिचड़ी दाढ़ी वाले बाबा को शांति निकेतनी झोला लटकाये देखा जा सकता है।
सहजता और वेश भूषा में सादगी तो इतनी कि गत 5 अक्तूबर 1974 को विधान सभा के फाटक पर बाबा को पुलिस ने पकड़ लिया और पूछा,‘का नाम बा बाबा ?’ नागार्जुन ने कहा–‘बैजनाथ मिसिर।’
दूसरा सवाल था- ‘कहां घर बा ? इस पर बाबा ने कहा– ‘दरभंगा जिला।’ फिर थोड़ी देर की गपशप के बाद पुलिस ने उनसे कहा कि ‘देखीं मिसिर जी, इहां बड़ा हल्ला गुल्ला बा। रउआ,ऐह रास्ता से /पीछे का रास्ता बताते हुए /निकल जाईं ना त बेकारे फंस जायेब।’ बाबा ने खैनी पर ताल लगाई और धीरे से खिसक आये।

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उस सिपाही ने भी यह समझ कर संतोष की सांस ली कि अपने कमाऊ बेटे से मिलने गांव से शहर आए एक बूढ़े को उसने फिजूल परेशान होने से बचा लिया ! नागार्जुन से प्रतिपक्ष संवाददाता सुरेंद्र किशोर ने बातचीत का मौका आखिरकार निकाल ही लिया। सुरेंद्र किशोर–बिहार के छात्र संघर्ष में आपने और रेणु जी ने जिस तरह सक्रियता दिखलाई है, उससे सत्ता प्रतिष्ठान में हलचल मची है और आम लोगों ने साहित्यकारों की जन आंदोलन में अनिवार्य सहभागिता के औचित्य को और तीव्रता से महसूस किया है। क्या इस तीव्रता में और भी गति आने वाली है ?
नागार्जुन-दिन प्रति दिन मुझे लग रहा है कि मौजूदा जन आंदोलन लम्बे अर्से तक चलेगा। तात्कालिक परिणति का पहला अध्याय होगा विधान सभा का विघटित होना।

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निस्संदेह निकट भविष्य में ही विधान सभा विघटित होगी और उसके ढाई तीन महीने बाद ही जनता को नये ताजे विधायक मिलने जा रहे हैं।केंद्रीय सत्ता प्रतिष्ठान ने विधान सभाओं और विधान विधान परिषदों को लोक सभा तक को चंडूखाने में परिवत्र्तित कर दिया है।
हमारी डेमोक्रेसी निष्प्राण और निस्तेज बना कर छोड़ दी गई है।
इंदिरा कांग्रेस का ढांचा ही काले धन की बुनियाद पर खड़ा है।
ऐसे में हम अपने को प्रस्तुत आंदोलन से कैसे और कब तक अलग रखते ?
हम शीघ्र ही लोकतांत्रिक रचनाकार मंच की स्थापना करने जा रहे हैं।
सु.कि.-साहित्यकारों-रचनाकारोें के दूसरे संगठन भी तो हैं।उनमें से दो एक संगठन ऐसे भी रहे हैं जिनसे आपका निकट का संपर्क बना रहा।
ना.-तुम्हारा जिस संगठन से अभिप्राय है सुरेंद्र, वह मैं समझ गया।प्रगतिशील लेखक संघ न !
सत्ता -प्रतिष्ठान के महाप्रभुओं को प्रगतिशीलता और सदाशयता का प्रमाणपत्र बांटने वाले उन बंधुओं की बात पिछले कई वर्षों से मेरे अंदर घुटन पैदा करती रही है।
सु.-साहित्य,राजनीति,समाज और व्यक्तिगत जीवन में क्या आप संतुलन रख पाते हैं ?
ना.-यह तो बड़ा ही मुश्किल लगता है।अर्ध सामंती और अर्ध औद्योगिक समाज जैसा कि वह है-हमारी प्रखरताओं के पंख कुतरता रहता है।आर्थिक और भौतिक दृष्टि से संपन्न-सुसंपन्न होना बहुत दूर की बात है।
यहां तो तृतीय श्रेणी की जीवन यात्रा के लिए उपयोगी सामान जुटा पाना ही दिनानुदिन असंभव होता जा रहा है।
बिहार सरकार पिछले दो तीन वर्षों से कुछ साहित्यकारों कलाकारों को लाइफ पेंशन देने लगी है।उनमें पहले पहल जिन दो नामों की घोषणा हुई थी ,वे गैर कांग्रेसी साहित्यकार थे-नागार्जुन और रेणु। हमने सहज विनम्रता के कारण ही इस वृति को अस्वीकार नहीं किया।
लेकिन शंका हुई कि कदाचित इस आॅफर में कहीं कुछ राज न हो !
खैर ,अभिव्यक्ति की अपनी प्रखरता में हमने कमी नहीं आने दी।लिखने का जो अपना ढर्रा था ,वह बरकरार रहा।परंतु हमेशा लगता रहा कि फलां फलां तरीका अपनाऊं तो शासन-प्रशासन मुझे अधिकाधिक संतोष प्रदान करेगा।लेकिन नहीं,इस लाभ -लोभ को लाइफ पेंशन की इन्हीं मासिक किस्तों तक सीमित रखे हुए हूं।जी हां,सरकारी खर्चे से एक बार काठमांडू और एक बार मास्को हो आया हूं।

हमारे कुछ प्रगतिशील बंधुओं को नेहरू फेलोशिप. मिली थी।जिन तरीकों से यह फेलोशिप मिलती है,वे हमें भी मालूम है।खैर बहती गंगा में हाथ धोने का चंस्का लगा होता तो फिर छात्रों की इस भीड़ में हम कैसे खड़े होते !
आजीवन अभावग्रस्त स्थिति में अपने को रखना या पारिवारिक दायित्व से मुंह चुराना कोई ऊंचा आदर्श नहीं है।
परंतु बहुजन समाज ही जिस देश में अभावग्रस्त जीवन जी रहा हो,वहां कुछेक साहित्यकार ,कुछेक कलाकार
ही भला सुखमय जीवन बिताना कैसे कबूल करेंगे ?
हां, जिनका संवेदन ठस्स पड़ गया हो या ‘समाज’ की परिभाषा ,जिनकी दृष्टि में बदल गयी हो,वे अवश्य ही चार दिन अपने -अपने शीश महल में रह लेंगे।समग्र समाज सुखी होगा तो हम भी सुखी होंगे न ?
कि अकेले -अकेले कुछ एक सरस्वती पुत्र श्रीमंतों की बिरादरी में शामिल होते चले जाएंगे ?
सु.-कम्युनिज्म के प्रति अब आपका क्या रुख होगा ?
ना.-साम्यवाद बहुत ही ऊंचा आदर्श है।
परंतु पिछले वर्षों में साम्यवाद की हमारे देश में जैसी दुर्दशा हुई है उससे दिल दिमाग को झटके लगे हैं।
साहित्य को छोड़कर मैं पूरी तरह राजनीति में आ गया होता और थोड़ी कुछ व्यावहारिकता अपना ली होती तो निश्चय ही साम्यवादी विधायक या सांसद होने का अवसर पा जाता।
मगर डांगेपंथी इंदिरा भक्तों के शब्दों में —-साहित्यकार है न आखिर ! बुद्धू है ! डायलेक्टिस का क ख ग तक नहीं जानता,कविता लिखना और बात है —।
यानी मुझे बार -बार यह लगता है कि पार्टी की ‘इनर सर्किल’में हमेशा वस्तु सत्य की ही विजय नहीं हुआ करती।अक्सर तिकड़म और गुटबाजी उभर -उभर कर आगे आ जाती है।
फिर भी सत्तर प्रतिशत सहानुभूति सी.पी.एम.के साथ है और तीस प्रतिशत सी.पी.आइ./एम.एल./के प्रति।यूं मैं अपने को निर्दलीय कम्युनिस्ट मानता हूं।
सु.-देश के प्रकाशन,पुरस्कार तथा इस तरह की अन्य संस्थाओं में सत्ताधारी प्रतिष्ठानों के बढ़ रहे प्रभाव से आप कोई असुविधा महसूस नहीं कर रहे हैं ?

ना.–बेशक ,काफी असुविधा महसूस करता हूं।फिर यही सोच कर तसल्ली पा लेता हूं कि यह सब तो थोड़ा -बहुत सभी देशों में चलता रहा है और सदा से चलता आया है।
समाचार पत्रों में स्वीडन ,स्विट्जरलैंड जैसे छोटे -छोटे राष्ट्रों के नागरिकों की सुविधापूर्ण स्थितियांें के बारे में पढ़ता हूं तो लगता है कि पुरानी परंपराओं से आक्रांत हमारा भारतीय समाज अभी चिर काल तक अर्ध सामंती दुःख दुर्दशा में डूबा रहेगा।सत्ता प्रतिष्ठान में पहुंच कर साधारण रविदास ‘बाबू जगजीवन राम ’तो बन जाएगा , बाबा साहेब अंबेडकर नहीं बनेगा।
जीवन के एक -एक क्षेत्र को अपनी गिरफ्त में लेने के लिए आकुल सत्ता प्रतिष्ठान बहुजन समाज की जीवन धारा को न केवल अवरुद्ध कर रहा है ,बल्कि उसमें अपनी गंदगियां भी डाल रहा है।
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/बाबा नागार्जुन से यह बातचीत साप्ताहिक प्रतिपक्ष के 3 नवंबर, 1974 के अंक में प्रकाशित हुई थी।/

(वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)