Opinion/ राम मंदिर- सृजन की बधाई

मैंने इस काम में एक सकारात्मकता को ढूंढ लिया है। मैंने पाया कि लाखों लोगों का एक संगठन जो बहुत जल्द सौ साल पूरे करने वाला है, संभवतः अपने पूरे दौर में पहली दफा एक रचनात्मक काम करने जा रहा है।

New Delhi, Aug 05: सृजन की बधाई। उन्हें, जो लोग जो आज अयोध्या में राम के मंदिर की नींव डालने पहुंचे हैं और उन्हें भी जो लोग आज इसलिए खुश हैं कि उन्हें लगता है, सात सौ साल बाद आज पहली दफा इस देश में हिंदुत्व का पलड़ा ऊंचा हुआ है। मैं उन सभी लोगों को बधाई देना चाह रहा हूं, जो आज इस घटना से खुश हैं। उन्हें सृजन की बधाई।
उन सब लोगों को सृजन की बधाई इसलिए नहीं कि मुझे भी लगने लगा है कि राम मंदिर बनने से कोई बहुत बड़ा बदलाव आ जायेगा। उन्हें इस बात की बधाई कि वे आज सृजन के काम में जुटे हैं। सृजन चाहे जैसा भी हो, वह इंसानों को बेहतर ही बनाता है, बदतर नहीं। इसलिए सृजन की बधाई।

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कहते हैं, कई बार अनुभवी बुजुर्ग बातों-बातों में कोई बड़ी बात कह बैठते हैं। ऐसे ही एक बुजुर्ग ने एक बार कह दिया था कि अगर कोई तुम्हारा शत्रु भी किसी सृजन के काम में जुट जाये तो खुशी मनाना, क्योंकि किसी चीज का निर्माण करना साधारण काम नहीं होता। यह बड़े धैर्य का काम होता है, इसमें सहयोग की जरूरत होती है, यह काम सृजन करने वाले को संवेदनशील बनाता है। यह उसके हृदय में दूसरों के प्रति संवेदना का विकास करता है। इसलिए अगर तुम्हारा शत्रु किसी सृजन के काम में जुट गया हो तो उम्मीद रखनी चाहिए कि उसके स्वभाव में कोई सकारात्मक बदलाव आयेगा। आज हठात मुझे उनकी कही यह बात तब याद आ गयी, जब राम मंदिर निर्माण के नींव के आयोजन की खबर हर तरफ थी और मैं समझ नहीं पा रहा था कि इस घटना पर कैसे प्रतिक्रिया व्यक्त करूं। और उनकी इस बात ने मुझे बचा लिया।

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यह सच है कि मैं किसी भी तरह के मंदिर के निर्माण को लेकर बहुत उत्साहित होने वाले लोगों में से नहीं हूं। मेरे गांव में कई लोग जब ठीक-ठाक कमाई करते हैं तो वे गांव के मंदिर को खूबसूरत बनाने में पैसे देते हैं। इससे उनकी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा बढ़ती है। मगर मुझे हमेशा लगता है कि अगर उन्होंने यह पैसे कुछ युवाओं को उनकी शिक्षा या रोजगार के लिए दे दिये होते तो ज्यादा पुण्य का काम होता। वे इस पैसे को किसी असहाय विधवा की मदद में भी खर्च कर सकते थे। गांव में एक पुस्तकालय भी खोल सकते थे। मगर हमारे गांवों में अभी भी परंपरा और सोच यही है कि लोग अपनी समृद्धि का जयघोष मंदिर बनाकर या बड़े भोज का आयोजन करके करते हैं। वे वंचितों, गरीबों, औऱ जरूरतमंदों की मदद करने में बहुत विश्वास नहीं करते।

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मैं इस कोरोना काल में सोच भी नहीं सकता कि जब इतने करोड़ों लोग बेरोजगार हो गये हैं। लोगों के सामने कई तरह के संकट हैं। बच्चों की पढ़ाई ठप हो गयी है। उत्तर बिहार के लोग भीषण बाढ़ से बदहाल हैं। कोरोना से गंभीर रूप से पीड़ित लोगों को आक्सीजन के सिलिंडर नहीं मिल रहे। दूसरी बीमारियों से परेशान लोगों के लिए इलाज के तमाम रास्ते बंद हो गये हैं। कोई समूह, संगठन या धर्म ऐसे समय में लोगों की मदद करने के बदले मंदिर की नींव डालने को प्राथमिकता दे सकता है। उस पर से भी ऐसा मंदिर जो इसी देश के दूसरे धर्म के करोड़ों लोगों की भावनाओं को आहत करके बन रहा हो, उन्हें जानबूझकर हर्ट किया गया हो। सच पूछिये तो मैं इसे घृणा की नींव कहना चाहता था। मगर मैं इस शब्द को वापस लेता हूं, क्योंकि ये शब्द भी एक किस्म की नफरत ही हैं।

मैंने इस काम में एक सकारात्मकता को ढूंढ लिया है। मैंने पाया कि लाखों लोगों का एक संगठन जो बहुत जल्द सौ साल पूरे करने वाला है, संभवतः अपने पूरे दौर में पहली दफा एक रचनात्मक काम करने जा रहा है। अब तक उसके तमाम एक्शन विध्वंसक थे, अब पहली दफा वह क्रियेटिव हो रहा है। तो उसे इस सकारात्मक बदलाव के लिए बधाई दी जाये।
साथ ही एक सलाह भी देना चाहूंगा। ऐसा न हो कि इस मंदिर की नींव डाल कर आप इसे ठेकेदारों को सौंप दें। अगर आपमें राम के प्रति आस्था है, अगर आपको लगता है कि सदियों में हिंदुओं के जीवन में यह महत्वपूर्ण क्षण आया है, तो इसे गंवायें नहीं। इस निर्माण कार्य को खुद अपने हाथों से करें। मैंने वे तसवीरें देखीं, जिसमें राम मंदिर आंदोलन के लिए देश भर से लोग श्रीराम लिखी ईंटें लेकर गये थे। वे सभी ईंटें अलग-अलग डिजाइन की थीं। मगर वे ईंटें मुझे अच्छी लगीं, क्योंकि उसमें लोगों की अपनी मेहनत थी, अपनी रचनात्मकता थी। तो अगर करोड़ों लोगों को लगता है कि यह उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण क्षण है, तो वे अपने जीवन में एक दफा जाकर इस निर्माण में हाथ बटायें। एक ईंट जोड़कर आयें। ताकि यह रचनात्मकता का मंदिर बने।

ऐसी ही योजना सरदार पटेल की मूर्ति के वक्त सोची गयी थी कि सभी किसानों से इसके लिए लोहा लिया जायेगा। वह लोहा लिया गया या नहीं, यह तो मालूम नहीं, मगर पता चला कि वह मूर्ति चीन के ठेकेदारों ने तैयार की है। फिर उस मूर्ति से कभी दिल नहीं जुड़ा। मेरा दिल वैसे भी मूर्तियों, मंदिरों से नहीं जुड़ता। हम चैत्यों की परंपरा के लोग हैं। हमारे देवी देवती भी मिट्टी के पिंड से बने होते हैं। अमूमन किसी पेड़ के नीचे पिंड डाल दिया जाता है और लोग वहां फूल चढ़ा आते हैं। हम गहबर को पूजने वाले लोग हैं। इसलिए हमारे इलाके में मंदिर कम हैं। जो हैं भी वे कर्णाटक से आये शासकों के प्रभाव की वजह से हैं।
मगर आस्था अपना व्यक्तिगत चयन है, कोई लोगों की मदद में पुण्य की तलाश करता है, कोई ऊंचे शिखर वाले मंदिर बनाकर। कोई धर्म की मदद से मानवता को बचाता है, कोई लाठी-भाला-फरसा लेकर धर्म को बचाता है, भले इस कोशिश में मानवता लहू-लुहान हो जाये। मगर जब लाठी-भाला-फरसा वाले लोग निर्माण में जुटने की कोशिश करें तो थोड़ी उम्मीद जगती है। उसी की बधाई है। स्वीकार करें। धर्म का यह रास्ता सही है, कुछ देर चलकर देखें।
(वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)