आंकड़ों में हेराफेरी और वैक्सीन-निर्माण के अतिशयोक्तिपूर्ण दावों के बीच आयुर्वेद बना करोड़ों भारतीयों का रक्षा कवच!

पूरे भारत में यदि कोरोना से मृत्यु दर 1.92% है, तो मानव विकास सूचकांक पर भारत के सबसे पिछड़े राज्य बिहार में केवल 0.44% कैसे है? यह आंकड़ों का प्रत्यक्ष घोटाला नहीं है, तो और क्या है?

New Delhi, Aug 17: बड़े लोगों की मौत हो रही है तो पता चल रहा है कि कोरोना की मारक क्षमता बरकरार है, वरना बड़ी संख्या में आम लोगों के मरने की न रिपोर्ट आती है, न आंकड़ों में वे दर्शाये जाते हैं, जिससे आज भी लोगों में यह भ्रम कायम है कि कोरोना आम सर्दी खांसी बुखार जैसा ही है, जिसके कारण अब भी वे लापरवाही भरा रवैया अपनाए हुए हैं।
चूँकि कोरोना में राजनीति के बाद अब व्यापार और भ्रष्टाचार का भी प्रवेश हो गया है और ऐसे ज़्यादातर लोग आपदा में अवसर तलाशने लगे हैं, जो इस महामारी को अपने लाभ के लिए भुनाने में समर्थ हैं, इसलिए कोरोना संक्रमण अब आंकड़ों में नियंत्रित या कम होता हुआ दिखाई देगा, लेकिन हकीकत में यह अभी बढ़ता ही जाएगा।

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दिसंबर-जनवरी भारतवासियों के लिए बेहद मुश्किल साबित होने वाले हैं। जाड़ा यदि ठीक से झेल जाएंगे, तो उम्मीद की जा सकती है कि मार्च-अप्रैल 2021 से स्थिति धीरे-धीरे बेहतर होने लगेगी।जहां तक किसी कारगर वैक्सीन या दवा के आने का प्रश्न है, तो अभी तो बिना बच्चा पैदा किए ही अनेक कथित/संभावित वैक्सीन निर्माता ज़ोर-ज़ोर से झुनझुने बजा रहे हैं, जिसके कारण उत्साही लोग यह मान बैठे हैं कि 26 किलो वाला न भूतो न भविष्यति सुपर भव्य सुपर दिव्य सुपर स्वस्थ बच्चा पैदा होने वाला है। 3 महीने के गर्भकाल से 13 साल का परिपक्व बच्चा पैदा हो सकता है, ऐसा विश्व के परिपक्व बुद्धिजीवियों ने भी मान लिया लगता है।

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पर मुझ जैसे अपरिपक्व व्यक्ति की राय में, यदि सचमुच कोई कथित वैक्सीन आ भी गया, तो एक तो उसके फुलप्रूफ होने और साइड इफैक्ट न होने पर संदेह बरकरार रहेगा, दूसरे वह माइल्ड टू मॉडरेट मरीजों पर ही काम कर सकेगा, क्योंकि वैज्ञानिक रूप से देखें तो महज 3 महीनों में मानवीय ट्रायल पूरा करके भविष्य के परिणामों के बारे में पक्के निष्कर्ष निकाल पाना संभव नहीं है। यानी 3 महीने के गर्भकाल से 13 साल का बच्चा पैदा करना संभव नहीं है। इसलिए मैं तो अब भी यही कहूंगा कि सावधानी में कमी बरतना घातक हो सकता है। सरकारी आंकड़ों में पूरे भारत में कोरोना से मौत आज (17 अगस्त 2020) केवल 1.92% बताया गया है, लेकिन वास्तविकता 4 से 5% की हो सकती है, क्योंकि इतने बड़े, जटिल और अव्यवस्थित देश में सरकारें यदि ईमानदारी से आंकड़े तैयार करने भी लगें (जो कि न तो संभव है, न हो रहा है), फिर भी 2-4% का घपला तो अकेले जनता जनार्दन भी कर ही लेते हैं।

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यह घपला कैसे हो रहा है, इसे मैं बिहार-केंद्रित अपने पिछले लेख में विस्तार से आपको बता चुका हूं। पूरे भारत में यदि कोरोना से मृत्यु दर 1.92% है, तो मानव विकास सूचकांक पर भारत के सबसे पिछड़े राज्य बिहार में केवल 0.44% कैसे है? यह आंकड़ों का प्रत्यक्ष घोटाला नहीं है, तो और क्या है? इसीलिए मैं शुरू से कह रहा हूँ कि भारत के कोरोना आंकड़े आंख मूंदकर भरोसा किये जाने लायक नहीं हैं, क्योंकि यहाँ अपनी नाकामी और बदइंतजामी छिपाने के लिए विभिन्न राज्य सरकारों ने या तो स्पष्ट रूप से आंकड़े छिपाए हैं या उनमें हेराफेरी की है। और आप जानते हैं कि पूरे भारत का आंकड़ा इन्हीं हेराफेरी वाले आंकड़ों को जोड़कर तैयार होता है।

जिन देशों के आंकड़े काफी हद तक विश्वसनीय हैं, जैसे अमेरिका, इटली, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, स्पेन इत्यादि देशों के, वहां हमने देखा है कि कोरोना-संक्रमित पुष्ट हुए मरीजों में मृत्यु दर कम से कम 4-5-6% से लेकर 15-20% तक रही है। पूरी दुनिया में 8-10 देशों को छोड़कर अन्य सभी देशों के आंकड़े फ़र्ज़ी हैं और कम करके बताए जा रहे हैं, इसके बावजूद विश्व में कोरोना से औसत मृत्यु दर आज भी लगभग 5% है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पूरी दुनिया में वास्तविक मृत्यु दर 5% से काफी ज़्यादा होगी।

फिर भारत में जहां स्वास्थ्य सुविधाएं कम हैं, कुपोषित और गरीब लोगों की संख्या ज्यादा है, बेईमानी भी अधिक है, स्वास्थ्य माफिया अपने मुनाफे के लिए लोगों की जिंदगियों से खेलने में घबराते भी नहीं हैं, वहां कोरोना का इतना कम असर बताया जाना संदेहास्पद और बिहार जैसे परम पिछड़े राज्य में तो परम संदेहास्पद है। मृतकों और ठीक हुए लोगों के आंकड़ों में हेराफेरी और घोटाले की यह घटना आम, गरीब, मध्यवर्गीय लोगों के लिए जानलेवा साबित हो रही है, क्योंकि इसकी वजह से वे और भी अधिक लापरवाही से काम ले रहे हैं, जिसके कारण अधिक लोग संक्रमित हो रहे हैं और अधिक लोग मर रहे हैं, जिसे आंकड़ों में छिपा लिया जा रहा है।
फिर भी, यदि इस देश की सरकारें यह कहना चाहती हैं कि उनके आंकड़े सही हैं, तो इसका एकमात्र निष्कर्ष यही है कि जहां जितनी अधिक गरीबी, कुपोषण और कुव्यवस्था है, वहां इस वायरस और महामारी का प्रभाव उतना कम है। फिर क्यों न हम आज से गरीबी, कुपोषण और कुव्यवस्था को बढ़ावा देना शुरू करें, जितने अस्पताल हैं उन्हें भी बंद कर दें, पब्लिक को पूरी तरह उनके हाल पर छोड़ दें और भारत के संविधान में संशोधन करके भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय शिष्टाचार घोषित कर दें?

हां, इतना मैं ज़रूर मानता हूं कि कोरोना से लड़ाई में आयुर्वेद भारत के लिए एक बड़ा वरदान सिद्ध हुआ है। यदि भारत में मृत्यु दर बाकी दुनिया से सचमुच इतनी कम है, तो इसका एकमात्र श्रेय आयुर्वेद को जाता है, जिसने अपनी विभिन्न जड़ी-बूटियों, काढों और वायरस चिकित्सा परंपरा के द्वारा बड़ी संख्या में इस देश के आम गरीब मध्यवर्गीय लोगों की जिंदगियों की रक्षा की है। इस सच्चाई को दुनिया के स्वास्थ्य माफिया कभी स्वीकार नहीं करेंगे, लेकिन मेरी दृष्टि में यह एक परम सत्य की तरह सिद्ध हुआ है। जितनी कामयाबी विकसित और पाश्चात्य देश वैक्सीन बनाकर हासिल नहीं करेंगे, उससे बेहतर कामयाबी भारतीय आयुर्वेद ने पहले दिन से हासिल करके दिखाई है।
इसलिए, जिस दौर में मैं किसी पर भी भरोसा नहीं कर रहा, उस दौर में भी आपसे अपील करता हूँ कि आयुर्वेद पर भरोसा बनाए रखें और आवश्यकतानुसार इसकी ईश्वर प्रदत्त जड़ी-बूटियों से तैयार आयुष काढों का सेवन करते रहें, और अपनी दिनचर्या और आहार विहार को तय करते समय इसकी परंपराओं का ध्यान अवश्य रखें। धन्यवाद।
(वरिष्ठ पत्रकार अभिरंजन कुमार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)