मां-बाप संग आलू-गोभी बीनी, डिबिया के सहारे रात काटी, यहां मिला टीम इंडिया को हॉकी का ‘नीलम’

नीलम खेस पढाई पूरी कर नौकरी करना चाहते थे, ताकि घर का गुजारा हो सके, इत्तेफाक से 2010 में उनका चयन सुंदरगढ के स्पोर्ट्स हॉस्टल में हो गया, वहां जाकर नीलम को अंदाजा हुआ कि हॉकी खेलकर ना सिर्फ पैसा बल्कि शोहरत भी कमाई जा सकती है।

New Delhi, Jan 14 : ओडिशा के राउरकेला के कादोबहाल गांव के रहने वाली 24 वर्षीय नीलम खेस जबरदस्त चर्चा में हैं, दरअसल राउरकेला के बिरसा मुंडा स्टेडियम में जितने लोगों के बैठने की क्षमता है, उससे भी कम नीलम के गांव की आबादी है, खेल से लगाव था, तो बगैर घास के मैदान में ही हॉकी लड़ानी शुरु कर दी, स्कूल से आने के बाद माता-पिता के साथ आलू और गोभी के खेत में काम करते, शाम को अपना शौक पूरा करते।

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हॉकी के हीरो
आदिवासी इलाकों ने देश को हॉकी के कई हीरो दिये हैं, नीलम खेस, माइकल काइंडो, दिलीप टिर्की, लजारा बारला और प्रबोध टिर्की की अगली कड़ी है, नीलम ने जब पहली बार हॉकी पकड़ी, तो उनकी उम्र 7 साल थी, शुरुआत टाइम पास करने के लिये हुई, बाद में डिफेंडर बन गई, क्योंकि फॉरवर्ड के तौर पर दूसरे लोग खेलना और गोल करना चाहते थे, 2017 तक नीलम के गांव में ही बिजली नहीं थी, ना ही उनके जेब में लालटेन खरीदने के पैसे थे, सो बोतल में छेद कर उसमें मिट्टी तेल डालकर डिबिया जलाकर रात गुजारती थी।

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शौक से पहले थी रोजी-रोटी
नीलम खेस पढाई पूरी कर नौकरी करना चाहते थे, ताकि घर का गुजारा हो सके, इत्तेफाक से 2010 में उनका चयन सुंदरगढ के स्पोर्ट्स हॉस्टल में हो गया, वहां जाकर नीलम को अंदाजा हुआ कि हॉकी खेलकर ना सिर्फ पैसा बल्कि शोहरत भी कमाई जा सकती है, उसके बाद उन्होने टीम इंडिया को अपना लक्ष्य बनाया, नीलम के इस सफर में पूर्व हॉकी खिलाड़ी बीरेंद्र लकड़ा मददगार बने।

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आज भी नहीं बदले हालात
नीलम को पहली बार 2016 में भारतीय हॉकी टीम में जगह मिली, इसी साल उन्होने गुवाहाटी में साउथ एशियन गेम्स 2021 में एशियन चैंपियन ट्रॉफी तथा 2022 में जाकार्ता एशिया कप में भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व किया, हालांकि आज भी उनका नसीब नहीं बदला है, उनके पास रहने को पक्का मकान तक नहीं है।