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बर्मा में मोदी का मौन !

दुनिया के कई ताकतवर देश बर्मा सरकार की कड़ी आलोचना कर रहे हैं लेकिन मोदी इस मुद्दे पर मौन और तटस्थ रहे, यह उनकी मजबूरी थी।

New Delhi, Sep 09 : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की म्यांमार-यात्रा से भारत-बर्मा संबंध मजबूत हुए हैं। वैसे वे पहले एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में म्यांमार जा चुके हैं लेकिन यह उनकी पहली द्विपक्षीय राजकीय यात्रा थी। बर्मा के लिए भारत का महत्व दो प्रमुख कारणों से है। एक तो वहां ऑग सान सू ची के नेतृत्व में कई दशक बाद लोकतंत्र का उदय हुआ है। अभी भी वहां फौज और सरकार के बीच काफी खींचतान है। ऐसे में भारत, जो कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और बर्मा का पड़ौसी देश है, उसकी काफी सहायता कर सकता है।

दूसरा, Burma में आजकल चीन की गतिविधियां काफी तेजी से बढ़ रही हैं। भारत के लिए यह चिंता का विषय है। भारत के लगभग हर पड़ौसी देश के साथ अपने संबंध घनिष्ट बनाकर चीन एक तरह से भारत का घेराव कर रहा है। उधर बर्मा, भारत और चीन की इस प्रतिस्पर्धा का लाभ भी उठाना चाहता है। मोदी की इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच 11 समझौते हुए हैं, जिनमें सामुद्रिक सुरक्षा, व्यापार, स्वास्थ्य, शिक्षा, लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत बनाने से संबंधित समझौते भी हैं। बर्मा होते हुए थाईलैंड तक सड़क बनाने की योजना भी है। राखीन नामक सीमांत प्रांत में आर्थिक निर्माण-कार्यों के लिए भारत विशेष सहायता करने के लिए भी वचनबद्ध है।

यह राखीन प्रांत वही है, जहां रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं। यहां आजकल घमासान मचा हुआ है। लगभग दो लाख रोहिंग्या मुसलमान बर्मा से भागकर बांग्लादेश में घुस गए हैं। बर्मी फौज और बर्मी बौद्ध लोग इन मुसलमानों को बुरी तरह से मार रहे हैं, उनके घरों को आग लगा रहे हैं, उनसे उस इलाके को खाली करवा रहे हैं। लाखों रोहिंग्या लोग पीढ़ियों से बर्मा में रह रहे हैं। लेकिन बर्मी सरकारें उन्हें नागरिकता नहीं देतीं। अब कुछ रोहिंग्या मुसलमानों ने आतंकी गतिविधियां भी शुरु कर दी हैं। उन्होंने पिछले हफ्ते फौज और पुलिस पर हमला बोल दिया था। उसके फलस्वरुप हर रोहिंग्या बर्मा का दुश्मन बन गया है।

दुनिया के कई ताकतवर देश Burma सरकार की कड़ी आलोचना कर रहे हैं लेकिन मोदी इस मुद्दे पर मौन और तटस्थ रहे, यह उनकी मजबूरी थी, क्योंकि भारत में घुस आए 40 हजार रोंहिग्या लोगों को वापस भेजने के लिए भारत ने पूरी तैयार कर रखी है। वैसे मोदी चाहते तो अपनी Burma यात्रा के दौरान कुछ ऐसे संकेत दे सकते थे, जिससे रोहिंग्या-संकट थोड़ा शिथिल पड़ जाता और बर्मा-बांग्ला तनाव भी घट जाता लेकिन यह ज्यादा जरुरी था कि बर्मा हमसे खुश रहे, क्योंकि हमारे पूर्वोत्तर के आतंकियों का सफाया उसके सहयोग के बिना नहीं हो सकता।

(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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