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क्यों ना साँस लेने पर ही बैन लगा दिया जाए ?

किसी को भी ये बात मानने पर कोई संकोच नहीं होगा कि दिवाली के आसपास पटाखों की वजह से प्रदूषण बहुत बढ़ जाता है। पर सवाल ये है कि क्या बैन ही एकमात्र विकल्प है ?

New Delhi, Oct 11 : दिल्ली और एनसीआर में प्रदूषण बढ़ता है , इसलिए पटाखों की ख़रीद और बिक्री पर बैन। मु्ंबई में गणपति के दौरान शोर बहुत होता है, इसलिए लाऊडस्पीकर पर बैन।
पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ सकता है, इसलिए मुहर्रम के दिन दुर्गा विसर्जन पर बैन।
बिहार के परिवार बर्बाद हो रहे हैं, इसलिये शराब पर बैन। एक धर्म की आस्था को ठेस पहुँचती है , इसलिये बीफ पर बैन।

लड़का-लड़की अगर एक दूसरे को गुलाब देते हैं तो हमारी महान संस्कृति बिगड़ती है, इसलिए वैलेंटाइन डे पर Ban। कपड़ों से बलात्कार बढ़ते हैं, इसलिए जींस -स्कर्ट पर बैन। धर्म के ख़िलाफ़ कोई काम ना हो, लिहाज़ा महिलाओं के बाल कटाने, भौंहें बनवाने और मोबाइल के इस्तेमाल पर बैन।
आपके मज़ाक़ से हमारी भावनाएँ आहत होती हैं, इसलिए हास्य व्यंग्य पर बैन। आपकी वजह से भारत की छवि ख़राब हो रही है, लिहाज़ा आपकी किताब, फ़िल्म – डॉक्यूमेंट्री पर बैन। बैन , बैन और सिर्फ बैन। ये चंद उदाहरण हैं , जो पिछले कुछ वर्षों में हम सब पर थोपे गए हैं। जिसे जब मन आता है और जहाँ मौक़ा मिलता है , वो चौधरी बना फिर रहा है।

ताज़ा उदाहरण है सुप्रीम कोर्ट का पटाखों पर बैन का आदेश। किसी को भी ये बात मानने पर कोई संकोच नहीं होगा कि दिवाली के आसपास पटाखों की वजह से प्रदूषण बहुत बढ़ जाता है। पर सवाल ये है कि क्या बैन ही एकमात्र विकल्प है ? बैन के अलावा क्या और कोई रास्ता ही नहीं बचा कि हम समस्या से भी लड़ें और अपनी आज़ादी भी बरक़रार रखें ? लेकिन हम ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि रास्ता ढूँढने में वक़्त लगता है, दिमाग़ लगता है और मुश्किलें भी पेश आती हैं, इसलिये आसान रास्ता अपनाया जाए- चलो बैन कर देते हैं। हैरानी होती है कि तालिबानी फ़ैसले करने वाली पंचायतों, कुछ समूहों, सरकारों के इस बैन जाल में अब सुप्रीम कोर्ट भी फँस गई है। इसी बैन संस्कृति को आगे बढ़ाना है तो चलिए ईद के समय बकरे काटने पर भी बैन लगाया जाए क्योंकि उससे भी प्रदूषण बढ़ता है, होली पर बैन लगाया जाए क्योंकि पानी का बहुत नुक़सान होता है। इस हिसाब से हज़ारों चीज़ें बैन हो सकती हैं।

इस देश का संविधान ही हमें आज़ादी देता है कि हम जैसे चाहें जिएँ, जो मर्ज़ी खाएँ, जो मन हो पीएँ, जिससे चाहें शादी करें, जैसे चाहें अपना त्यौहार मनाएँ, जो चाहे पढ़े या देखें – फिर इस तरह के एकतरफ़ा फ़ैसलों से हमारी आज़ादी क्यों छीनी जा रही है ? और अगर Ban ही इस देश का भविष्य है तो बदल दीजिये संविधान और खुलेआम बोल दीजिए कि अब आप उस भारत में नहीं रहते हैं , जो आज़ाद है। इस तरह के Ban के तमाम समर्थकों से मेरा एक और निवेदन है। आप बस एक छोटा सा काम और कीजिए। जीने और साँस लेने पर ही Ban लगा दीजिए।
एक मिनट में सारी समस्या ही ख़त्म हो जाएगी। ना रहेगा बाँस ना बजेगी बाँसुरी।

(चर्चित वरिष्ठ पत्रकार विनोद कापड़ी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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