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कहीं ये भाजपा के लिए खतरे की घंटी तो नहीं, क्या होगा 2019 में ?

गुजरात में कांग्रेस की सरकार बनना तो असंभव है लेकिन गुजराती वोटरों को लुभाने के लिए भाजपा नेता जितनी मशक्कत कर रहे हैं उसका अर्थ क्या है ?

New Delhi, Oct 18: गुरदासपुर के संसदीय उप-चुनाव में बीजेपी की करारी हार, इलाहाबाद विवि, हैदराबाद विवि, जनेविवि, दिल्ली विवि और महाराष्ट्र के स्थानीय चुनाव में भाजपा को मिली करारी शिकस्त का कोई संदेश है या नहीं ? केरल में वेंगारा विधानसभा में बीजेपी के उम्मीदवार को हिंदू वोटों का 20 प्रतिशत भी नहीं मिल पाने के संकेत हम समझ रहे हैं या नहीं ? अगले साल तक छह विधानसभा चुनावों में उसे जोर-आजमाई करनी है। अगर ढर्रा यही रहा तो 2019 में क्या होगा?  गुरदासपुर में बीजेपी के नेता विनोद खन्ना उस सीट को चार बार जीत चुके थे और उनके निधन के कारण खाली हुई यह सीट बीजेपी को ही मिलनी चाहिए थी, जैसा कि प्रायः होता ही है।

लेकिन बीजेपी का धाकड़ और संपन्न उम्मीदवार भी यह सीट दो लाख वोटों से खो गया तो उसके पीछे पंजाब में कांग्रेस सरकार की स्वच्छ छवि तो एक कारण है ही लेकिन यह भी सत्य है कि मोदी लहर अब बेअसर होती जा रही है। इस जीत को राहुल गांधी के खाते में डालने की बजाय कांग्रेसी मुख्यमंत्री अमरिंदरसिंह के नाम लिखना ज्यादा तर्कसंगत लगता है लेकिन गुजरात में राहुल की सभाओ में जैसा उत्साह दिखाई पड़ रहा है, वह मोदी-लहर संबंधी उक्त निष्कर्ष को पुष्ट करता है।  

गुजरात में कांग्रेस की सरकार बनना तो असंभव है लेकिन गुजराती वोटरों को लुभाने के लिए भाजपा नेता जितनी मशक्कत कर रहे हैं उसका अर्थ क्या है ? क्या यह नहीं कि बीजेपी के केंद्रीय और प्रांतीय नेता जरुरत से ज्यादा चिंतित हैं। उनकी चिंता वाजिब है। क्योंकि जिन बड़े-बड़े कामों को अच्छा समझ कर बीजेपी सरकार ने शुरु किया है, उनके ठोस परिणाम अभी तक सामने नहीं आए हैं। उसके विपरीत आम आदमी की कठिनाइयां बढ़ी हैं। इसमें शक नहीं कि अब तक इस सरकार में भ्रष्टाचार का एक मामला भी सामने नहीं आया है लेकिन भ्रष्टाचार रहित होने का सरकारी दावा ऐसा ही है

जैसा कि कोई चौकीदार कहे कि मैंने चोरी नहीं की है। आपको यह नौकरी हमने चोरी करने के लिए थोड़े ही दी है!  देश के नौजवानों और पढ़े-लिखे लोगों में केंद्र सरकार की छवि कैसी होती जा रही है, इसके प्रमाण विश्वविद्यालयीन चुनावों से मिल रहे हैं। इस सरकार के सर्वज्ञ नेताओं से किसी दूरगामी वैचारिक राजनीति की आशा करना तो बांस में से रस निचोड़ने के बराबर है लेकिन वह राहत की राजनीति तो कम से कम ठीक से करे।

(वरिष्ठ पत्रकार डॉ़. वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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