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डोनाल्ड ट्रम्प और शी जिनपिंग के हाव-भाव बदले बदले क्यों हैं

चीन के साथ व्यापार में असंतुलन और बेकाबू उत्तर कोरिया को काबू में करने की चिंता के साथ डोनाल्ड ट्रम्प बीजिंग पहुंचे थे।

New Delhi, Nov 13: वही चीन है और वही अमेरिका। तब भी मेजबान चीन और मेहमान अमेरिका था। अब भी मेजबान चीन है और मेहमान अमेरिका। लेकिन नजारा बिल्कुल बदला हुआ है। तब सितम्बर 2016 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चीन का दौरा किया था, तो न सम्मान था, न विमान से उतरने के लिए उपयुक्त सीढ़ियां। अब नवम्बर 2017 में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प चीन यात्रा पर पहुंचे तो उनके लिए रेड कारपेट थी और विमान से उतरने के लिए स्वचालित सीढ़ियां। तब ओबामा के साथ आए अधिकारियों और पत्रकारों के साथ एयरपोर्ट पर चीनी अधिकारियों ने घिनौना बर्ताव किया था, तो ट्रम्प की आवभगत में चीन ने पलक-पांवड़े बिछा दिए। तब चीनी अधिकारियों ने ओबामा के अधिकारियों से ‘‘ये हमारा देश है’, जैसी कड़वी भाषा बोलकर ललकारा था, तो ट्रम्प के लिए शाही भोज का इंतजाम किया गया था। इस शाही भोज के स्वाद तक इससे पहले कभी कोई अमेरिकी राष्ट्रपति नहीं पहुंचा था।तब नाराज राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि दोनों राष्ट्रों के मूल्यों में बहुत अंतर है। और अब रोमांचित राष्ट्रपति ट्रम्प चीन की प्रशंसा में कसीदे पढ़ रहे हैं। यहां तक कि कुछ दिन पहले खुद चीन पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था के साथ बलात्कार करने का आरोप लगाने वाले ट्रम्प अब शी जिनपिंग को सैल्यूट कर रहे हैं।

साल भर के भीतर अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए चीन का यह बदला रूप और अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए चीन के प्रति उपजा प्रेम, दोनों राष्ट्रों के बीच संबंधों की नई कहानी बयां करते हैं। लेकिन यह कहानी उतनी सपाट भी नहीं है जिसका सीधा मतलब निकाल लिया जाए। सवाल ओबामा की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का नहीं था। अमेरिकी प्रशासन का नजरिया इस सोच से ऊपर होता है। उसके लिए सवाल अमेरिका की प्रतिष्ठा का था। ओबामा को उचित सम्मान नहीं मिलना अगर अमेरिका के लिए चिंता का विषय थी, तो उससे कहीं ज्यादा चिंता का विषय अब चीन में ट्रम्प का अभूतपूर्व स्वागत है क्योंकि ऐसा अकारण या संयोगवश कतई नहीं है। चीन के साथ व्यापार में असंतुलन और बेकाबू उ.कोरिया को काबू में करने की चिंता के साथ डोनाल्ड ट्रम्प बीजिंग पहुंचे थे। अपने इस दौरे में उन्हें अपनी चिंताओं के समाधान की उम्मीद थी,बावजूद इसके कि इन दोनों मामलों पर वह चीन के खिलाफ जहरीली बयानबाजी करते रहे हैं। लेकिन बदले हालात में चीन ने उन्हें अतिथि से याचक के रूप में बदल दिया। जो ट्रम्प चीन को लगातार धमका रहे थे, वही ट्रम्प चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को अति विशिष्ट व्यक्ति का तमगा देते नजर आए। और जब दुनिया की सारी महाशक्तियां ट्रम्प-जिनपिंग मुलाकात को लेकर पसोपेश में थी, तो दोनों दिग्गज बीजिंग के ग्रेट हॉल ऑफ द पीपुल में 250 बिलियन डॉलर से ज्यादा के समझौतों पर दस्तखत कर रहे थे।

इस हकीकत से कौन वाकिफ नहीं है कि उ.कोरिया को चीन और रूस की मदद मिलती रही है। यहां तक कि उसे आणविक शक्ति बनाने में भी चीन ने पाकिस्तान को मोहरे की तरह इस्तेमाल किया। इसके अलावा उ.कोरिया का सबसे बड़ा व्यापारिक रिश्ता भी चीन के साथ है, जो लगातार मजबूत होता जा रहा है। सन 2000 से 2015 के बीच दोनों देशों का व्यापार दस गुना बढ़कर 6.86 अरब डॉलर तक पहुंच चुका था। इसके बावजूद डोनाल्ड ट्रम्प ने उ.कोरिया को परमाणु शक्ति से विहीन करने और व्यापारिक संबंध बिल्कुल खत्म करने की दुनिया से जो अपील की है, वह कम से कम चीन के संदर्भ में तो याचक जैसा और अति आशावाद के सपने जैसा ही लगता है। उ.कोरिया के मुद्दे पर साथ देने की प्रतिबद्धता के बावजूद चीन ने द्विपक्षीय व्यापारिक संबंधों को एकतरफा खत्म करने से इनकार करके ट्रम्प की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। चीन ने कहा है कि उ.कोरिया को नियंत्रित करने में वह दुनिया के साथ है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ के फैसलों के आधार पर। चीन में ट्रम्प का जोरदार स्वागत अमेरिका के लोगों के भी गले नहीं उतर रहा है।

अपने एशिया दौरे से उ.कोरिया मसले पर कुछ ठोस लेकर डोनाल्ड ट्रम्प लौट रहे हैं, ऐसा नहीं लगता। चीन के साथ व्यापार संतुलन अमेरिका के पक्ष में होगा इसकी भी उम्मीद नहीं के बराबर है। जिनपिंग चीन में अब तक के सबसे ताकतवर नेता हैं और अपने देश के व्यापारिक हितों से समझौता करने की उनके सामने कोई मजबूरी भी नहीं है। बल्कि चीन की कोशिश होगी कि वह अमेरिका को झुका कर दुनिया के बाकी देशों के साथ अपने संबंधों को अनुकूल बना सके। ऐसे देशों में भारत भी एक है।भारत और अमेरिका के साथ चीन का व्यवहार एक जैसा ही है। शी जिनपिंग एक तरफ भारतीय प्रधानमंत्री के साथ साबरमती के तट पर झूला झूलते हैं, तो दूसरी तरफ उनकी सेना भारतीय सीमा में घुसपैठ करती है। यानी मुंह में राम और बगल में छुरी। अब अमेरिका के साथ भी उसका बर्ताव आश्र्चयजनक है। लेकिन इससे चीन की बढ़ती ताकत का अंदाजा होता है।

चीन आर्थिक महाशक्ति बनने के प्रयासों में जुटा है और टकराव से ज्यादा झुकाने की नीति पर अमल करता दिख रहा है।अमेरिका में ट्रम्प ताकतवर होने के बावजूद विश्वसनीय नहीं रहे हैं। उन पर रूस की मदद से चुनाव जीतने के आरोप हैं। अब चीन में गैरमामूली सम्मान उनकी विश्वसनीयता को और सख्त कसौटी पर कसेगा। यानी मुश्किलें खुद डोनाल्ड ट्रम्प की बढ़ने वाली हैं। इसलिए ऐसा कोई आधार नहीं है कि चीन अमेरिका पर भरोसा करे। अब सवाल यह है कि क्या अमेरिकी राष्ट्रपति उ.कोरिया को अलग-थलग करने के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं? क्या उ.कोरिया से दूरी बनाने के कारण चीन को होने वाले नुकसान की भरपाई अमेरिका करेगा? चीन ऐसा मौका झटक लेने की कोशिश में है। ऐसे में, आने वाले दिनों में दोनों देशों के बीच उ.कोरिया को लेकर एक दूसरे को दबाव में लेने वाले बयान सुनने को मिल सकते हैं।

एक समय था जब दुनिया से पूछे बिना ही अमेरिका ने इराक के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया था और बाद में संयुक्त राष्ट्र का समर्थन हासिल किया था। युद्ध का बहाना भी झूठा साबित हुआ था। इराक में रासायनिक हथियार नहीं मिले। मगर आज जबकि उ.कोरिया खुलेआम परमाणु हथियारों का परीक्षण कर रहा है, अमेरिका को घर में घुसकर मारने की धमकी दे रहा है, ट्रम्प के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल कर रहा है, तो अमेरिका उसका जवाब देने की स्थिति में नहीं है। इसके लिए वह चीन का मुंह देख रहा है। और चीन भी इसकी कीमत वसूलने में जुटा दिखता है। चीन और अमेरिका साझा सैनिक अभ्यास करें या व्यापारिक समझौतों से जुड़ें, यह उपलब्धि अमेरिका के लिए कम और चीन के लिए ज्यादा है। चाहे दक्षिण चीन सागर में चीन की गतिविधियां रही हों या भारत के संदर्भ में चीन की विस्तारवादी सोच, इससे चीन के हौसले बुलंद होंगे। अमेरिका अब तक चीन को काबू में करने की नीति पर चलता रहा है। लेकिन अब डोनाल्ड ट्रम्प ने इस नीति को उलट दिया है। अब अमेरिका खुद चीन के काबू में होता दिख रहा है। और ये स्थिति भारत जैसे देश के लिए भी चिंताजनक है।

(वरिष्ठ पत्रकार उपेंद्र राय के फेसबुक पेज से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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