New Delhi, Jan 04: शीर्षक देखकर लग रहा होगा कि तीन शहरों का ‘आप’ से क्या तुक? सही भी है. लेकिन कुछ बातें क्या बेतुकी नहीं हो सकतीं? जिसका कोई तालमेल ना हो, रिश्ता-नाता बैठ ना पाए, कुछ समझ ना आए तो ये बेतुकापन है. जब ऐसा होता है तो करने-कहनेवाला खारिज होने लगता है- बात से, विश्वास से, काम से और ईमान से भी. ऊना की आग सेंककर जिग्नेश मेवाणी विधायक बन गए, सहारनपुर की हिंसा से चंद्रशेखर आजाद रावण चमक गए और पुणे के भीम कोरेगांव के दंगल से कई लोग अपनी गोटी लाल करने की फिराक में हैं. लेकिन इनकी मंशा दलित हित नहीं दलित से अपना हित की है. राजनीति में – मौके पर मेहनत करो और जब मुराद पूरी हो जाए तो मलाई काटो- वाली नीति चलती है.
मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, माया, राम विलास पासवान, राम दास अठावले इन सबों ने कभी मौके पर चौका मारने के लिये
’आप’ कुर्सी देखे-भाले और फिर तबीयत से बैठ गए. धीरे-धीरे बालकनी वाली हवा भी लगी. अब छत पर सब रहेंगे, वहीं से हाथ हिलाएंगे, फूल फेंकेगे तो फिर कंफ्यूजन हो जाएगा. सो छत पर अकेले रहने का जतन करना पड़ा. जस्टिस हेगड़े, प्रशांत भूषण, योगेंद्र , आनंद कुमार, शाजिया, अंजलि दमानिया, मयंक गांधी और अब कुमार विश्वास ( बस कहने भर के लिये पार्टी में बचे हैं). लिस्ट बहुत लंबी हो सकती है, छोटे में निपटाई मैंने- ये सब बाहर हो गए. अभीतक सवाल इसलिेए टिक नहीं पाए क्योंकि सबके निजी स्वार्थ ’आप’ के गगनचुंबी जनसरोकारी राजनीति से टकरा रहे थे- ऐसा आप कहते थे और मान भी लिया जाता था. लीक हटकर राजनीति करनेवाले को लीक से हटकर समझने की समझ तो पैदा करनी ही पड़ेगी ना.
सो लोग पैदा करते रहे और ‘आप’ की मानते रहे. लेकिन अब ये गुप्ता-द्वय पर अनुकंपा कर आपकी छवि सुसाइड बॉम्बर बन
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